BHOPAL. आज 29 अगस्त यानी राष्ट्रीय खेल दिवस है। आज हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन होता है। लोग उन्हें दद्दा भी कहते हैं। वे इस मुकाम पर कैसे पहुंचे, ये कहानी खुद उनके बेटे अशोक कुमार ने मुझे सुनाई। 1975 में भारतीय हॉकी टीम ने वर्ल्ड कप जीता था, अशोक उस टीम के मेंबर थे। उन्हीं के अहम गोल से हम पाकिस्तान से जीते थे। पढ़ें ध्यानचंद की जिंदगी, खेल के अनछुए पहलु....
तब के इलाहाबाद में पैदा हुए, फिर झांसी आ गए
29 अगस्त 1905 को इलाहाबाद (जो अब प्रयागराज है) में दादा ध्यान सिंह का जन्म हुआ था। उनके पिता आर्मी में थे। कुछ साल बाद पिताजी का ट्रांसफर झांसी हो गया तो परिवार झांसी आ गया। दद्दा 1909-10 में झांसी आ गए दद्दा यहीं सरकारी स्कूल में पढ़े-लिखे। मूल सिंह, दद्दा के बड़े भाई थे, वो भी आर्मी में थे। रूप सिंह (जिनके नाम पर ग्वालियर का कैप्टन रूप सिंह स्टेडियम है), ध्यान जी के छोटे भाई थे। बचपन से ही दद्दा का मन खेल में ज्यादा रमता था। साथ में पढ़ाई भी चलती रही, लेकिन उनके जीवन में खेल का हिस्सा ज्यादा था। दद्दा के झांसी वाले घर के सामने ही एक ग्राउंड था, जिसे 1921 में हीरोज ग्राउंड नाम दिया गया। इसी साल हीरोज क्लब की स्थापना हुई थी।
कोच ने सलाह दी- हॉकी टीम गेम है, पास देकर खेलो
अब दद्दा की जिंदगी में खेल ज्यादा था तो पिताजी ने 16 साल में आर्मी की बच्चा प्लाटून में भर्ती करा दिया। यहां बच्चा प्लाटून में दो साल की पढ़ाई होती थी, खेल भी खिलाए जाते थे। 18 के होने पर आर्मी की किसी बटालियन में पोस्टिंग हो जाती थी। दद्दा उस समय हॉकी के अलावा कुश्ती भी खेलते थे, लेकिन बाद में उन्होंने हॉकी को ही जीवन संगिनी बनाया। झांसी में कंकड़-पत्थर के मैदान में खेले थे और यहीं से उनकी हॉकी में पैनापन आना शुरू हो गया था। आर्मी का नियम था कि शाम को आपको जो खेल पसंद हो, वो खेलना होता था। आज भी ये नियम बना हुआ है। दद्दा ने हॉकी को चुना। उस जमाने में हॉकी, फुटबॉल, कुश्ती का काफी चलन था। लोग इन्हें देखने आते थे। देखने वालों और खेलने वालों दोनों को मजा आता था।
दद्दा ध्यान चंद शुरुआत में ध्यान सिंह ही थे। उन्होंने झांसी के ग्राउंड में जो प्रैक्टिस की थी, वो शाम को खेल के मैदान पर दिखने लगी थी। हालांकि अभी भी मंजे हुए खिलाड़ी नहीं बने थे। जब आर्मी में लोग खेलते थे तो उन पर सूबेदार मेजर यानी एक कॉमन कोच नजर रखते थे। ऐसे ही एक सूबेदार थे बाले तिवारी। एक दिन जब दद्दा ध्यान खेल रहे थे तो बाले साहब ने उन्हें खेलते देखा। दद्दा उस समय ड्रिबलिंग काफी किया करते थे यानी बाकी खिलाड़ियों को छकाकर बॉल अपने पास ही रखते थे। बाले जी दद्दा की कला से प्रभावित हुए। उन्होंने दद्दा को बुलाया। कहा कि तुम अच्छा खेलते हो। तुममें काबिलियत है। लेकिन हॉकी टीम गेम है। इसमें पूरी टीम को लेकर चलना है। बॉल को पास से आगे बढ़ाओ। बाले जी की इस बात को दद्दा ने गांठ बांध ली। ये बात उनके लिए गुरु मंत्र की तरह थी।
दोपहर में अकेले प्रैक्टिस करते थे
बाले जी ने दद्दा की पीठ थपथपा दी तो उनका उत्साह कई गुना बढ़ गया। अब उन्होंने लंच के बाद किसी ऐसे स्थान पर अकेले प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया, जहां उन्हें कोई ना देखे। यहां उन्होंने हर एंगल से हर शॉट्स की जबर्दस्त प्रैक्टिस की और हॉकी में पारंगत हासिल कर ली। और इसी प्रैक्टिस से 16-17 साल के ध्यान सिंह के महान खिलाड़ी बनने की शुरूआत हुई। दोपहर में दद्दा अकेले प्रैक्टिस करना, शाम को टीम के साथ खेलना, इसमें दद्दा का खेल दूसरे खिलाड़ियों कई गुना बेहतर होता चला गया। दद्दा बाद में ब्राह्मण बटालियन में शामिल हुए और 1921 में सिपाही बनाए गए। इंटर बटालियन टूर्नामेंट में दद्दा की टीम चैंपियन रही और ध्यान सिंह आर्मी में स्टार हो गए।
शोहरत न्यूजीलैंड पहुंची, वहां खेलने गए तो कमाल दिखा दिया
1926 में न्यूजीलैंड में भी ब्रिटेन का शासन था। दद्दा के खेल की खबरें न्यूजीलैंड भी पहुंची। न्यूजीलैंड की तरफ से ऑफर आया कि भारतीय आर्मी की टीम उनके आए और हॉकी मैच खेले। भारत में खबर आई। दद्दा के सुपीरियर ने उन्हें बुलाया। दद्दा पहुंचे तो उनसे कहा कि ध्यान सिंह तुम्हारे लिए अच्छी खबर है। तुम्हें न्यूजीलैंड खेलने जाना है। दद्दा ने अपने अफसर के सामने तो शालीनता से बात सुनी, चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। जैसे ही अपनी बैरक में पहुंचे तो जमकर खुशी मनाई। खूब उछले, कूदे। ये दद्दा का पहला इंटरनेशनल दौरा था। शिप से डेढ़ महीने का सफर कर न्यूजीलैंड पहुंचे। मैच शुरू हुए तो भारत की तरफ से इंटरनेशनल में पहला गोल ध्यान सिंह ने किया। न्यूजीलैंड में जितने गोल भारतीय टीम ने किए, उसके आधे यानी करीब 50 गोल दद्दा ने किए। अब ब्रिटेन, न्यूजीलैंड के अखबारों में ही, ओलंपिक एसोसिएशन में भारत टीम की गूंज हो गई। सबसे ज्यादा जिस नाम की चर्चा थी, वो थे दद्दा यानी ध्यान सिंह। भारतीय टीम की हॉकी ने नए पैरामीटर सेट कर दिए। दुनिया में जो हॉकी खेली जाती थी, वो सामान्य खेल था। दद्दा की टीम की हॉकी में हर शॉट्स थे, ड्रिबलिंग थी। एक लय थी, कलात्मकता थी। जो लोगों को चकाचौंध कर देती थी।
भारतीय टीम की हॉकी ने ही लोगों को हॉकी देखना सिखाया
न्यूजीलैंड में अद्भुत प्रदर्शन के बाद ब्रिटिश सरकार ने तय किया कि अगले ओलंपिक यानी 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में ब्रिटेन की टीम की जगह भारत की टीम ओलंपिक में जाएगी। जाहिर है दद्दा इसमें प्रमुख ही थे। पैसे की कमी थी, इसलिए 11 खिलाड़ी ही भेजे गए। किसी तरह पैसे जुटाए गए तब शिप से ही जाना होता था। भारतीय टीम एम्सटर्डम पहुंचती है। लेकिन तब तक भी हॉकी का वो माहौल नहीं बन पाया था। लोग यही समझते थे कि कोई डंडे से खेला जाने वाला खेल है। भारत का पहले मैच में कोई 100-150 दर्शक ही पहुंचे होंगे। लेकिन जब लोगों ने भारतीय टीम का खेल देखा तो दांतो तले उंगली दबा ली। वजह यही थी कि जो खेल भारतीय टीम ने दिखाया था, वैसी हॉकी तो उस समय तक होती नहीं थी। सामान्य पास वाली हॉकी खेली जाती थी। भारत के खेल में ड्रिबलिंग, सधे हुए पास, बॉल को अपने पास रखने की टेक्नीक, हर एंगल से शॉट मारने की तकनीक थी। हॉकी को भारत ने स्टार खेल बना दिया था। भारत के पहले मैच के बाद अब हॉकी देखने हजारों लोग पहुंचने लगे। भारत ने किसी टीम को 10 तो किसी टीम को 12 गोल मारे। अखबारों ने भारतीय टीम और ध्यानचंद के बारे में लिखना शुरू किया। अखबारों ने लिखा कि ऐसा लगता है कि ध्यानचंद की हॉकी में चुंबक लगा रहता है, बॉल उनकी स्टिक से छूटती ही नहीं है।
बुखार के बावजूद खेले एम्सटर्डम ओलंपिक का फाइनल
भारत अपने चमत्कारिक प्रदर्शन से फाइनल में पहुंच गया। मुकाबला हॉलैंड से था। अब हुआ ये कि फाइनल से पहले दद्दा को तेज बुखार आ गया। दद्दा ने अपनी किताब गोल में इसका जिक्र भी किया है। बुखार 99-100 डिग्री नहीं बल्कि 102 डिग्री था। टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता शाम को दद्दा के पास गए। उन्होंने कहा कि ध्यान तुम तो खेल नहीं पाओगे। दद्दा ने बस इतना कहा कि मैं फौजी हूं, मुझे इन सब मुश्किलों से निकलना आता है। आप फिक्र न करें। मैं कल का मैच खेलूंगा। दद्दा ने फाइनल में दो गोल किए। एक गोल किसी और खिलाड़ी ने किया। पहले ओलंपिक में भारत ने हॉलैंड की टीम को 3-0 से हराकर गोल्ड पर कब्जा कर लिया। ये गोल्ड इसलिए बड़ा है, क्योंकि भारत एशिया में पहला स्वर्ण लेकर आया था। दद्दा अब पोस्टर बॉय बन चुके थे।
रात में भी खेलने लगे थे
एम्सटर्डम ओलंपिक के बाद भारतीय टीम वापस आ जाती है। जोरदार स्वागत होता है। अब तक ध्यान सिंह स्टार बन चुके थे। उनकी चर्चाएं होने लगी थीं। ये वो दौर था, जब टूर्नामेंट नहीं हुआ करते थे। यानी भारतीय हॉकी टीम को 4 साल तक खुद ही प्रैक्टिस करनी थी। वो टेम्परामेंट बनाए रखना था। दद्दा ध्यान की सेना की नौकरी थी। ऐसा नहीं था कि ओलंपिक जीत लिया था तो खेलने के लिए सहूलियतें-रियायतें मिलेंगी। कतई नहीं। नियम वही था। दिन में ड्यूटी कीजिए, शाम को खेलिए। अब दद्दा ने नया नियम बना लिया था। वे रात में भी खेलने जाने लगे थे।
1932 के ओलंपिक में पैसे उधार लेकर टीम भेजी गई
1932 का लॉस एंजिल्स ओलंपिक आ गया। इस ओलंपिक का यूरोपीय देशों ने बहिष्कार किया था। भारत की टीम को भेजना जरूरी था, ताकि हमारी हॉकी बने रहे। यदि भारतीय टीम नहीं जाती तो ओलंपिक से हॉकी को निकाल दिया जाता। अमेरिका जाना था तो खासे पैसे की जरूरत थी। पंजाब नेशनल बैंक से संपर्क किया, उनसे पैसे उधार लिए। इस ओलंपिक में सिर्फ तीन देश थे- जापान, अमेरिका, भारत। जापान को 10 गोल से हराया तो अमेरिका को 24 गोल से। लॉस एंजिल्स में भी ध्यान के पोस्टर लगे। इस ओलंपिक में ध्यान के छोटे भाई रूप सिंह भी खेले थे। अमेरिका के खिलाफ रूप ने 11 तो दद्दा ध्यान ने 8 गोल मारे। जापान के खिलाफ भी रूप ने दद्दा से ज्यादा गोल मारे। अमेरिका को हराकर भारतीय टीम भारत लौटी तो ध्यान सिंह-रूप सिंह चर्चा में थे।
32 के ओलंपिक के बाद भारतीय हॉकी फेडरेशन मजबूत हुआ। बेटन कप, औबेदुल्ला कप शुरू हुए। झांसी हीरोज क्लब भी जबर्दस्त हो चुका था। दद्दा और रूप जी भी यहां से खेले, कई मैच जिताए। 1935 में एक बार फिर न्यूजीलैंड की तरफ से बुलावा आया। फिर से ध्यान सिंह की टीम न्यूजीलैंड गई। 1926 में पहली बार भारतीय टीम न्यूजीलैंड गई थी। न्यूजीलैंड आज तक जो हॉकी खेल रहा है, वो दद्दा की सीख की बदौलत है। 35 में न्यूजीलैंड की ट्राइब माओरी ने दद्दा को खूब सम्मान दिया। न्यूजीलैंड ने दद्दा के सम्मान में टूर्नामेंट भी शुरू किया था।
1936 का बर्लिन ओलंपिक
भारतीय टीम को जर्मनी यानी नाजियों के देश, हिटलर के देश में खेलने जाना था। एक बार फिर पैसे की कमी थी। फिर वही समस्या थी कि वहां खेलने कैसे जाएंगे। हॉकी फेडरेशन से गांधीजी से मदद लेने का सोचा। गांधीजी ने कहा कि ये हॉकी क्या होती है? दरअसल, गांधीजी तो सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन के लिए बने थे। उनके दिमाग में कुछ और था ही नहीं। खैर, उस समय पूरा देश एक हो गया। दो बार ओलंपिक चैंपियन रही भारतीय टीम के लिए फिर से ओलंपिक में भेजने के लिए जिससे जो बन पड़ा, दिया। भारतीय टीम शिप से पहले लंदन के लिए रवाना हुई। यहां से प्लेन से बर्लिन जाना था। यात्रा लंबी थी। प्लेयर शिप पर ही प्रैक्टिस करते थे, ताकि खेल कमजोर न हो। शिप से महाराजा बड़ौदा भी यात्रा कर रहे थे। उन्होंने टीम को देखा तो कहा कि खाने-पीने की व्यवस्था मेरी तरफ से रहेगी।
ब्रिटेन से टीम प्लेन से बर्लिन गई। पहले दो ओलंपिक में ध्यान सिंह नाम से खेलने वाले दद्दा अब ध्यानचंद हो चुके थे। बर्लिन पहुंचते ही भारत को जर्मनी से फ्रैंडशिप मैच खेलना था। भारतीय टीम थकी थी, आराम करने का मौका भी नहीं दिया। इस मैच में गड़बड़ हो गई। भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई। दद्दा ने कहा कि राइट साइड नहीं चल रहा है। इसके लिए लाहौर से दारा साहब को बुलाना होगा। यहां मैच चल रहे थे। आनन-फानन में दारा सीधे प्लेन से जर्मनी पहुंचे। इस ओलंपिक में भारत और जर्मनी ही तगड़ी मानी जा रही थीं। जैसे कयास थे, दोनों टीमें फाइनल में पहुंच गईं। फाइनल 14 अगस्त को था। 13 की शाम को काफी बारिश हो गई थी। 14 को ग्राउंड ज्यादा गीला होने के चलते मैच 15 अगस्त को होना तय हुआ। शाम को भारतीय टीम ने तिरंगे के सामने कसम खाई कि जर्मनी से जीतकर आएंगे या मरकर।
नंगे पैर खेले ध्यानचंद और उनके छोटे भाई, हिटलर का ऑफर नकारा
जर्मन तानाशाह अडोल्फ हिटलर भी फाइनल देखने पहुंचा। ग्राउंड गीला ही था। फर्स्ट हाफ में भारतीय टीम 1 गोल ही कर सकी। हाफ टाइम में ध्यान और रूप ने कोच से कहा कि ग्राउंड में फिसलन है, हम लोग नंगे पैर ही खेलेंगे। कोच ने परमिशन दे दी। उधर, हिटलर सोच रहा था कि एक ही गोल है, टीम तो हमारी ही जीतेगी। दूसरे हाफ का खेल शुरू हुआ तो सबकुछ बदल गया। भारतीय टीम ने 35 मिनट में 7 गोल मारे यानी कमोबेश हर पांच मिनट में एक गोल। 5 गोल के बाद हिटलर उठकर चला गया। भारतीय टीम ने लगातार तीसरी बार गोल्ड जीत लिया। जब पूरी टीम जश्न मना रही थी, ध्यानचंद ओलंपिक विलेज में लगे यूनियन जैक को निहारकर रो रहे थे। सोच रहे थे कि काश ये भारतीय तिरंगा होता। इस बीच हिटलर ने ध्यानचंद को बुलावा भेजा। ध्यान पहुंचे तो कहा कि यंग मैन, भारत में किस पोस्ट पर हो। ध्यान बोले- लांस नायक। हिटलर बोला- मेरे यहां आ जाओ, जनरल बना दूंगा। मेरे देश से खेलो। दद्दा ने विनम्रता से मना कर दिया।
एक खिलाड़ी जिसने ध्यानचंद की निशानी को सीने से लगाकर रखा
1998 में नीदरलैंड्स के उत्रेख्त में वर्ल्ड कप हुआ था। भारतीय टीम बाहर हो चुकी थी। अशोक कुमार फाइनल देखने गए। अशोक जी के बगल में एक बुजुर्ग आकर बैठे। अशोक जी ने देखा कि बुजुर्ग सूटेड-बूटेड हैं, पर टाई थोड़ी मिसमैच थी। टाई इंडियन भी लग रही थी। अशोक जी से रहा नहीं गया। उन्होंने बुजुर्ग से टाई का राज पूछा। वो बोले- यंग मैन, ये टाई इंडियन है। ये एक महान प्लेयर ने मुझे दी है। 1928 में हॉकी के लेजेंड ध्यानचंद ने मेरी टीम यानी हॉलैंड को हराया था। उन्होंने मुझे टाई दी थी। अशोक जी ने बताया कि वे ध्यानचंद के बेटे हैं। यानी उन बुजुर्ग ने 70 साल से ध्यानचंद की टाई संभाल कर रखी थी।