बीजेपी की ऐतिहासिक जीत का विश्लेषण, इतनी बड़ी जीत के सबसे बड़े कारण क्या हैं? कौन सी स्ट्रेटजी रही सबसे कारगर?

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Chandresh Sharma
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बीजेपी की ऐतिहासिक जीत का विश्लेषण, इतनी बड़ी जीत के सबसे बड़े कारण क्या हैं? कौन सी स्ट्रेटजी रही सबसे कारगर?

BHOPAL. मध्यप्रदेश में बीजेपी ने सीटों के मामले में अपने 2013 के परफॉर्मेंस को रिपीट ही नहीं किया है बल्कि 48 फीसदी वोट शेयर के साथ ऐतिहासिक जीत दर्ज कर ली है। ऐसे में कहा जा रहा है कि यह पीएम मोदी और सीएम शिवराज की लहर नहीं आंधी का सबब है। जिसे कांग्रेस तो क्या बड़े-बड़े राजनैतिक पंडित भी नहीं भांप पाए। बीजेपी नेता और कार्यकर्ता चुनाव से पहले ऐसी जीत का दावा करते तो यह उनका बड़बोलापन माना जा रहा था। चुनाव के परिणाम आ गए हैं और इसके साथ ही कई सारे सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। क्या शिवराज ही एमपी के सरताज होंगे? लहर इतनी प्रचंड थी तो सरकार के 12 मंत्री क्यों हारे? ऐसे कई सवालों के जवाब पढ़िए इस रिपोर्ट में....

बीजेपी की प्रचंड जीत के कारण

चुनावी शोरगुल में यह बात दब गई थी कि राममंदिर के निर्माण और धारा 370 हटने के बाद ये पहले बड़े चुनाव थे। नगरीय निकाय चुनाव काफी स्थानीय होते हैं, उस दौरान यह मुद्दे भले ही गौड़ हो गए थे, लेकिन इन चुनावों में वे बली होते दिखे। वहीं सीएम शिवराज की लाड़ली बहना योजना जिसे शुरुआत से ही गेमचेंजर माना जा रहा था, वह कसौटी पर खरी उतरी। साथ ही बीजेपी की सांसदों को चुनाव मैदान में उतारने और आचार संहिता के भी पहले प्रत्याशियों की घोषणा वाली स्ट्रेटजी काम कर गई।

मोदी फिर चुनौतियों के आगे खरे उतरे

डबल इंजन की सरकार का मूल मंत्र और बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव मैदान में उतरने की स्ट्रेटजी ने भी असर दिखाया। चुनावी सभाओं में पीएम मोदी ने जो खुद की गारंटी दी, उस पर लोगों ने यकीन किया। कांग्रेस की गारंटियों पर लोगों ने यकीन नहीं किया।

बीजेपी ने रणनीति में किया बदलाव

बीजेपी ऐसी पार्टी है जो रणनीति विफल होते देख उसे बदलने में देर नहीं करती। गुजरात फॉर्मूले ने जब 3 राज्यों में सरकारें बना दी थीं। उस दौरान मात्र कर्नाटक में हार मिलते ही रणनीति को बदल दिया गया। बड़े चेहरों को चुनाव मैदान में उतारने की रणनीति को इंट्रोड्यूज किया गया। तीनों राज्यों में उसे लागू भी किया और तीनों के तीनों राज्य जीत लिए।

सर्वे को आधार बनाकर लिए फैसले

पार्टी ने अपने सर्वे को ही तवज्जो दी। जहां चेहरा बदलने की जरूरत थी वहां चेहरे बदले, लेकिन जहां पार्टी पिछला चुनाव हारी थी ऐसी कई सीटों पर पुराने चेहरों को भी रिपीट किया। जो भरोसे पर खरे भी उतरे।

मुश्किल सीटों को बनाया हाईप्रोफाइल

बीजेपी ने दशकों से मुश्किल बनी हुई सीटों पर ज्यादा फोकस किया। ऐसी सीटों पर बड़े नाम उतारकर उन सीटों को हाईप्रोफाइल बना दिया। तोमर, विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल, कुलस्ते समेत कई सांसदों को भी मुश्किल टास्क दिए गए।

कौन बनेगा मुख्यमंत्री?

माना जा रहा है कि इतनी बड़ी जीत और दिग्गजों के जमावड़े के बीच भी सीएम पद के लिए शिवराज सिंह चौहान ही मजबूत दावेदार होंगे। 5 माह बाद आम चुनाव हैं ऐसे में पार्टी जनता के बीच मकबूल इतने बड़े जननायक को हटाने जैसे फैसले का का रिस्क बीजेपी नहीं उठाएगी। हालांकि बीजेपी हमेशा चौंकाने वाली पार्टी रही है, इसलिए चुनाव जीते बड़े चेहरे भी आस लगाए बैठे हैं।

 प्रचंड बहुमत के बावजूद 12 मंत्री हार क्यों गए?

इस बार शिवराज सरकार के 33 में से 31 मंत्री मैदान में उतरे। इनमें से 12 मंत्री हार गए हैं। यानी करीब 39 फीसदी को जनता ने नकार दिया। इनकी हार में खुद की छवि और लोकल फैक्टर ज्यादा प्रभावी रहे हैं। गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा कांग्रेस की घेराबंदी में ऐसे उलझे कि बाहर ही नहीं निकल पाए। पहले यहां भाजपा से कांग्रेस में आए अवधेश नायक को टिकट दिया, फिर उनसे वापस लेकर राजेंद्र भारती को उतारा। दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और ऐसी घेराबंदी कि नरोत्तम को हार का सामना करना पड़ा। 2018 में 27 मंत्री चुनाव में उतरे थे, जिनमें से 13 हार गए थे, यानी 48% को लोगों ने पसंद नहीं किया।

लोकसभा चुनाव की क्या तस्वीर दिखती है?

2018 के चुनाव में कांग्रेस ने 114 और भाजपा ने 109 सीटें जीती थीं, लेकिन ओवरऑल वोट शेयर भाजपा का ज्यादा था। 2019 के लोकसभा चुनाव में 29 में से 28 सीटें भाजपा ने जीतीं। सिर्फ छिंदवाड़ा को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस को सफलता नहीं मिली। 2018 के चुनाव में छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र में आने वाली सभी 7 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस जीती थी। इस बार भी ऐसी ही स्थिति रही है। यदि लोकसभा में विधानसभा जैसा ही ट्रेंड रहा, तो 2019 जैसी ही तस्वीर रहेगी।

क्या सरकार को लेकर एंटी इनकम्बेंसी नहीं थी?
बिल्कुल नहीं। भाजपा के जो मंत्री या विधायक रहे हैं, उसकी वजह खुद के प्रति नाराजगी रही है। 99 विधायकों को पार्टी ने मैदान में उतारा था, जिनमें 72 जीते। यानी 73 फीसदी विधायकों पर जनता ने भरोसा जताया है। मंत्रियों के मामले में यह भरोसा 61 फीसदी रहा। माना जा सकता है लोगों ने अपना गुस्सा 28 फीसदी विधायकों पर निकाल दिया है।


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