मनीष गोधा, JAIPUR. देश में दल-बदल कानून इसलिए बनाया गया था कि विधायकों की खरीद-फरोख्त ना हो सके और जनता जिस दल की विचारधारा से प्रभावित हो कर जनप्रतिनिधि को चुन कर भेजती है, वह उसी दल में बना रहे ताकि जनादेश का सम्मान हो सके, लेकिन राजस्थान में लगातार दूसरी बार दल-बदल करने वाले विधायक पांच साल तक सदन के सदस्य बने रहे। ना उनकी सदस्यता गई और ना ही उन पर कार्रवाई हुई, उलटे इस बार तो दल-बदल करने वाले चार विधायकों को पार्टी ने टिकट भी दे दिया। अब फिर राजस्थान में नई सरकार बनने जा रही है और एक्जिट पोल के परिणाम तथा जमीनी स्तर से आ रहा फीडबैक बता रहा है कि इस बार भी सरकार बचाए रखने के लिए दल-बदल जैसी स्थितियां बनने की पूरी आशंका है। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि यह संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन हो रहा है।
बीएसपी विधायकों को कराया कांग्रेस में शामिल
राजस्थान में पिछले पांच चुनाव में दो बार ऐसे मौके आए जब बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुन कर आए विधायक कांग्रेस में शामिल कर लिए गए और इन विधायकों पर दोनों बार ही कोई कार्रवाई नहीं हुई बल्कि दल-बदल करने के बदले में इन्हें सरकार मे अच्छे पद और सुविधाएं मिलीं।
पहली बार हुआ 2008 में बनी सरकार में
राजस्थान में ऐसा पहली बार 2008 में बनी कांग्रेस सरकार के समय हुआ। उस समय कांग्रेस के 96 विधायक जीते थे और बसपा के छह विधायक जीते थे। सरकार बनाने के लिए पहले तो इन छह विधायकों सहित कुछ निर्दलियों का समर्थन लिया गया और करीब एक-डेढ साल बाद इन छह विधायकों ने बसपा का साथ छोड कर कांग्रेस का दामन पकड लिया। इन छह में से चार मंत्री और संसदीय सचिवों के पद दिए गए। उस समय दल-बदल के विरोध में तत्कालीन स्पीकर दीपेन्द्र सिंह शेखावत के समक्ष याचिका लगाई गई। याचिका पर सुनवाई चलती रही और सरकार के कार्यकाल के अंतिम समय में स्पीकर ने याचिका को मेंटेनेबल नहीं मानते हुए खारिज कर दिया। बाद मे इन छह विधायको को कांग्रेस के ही टिक्ट दे दिए गए, हालाकि इनमें से एक भी जीत कर वापस नहीं आ पाया।
इस बार तो फैसला ही नहीं आया
इस बार 2018 में जब फिर कांग्रेस की सरकार बनी तो पार्टी के पास अपने 100 विधायक थे और एक आरएलडी विधायक के साथ गठबंधन था, इसलिए सरकार तो बन गई, लेकिन इस मजबूती देने के लिए लगभग साल भर बाद ही एक बार फिर बसपा के टिकट पर जीत कर आए छह विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर लिया गया। इस बार इस दल-बदल के खिलाफ स्पीकर के अलावा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाएं दायर हुई, लेकिन कहीं से कोई फैसला नहीं आया। हाईकोर्ट ने अगस्त 2020 में स्पीकर सीपी जोशी से यह अपेक्षा की थी तीन माह में इसका निर्णय करें, लेकिन स्पीकर ने अब तक इस पर कोई फैसला नहीं किया है। वहीं कोर्ट मंे भी मामले लम्बित हैं। इस बार भी इन विधायको को मंत्री पद और राजनीतिक नियुक्तियां मिली और छह में से चार को पार्टी का टिकट भी मिल गया।
याचिका दायर करने वाले भाजपा विधायक मदन दिलावर से जब हमने बात की तो उन्होंने कहा कि स्पीकर की ओर से हमारी याचिका पर कोई फैसला नहीं किया जाना दल-बदल को प्रोत्साहन देने वाला कदम है। इन याचिकाओं पर आगे कार्रवाई के लिए विधि विशेषज्ञों से राय लेंगे। उधर विधि विशेषज्ञ और इस मामले में जनहित याचिका लगाने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता हेमंत नाहटा का कहना है कि यह एक तरह से संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है और जनादेश को उलट दिए जाने जैसा मामला है। ऐसे मामलों मंें यदि तार्किक निर्णय नहीं होगा तो ऐसे मामले में फिर सामने आते रहेंगे।
पायलट के साथ गए 19 विधायकों का मामला भी
बसपा के छह विधायकों का ही नहीं बल्कि कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के साथ मानेसर गए 19 विधायकों की सदस्यता से जुडी याचिका भी सारहीन हो जाएगी। यह याचिका जुलाई 2020 में सरकार पर आए संकट के समय सरकारी मुुख्य सचेतक महेश जोशी की ओर से लगाइ गई थी, हालांकि बाद में मामला आपस में सुलट गया, इसलिए याचिका पर ना पार्टी की ओर से कोई दबाव बनाया गया और ना ही स्पीकर ने कुछ किया।
इस बार फिर वही आशंका
इस बार के चुनाव में एक्जिट पोल के परिणाम और जमीनी स्तर से मिल रहा फीडबैक बता रहा है कि दोनों दलों के बीच कांटे की टक्कर है और यदि सबसे बडे दल को बहुमत नहीं मिलता है तो उसे फिर से दल-बदल जैसे हथकंडे अपनाने पडेंगे और चूंकि पिछले दो मामलों में कुछ नही हुआ, ऐसे मंे दल-बदल कानून के तहत सदस्यता जाने का डर विधायकों के दिमाग से निकल गया है। ऐसे में अब कोई इससे हिचकेगा भी नहीं।
दोनों दलों ने शुरू की तैयारी
एक्जिट पोल के परिणामो को देखते हुए अब दोनों ही दलो ने निर्दलियों और दूसरे दलों के मजबूत दिख रहे प्रत्याशियो से सम्पर्क साधने शुरू कर दिए हैं। इन दलों ने भी अपनी रणनीतियां बनानी शुरू कर दी हैं। बताया जा रहा है कि इस बार बसपा बाहर से समर्थन देने के बजाए सरकार में शामिल होने की शर्त रख सकती है, वहीं माकपा और भारतीय आदिवासी पार्टी चुनाव परिणाम आने के बाद ही कोई निर्णय करेंगे, हालांकि माकपा चूंकि कांग्रेस और भाजपा दोनों से दूरी रखती है, इसलिए इसके सरकार में शामिल होने की सम्भावना नहीं है। आरएलपी भी नतीजे आने के बाद ही निर्णय करेगी, हालांकि आरएलपी के संयोजक हनुमान बेनीवाल का दावा है कि उनके विधायक बडी संख्या में जीत कर आएंगे और सरकार की चाबी उनके हाथ में रहेगी।