मनीष गोधा, JAIPUR. राजस्थान में पिछले 3 चुनाव बाद ये पहला मौका है जब भारतीय जनता पार्टी से कोई बड़ा नेता अलग होकर पार्टी के लिए चुनौती नहीं बन रहा है, हालांकि इस बार जैसे हालात बने हैं, उसे देखते हुए बगावत और भितरघात की चुनौती ज्यादा गंभीर दिख रही है। राजस्थान में 2008, 2013 और 2018 तीनों विधानसभा चुनाव ऐसे रहे जब चुनाव से पहले बीजेपी से जुड़ा कोई बड़ा चेहरा पार्टी छोड़कर चला गया या उसे पार्टी से रवाना कर दिया गया और चुनाव में इसके चलते पार्टी को कुछ मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। इस बार अभी तक कोई बड़ा चेहरा पार्टी से अलग नहीं हुआ है, लेकिन पार्टी का बड़ा चेहरा पूर्व सीएम वसुंधरा राजे मौजूदा स्थितियों में सहज नहीं दिख रही हैं और पहली सूची के बाद जिस तरह का विरोध प्रदर्शन सामने आया है, उसे देखते हुए इस बार पार्टी के समक्ष चुनौती ज्यादा बड़ी दिख रही है।
2008 में किरोड़ी हुए अलग
पिछले 3 चुनाव की बात करें तो 2008 के चुनाव से पहले पार्टी के बड़े नेता किरोड़ी लाल मीणा बीजेपी से अलग हो गए थे। वे तत्कालीन बीजेपी सरकार में मंत्री थे, लेकिन गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान इस्तीफा दे दिया और फिर उनकी तत्कालीन सीएम वसुंधरा राजे से दूरियां इतनी बढ़ी कि वे पार्टी से अलग हो गए। इस चुनाव में उन्होंने स्वयं निर्दलीय चुनाव लड़ा और अपनी पत्नी गोलमा देवी को भी निर्दलीय चुनाव लड़वा दिया। दोनों अपनी सीटों से चुनाव जीत गए। इसके साथ ही उन्होंने पूर्वी राजस्थान की कई सीटों पर परिणाम प्रभावित भी किया। तब पार्टी को 78 सीटें मिली थी और ये माना गया था कि किरोड़ी पार्टी में बने रहते बीजेपी बहुमत के आंकड़े आसपास पहुंच सकती थी। परिणाम के बाद गोलमा देवी को उन्होंने कांग्रेस सरकार में मंत्री बनवा दिया और खुद निर्दलीय चुनाव लड़कर सांसद बन गए।
2013 में हनुमान बेनीवाल अलग हुए
इसके बाद 2013 के चुनाव से पहले हनुमान बेनीवाल को पार्टी से निकाला गया। तत्कालीन प्रदेश नेतृत्व विशेषकर वसुंधरा राजे के खिलाफ बयानबाजी के चलते वे पार्टी से बाहर हुए और निर्दलीय चुनाव लड़ा। हालांकि इस चुनाव में मोदी लहर इतनी जबर्दस्त थी कि बीजेपी 163 सीटें जीत गई। इसी चुनाव से पहले किरोड़ी लाल मीणा ने पीए संगमा की पार्टी नेशनल पीपुल्स पार्टी का दामन थाम लिया और 134 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए। इनमें से 4 पर जीत भी हासिल की और 11 सीटों पर दूसरे स्थान पर रहे। उन्हें इस चुनाव में मोदी लहर के बावजूद 4.35 प्रतिशत वोट मिल गए।
2018 चुनाव में घनश्याम तिवाड़ी अलग हुए
वहीं पिछले चुनाव यानी 2018 की बात करें तो चुनाव से पहले किरोड़ी लाल मीणा हालांकि पार्टी में लौट आए, लेकिन पार्टी के दिग्गज ब्राह्मण नेता माने जाने वाले घनश्याम तिवाड़ी पार्टी से अलग हो गए और अपनी अलग भातर वाहिनी पार्टी बना ली। उनकी अदावत भी वसुंधरा राजे से ही हुई थी। हालांकि उनका दल असर छोड़ने में कामयाब नहीं रहा और वे खुद अपनी परंपरागत सीट सांगानेर से बहुत बुरी तरह से हार गए। इस चुनाव में हनुमान बेनीवाल ने अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी लॉन्च कर दी और 3 सीटों पर चुनाव जीत गए। चुनाव के बाद वे एनडीए का हिस्सा बन गए और लोकसभा चुनाव में नागौर सीट पार्टी ने गठबंधन के तहत उन्हें दे दी, जिस पर वे जीत भी गए। बाद में कृषि बिलों के विरोध के चलते वे एनडीए से भी अलग हो गए और पिछले 5 साल में हुए उप-चुनावों में उनके प्रत्याशियों के कारण 3 जगह बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ा। अब तो बेनीवाल की कांग्रेस के साथ गठबंधन की चर्चा चल रही है।
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इस बार खुद वसुंधरा नहीं दिख रही सहज
पिछले 3 चुनाव में पाटी में एकछत्र राज करने वाली वसुंधरा राजे इस चुनाव में खुद सहज नहीं दिख रही है। उन्हें पार्टी ने प्रमुख चेहरों में शामिल तो कर रखा है और वे कोर कमेटी में भी शामिल हैं, लेकिन उन्हें इस बार वैसा महत्व नहीं मिल रहा है, जैसा पिछले चुनाव में मिलता रहा है। पार्टी के 41 प्रत्याशियों की पहली सूची में उनकी सरकार में मंत्री रहे और उनके सिपहसालारों में माने जाने वाले राजपाल सिंह शेखावत, अनिता सिंह गुर्जर, विकास चौधरी आदि के टिकिट काट दिए गए और अब जिस तरह का विरोध प्रदर्शन सामने आ रहा है, वो ये बता रहा है कि इस बार चुनौती पहले से ज्यादा गम्भीर है। हालांकि पार्टी के नेता लगातार यही कह रहे हैं कि ये विरोध तात्कालिक है और कुछ समय में सब सामान्य हो जाएगा, लेकिन पार्टी सूत्रों का कहना है कि वसुंधरा समर्थकों के टिकिट कटते रहे तो पार्टी में बगावत और भितरघात की चुनौती पहले से कहीं ज्यादा बड़ी होगी।