उत्तरी छत्तीसगढ़ में राजपरिवार अहम, सिंहदेव को कमजोर दिखाने की कोशिश कांग्रेस पर भारी पड़ सकती है, BJP को जमीनी स्तर की चुनौती

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Atul Tiwari
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उत्तरी छत्तीसगढ़ में राजपरिवार अहम, सिंहदेव को कमजोर दिखाने की कोशिश कांग्रेस पर भारी पड़ सकती है, BJP को जमीनी स्तर की चुनौती

RAIPUR. छत्तीसगढ़ की स्थापना से लेकर अब तक हुए चार आम चुनावों में उत्तरी छत्तीसगढ़ की राजनीति, कांग्रेस और बीजेपी में बंटी हुई है। प्रदेश की दो ध्रुवीय राजनीति में 2003 के प्रथम विधानसभा चुनाव में, बीजेपी ने इस क्षेत्र की 23 में से 14 सीटों पर विजय हासिल की, कांग्रेस को 8 और बसपा को 1 सीट मिली। आदिवासी बाहुल्य वाले इस अंचल में तब के दौर में नक्सलवाद और पलायन की पीड़ा ने जनता को बीजेपी की ओर लाने में निर्णायक भूमिका निभाई। राजघरानों से प्रभावित सरगुजा, जशपुर और कोरिया की राजनीति में कभी धुर नक्सली इलाके रहे इस क्षेत्र में जनता के आशीर्वाद से 2008 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बढ़त का इतिहास दोहराया। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के वोट आधार में वृद्धि होती गई। 2013 के आम चुनाव में बीजेपी का प्रभाव इस इलाके में घटा। इस चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को ना केवल कड़ी टक्कर दी, बल्कि उसे छत्तीसगढ़ के उत्तरी क्षेत्र में दूसरे नंबर की स्थिति में महज एक सीट की बढ़त के साथ खड़ा कर दिया। 2018 में कांग्रेस की 23 में से 22 सीट जीतकर प्राप्त अप्रत्याशित विजय के साथ, कभी बीजेपी के गढ़ रहे इस क्षेत्र में कांग्रेस की दमदार उपस्थिति है । 



8 माह बाद प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं। चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ पिछले चुनाव की तरह कांग्रेस की जबर्दस्त जीत के दोहराव की भविष्यवाणी करने में किंतु-परंतु करते दिखते हैं। सरगुजा अंचल में कांग्रेस के मजबूत आधार और सरकार में स्वास्थ्य मंत्री और उनके समर्थकों की उपेक्षा कांग्रेस पर भारी पड़ सकती है। उत्तर छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में बहु प्रचारित, अपने लोकलुभावन घोषणापत्र की पेशकश से क्षेत्र में बदलाव के संवाहक बने टीएस सिंहदेव को कमजोर दिखाने का प्रयास कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सरगुजा क्षेत्र की राजनीति हमेशा से राजघरानों से प्रभावित रही है। 



मान्यता है कि जीत हार के सारे समीकरण महल के समर्थन और विरोध पर टिके रहते हैं। कोरिया रियासत के शाही परिवार के प्रतिनिधि रामचंद्र सिंहदेव अपनी सादगी व ईमानदारी छवि को लेकर व्यापक प्रभाव रखते थे। उनकी भतीजी और कोरिया राजघराने की अंबिका सिंहदेव जिले में बीजेपी के वर्चस्व को तोड़कर विधायक हैं। सरगुजा जिले की तीनों विधानसभा सीटें 2008 से कांग्रेस ना केवल जीत रही है, बल्कि मतों का अंतर अनवरत बढ़ता जा रहा है। कांग्रेस का भारत जोड़ो और हाथ जोड़ो अभियान भी इन दिनों चल रहा है, लेकिन कांग्रेस की आपसी खींचतान उसके असली एजेंडा या अभियान से कहीं ज्यादा सुर्खियों में है। बलरामपुर जिले में सत्ता पक्ष के विधायक विपक्षी भूमिका में ज्यादा नजर आते हैं। कोरबा में मंत्री की अधिकारियों को फटकार सुर्खियां बनती रहती है। विडम्बनापक ढंग से यहां ईडी सदैव चर्चा के केंद्र में है और साथ ही पदस्थापित अधिकारी भी। रायगढ़ और नवोदित सारंगढ़ के नए नवेले विधायकों को भी चुनावी कसौटी पर कसा जाना शेष है।  



पिछले 2018 के चुनाव में बीजेपी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा बढ़ती नौकरशाही के दखल ने उसे जिस पायदान पर ला खड़ा किया है, वहां से राजनीतिक आरोह के लिए लंबा रास्ता तय करना है। चुनावी वर्ष शुरू होते ही बीजेपी की सरगर्मियां बढ़ गई हैं। पिछले माह सरगुजा में प्रदेश कार्यसमिति की बैठक और जनजातीय अधिकार सम्मेलन हुआ है। प्रदेश में प्रधानमंत्री आवास से संबद्ध सरकार के रवैये को गरीब विरोधी बताकर, चरणबद्ध आंदोलन भी जारी है, लेकिन बीजेपी को जशपुर में ऑपरेशन घर वापसी अभियान चलाकर सुर्खियों में रहने वाले जननेता दिलीप सिंह जूदेव की कमी खलती है। 



डीलिस्टिंग व धर्मांतरण के खिलाफ बीजेपी अभियान चला रही है, पर आदिवासियों का विश्वास अर्जित करने और जन-जन तक पहुंचने में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। वनवासी कल्याण आश्रम के समर्पण और पूर्ण सहयोग ने जशपुर रायगढ़ में राह आसान बनाई थी, पर अब सब आपसी खींचतान गुटबाजी बढ़ रही है। बीजेपी के निष्ठावान कार्यकर्ता परंपरागत मतदाता और समर्थकों को जोड़ना अब भी चुनौती बनी हुई है। संगठनात्मक गतिशीलता की भी कमी है। अहंकार से लबरेज कुछ नेता नीतिपरक मामलों में हमेशा अस्पष्ट पर राजनैतिक महत्वाकांक्षा को लेकर स्पष्ट रहे हैं, पार्टी को इनकी छाया से बाहर लाना पड़ेगा।



भटगांव प्रेमनगर में भाजपा गोंड, रजवार, साहू, जायसवाल वोटों को लामबंद करने में जुटी है, हालांकि आदिवासी विशेषकर गोंड वोट की राह में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी प्रमुख चुनौती है, जो धीरे धीरे इनकी मुखर आवाज बनती जा रही है । अनारक्षित सीट प्रेमनगर का ऐसा परसेप्शन बना है कि दोनों प्रमुख दल इस सीट पर आज भी गैर आदिवासी चेहरे पर ठिठक जाते हैं। भटगांव में टिकट की होड़ ने स्थानीयता व जातिगत समीकरण साधने को अपरिहार्य सा कर दिया है। अम्बिकापुर सहित इन तीनों सीटों में बीजेपी प्रमुख खिलाड़ी है, पर तीव्र अंतर्कलह में घिरी है। यहां असल मे कोई बदलाव इस बात पर निर्भर करेगा कि बीजेपी चुनाव से पूर्व जमीनी स्तर पर क्या करती है? कभी पार्टी को सींचने वाले वर्कर, जो विगत चुनाव से उदासीन भाव में हैं, उन्हें कितना साध पाती है? कद्दावर आदिवासी नेता लरंग साय की कर्मभूमि रही सामरी सीट में उनकी विरासत के कई नए दावेदार चुनावी रण में अपनी संभावनाएं निहार रहे हैं। यहां के कांग्रेस विधायक और संगठन की राहें बिल्कुल अलहदा हैं। लुंड्रा में मजबूत कांग्रेस का मुकाबला बीजेपी के नए चेहरे से होना तय माना जा रहा है।  



कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि उत्तर से उठती बदलाव की आवाज सामाजिक समीकरण, माइक्रो मैनेजमेंट के साथ संगठन की ओवरहालिंग से ही मुखरित हो पाएगी। 9 जिलों के 23 सीटों के साथ खड़े उत्तरी छत्तीसगढ़ में, पार्टियों के लिए आदिवासियों का विश्वास अर्जित करना महत्वपूर्ण है, वहीं किसानों के हित, हाथी समस्या, खनिज उत्खनन, आवागमन को सुगम बनाने के साथ रोजगार भी अहम मसले हैं।

 


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