BHOPAL. प्रदेश में इस समय राजनीति की धुरी आदिवासियों के आस-पास घूम रही है। यानी आदिवासियों शरण में पूरी सियासत आ गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृहमंत्री अमित शाह तक सूबे के आदिवासियों को लुभा रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस गोंडवाना से गठबंधन कर इस परंपरागत वोट बैंक में अपना खोया जनाधार फिर तलाश रही है। जयस का बीआरएस में बदलना राजनीतिक दलों को टेंशन में डाल रहा है। बीआरएस इस चुनाव में खुद को किंगमेकर की भूमिका में लाने का दावा कर रही है। आखिर प्रदेश की पूरी सियासत आदिवासी शरणम गच्छामि क्यों हो रही है। इस सवाल का साफ जवाब है कि प्रदेश की सत्ता पर कौन राज करेगा इसका फैसला इन्हीं लोगों के पास है। यानी प्रदेश की सौ से ज्यादा सीटों का नतीजा इन आदिवासियों के हाथ में ही है।
सीएम शिवराज ने गौरव यात्रा के हरी झंडी दिखाकर रवाना किया
गृह मंत्री अमित शाह जो कि आदिवासी जिले बालाघाट में रानी दुर्गावती गौरव यात्रा का शुभारंभ करने बालाघाट जाने वाले थे, लेकिन खराब मौसम के कारण वे नहीं जा पाए। शाह के दौरे के जरिए भाजपा महाकोशल के बिगड़े समीकरणों को साधने आने वाले थे उनकी जगह शिवराज सिंह चौहान बालाघाट पहुंचे और गौरव यात्रा के हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। बालाघाट मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित है, इसलिए माना जा रहा है कि शाह का दौरा आदिवासियों को साधने के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। इसके आसपास के जिले सिवनी और छिंदवाड़ा भी आदिवासी बहुल हैं। शाह के इस दौरे को भाजपा की चुनावी रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह बालाघाट से पहले छिंदवाड़ा और सतना प्रवास पर आ चुके हैं। सतना में वह शबरी जयंती पर आयोजित कोल समाज के सम्मेलन में शामिल हुए थे। माना जा रहा है कि महाकोशल क्षेत्र के समीकरणों को साधने के लिए सम्मेलन में शाह को बालाघाट आमंत्रित किया गया। इसका लाभ आदिवासी वोट के रूप में पार्टी को मिलेगा। भाजपा का परंपरागत गढ़ माने जाने वाले महाकौशल क्षेत्र में पार्टी को नगरीय निकाय चुनाव में झटका लगा है।
गौरव यात्रा का समापन 27 जून को शहडोल में नरेंद्र मोदी करेंगे
जिस गौरव यात्रा को अमित शाह ने शुरू किया उसका समापन 27 जून को आदिवासी जिले शहडोल में नरेंद्र मोदी करेंगे। मोदी इस दिन आदिवासी के साथ भोजन भी करेंगे और सभा को संबोधित करेंगे। मोदी का पिछले दो महीने में मध्यप्रदेश का दूसरा दौरा है। इससे पहले वे 24 अप्रैल को रीवा में पंचायत राज सम्मेलन में शामिल होने आए थे। शाह और मोदी का ये दौरा विंध्य और महाकौशल को साधने के रूप में भी देखा जा रहा है। इन दोनों इलाकों में 38 सीटें हैं। महाकौशल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का गढ़ माना जाता है इसलिए यहां पर सेंधमारी करना बीजेपी के लिए जितना जरूरी है उतना मुश्किल भी। विंध्य में पिछले चुनाव में बीजेपी को छप्पर फाड़कर सीटें मिलीं थीं, लेकिन इस बार एंटी इन्कमबेंसी ने बीजेपी को मुश्किल में डाल दिया है। मोदी का दौरा बीजेपी की खिसकी जमीन में मरम्मत के रूप में भी देखा जा रहा है। इनमें अधिकांश सीटें आदिवासी वर्ग की हैं इसलिए यहां पर आदिवासी नमो नम: हो रहा है।
महाकौशल में कुल सीटें- 38
- बीजेपी -13
विंध्य में कुल सीटें – 30
- बीजेपी – 24
गोंगपा से हाथ मिलाकर कांग्रेस आदिवासी सीटें साधना चाहती है
सवाल सिर्फ इन 68 सीटों का ही नहीं है बल्कि, आदिवासियों की आरक्षित 47 सीटें और उनके प्रभाव वाली सौ से ज्यादा सीटों का भी है। यही वे सीटें हैं जो अपनी जेब में सरकार बनाने की चाबी रखती हैं। यानी जिन पर इनकी मेहरबानी होगी उसकी सरकार प्रदेश में बनेगी। कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक उससे छिटकता जा रहा है। प्रदेश का राजनीतिक इतिहास गवाह है कि जिसको आदिवासी वर्ग ने समर्थन दिया है सरकार उसी की बनी है। अब सरकार बनानी है तो आदिवासी वर्ग का समर्थन चाहिए ही। ये समर्थन कैसे मिलेगा जब उनके हित की बात की जाएगी। कांग्रेस का गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से गठबंधन भी इसी रणनीति का हिस्सा है। गोंगपा से हाथ मिलाकर कांग्रेस आदिवासियों की 50 सीटें साधना चाहती है। कांग्रेस को पिछले चुनाव में सीधे तौर पर गोंगपा से 12 सीटों का नुकसान हुआ था।
आदिवासी वोट बैंक चुनाव में निर्णायक साबित होता है
अब आदिवासी सीटों का दो दशक का इतिहास देखिए। मध्यप्रदेश में आदिवासियों की 47 सीटें हैं। 2003 में 41 सीटें थीं। इनमें से बीजेपी के पक्ष में 37 सीटें गईं और कांग्रेस हिस्से में महज 2 सीटें आईं। सरकार बीजेपी की बनी। 2008 में आदिवासियों की 47 सीटों में से बीजेपी को 30 और कांग्रेस को 16 सीटें मिलीं। सरकार फिर बीजेपी की बन गई। 2013 में बीजेपी को 31 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस के खाते में 15 सीटें आईं। सरकार तीसरी बार भी बीजेपी की बनी। साल 2018 में आदिवासी सीटें बीजेपी से छिटककर कांग्रेस के पास आ गईं। बीजेपी को 16 सीटें ही मिल पाईं प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार बन गई। अब बारी फिर चुनाव की है इसलिए सरकार बनाने के लिए आदिवासियों का समर्थन जरूरी है। आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों के साथ ही ये वर्ग प्रदेश की सौ से ज्यादा सीटों पर असर रखता है, जहां पर आदिवासियों की आबादी 50 हजार तक है। ये वोट बैंक चुनाव में निर्णायक साबित होता है। इन सीटों पर बीआरएस ने दावा ठोंक दिया है। बीआरएस वहीं जयस का बदला रूप है जो यहां के राजनीतिक दलों को टेंशन में डाले हुए है। बीआरएस इन सीटों के दम पर किंगमेकर बनने का सपना देख रही है।
प्रदेश के आदिवासी सत्ता के लिए शुभंकर है
इस चुनाव में आदिवासी सीटों को लेकर बीजेपी-कांग्रेस में सबसे ज्यादा कश्मकश है। पिछले बीस सालों का इतिहास बताता है कि जिसके पक्ष में आदिवासी सीटें आती हैं वहीं सत्ता के सिंहासन पर बैठता है। यानी प्रदेश के आदिवासी सत्ता के लिए शुभंकर है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती। इन आदिवासी सीटों के नए नुमाइंदे उभरकर सामने आए हैं जिनका नाम बीआरएस है। इनको लेकर कांग्रेस बहुत टेंशन में है। वहीं आदिवासियों की नाराजगी दूर करने के लिए बीजेपी संगठन और सरकार दोनों जुट गए हैं।