वल्लभ भवन में कौन बैठेगा, तय करेगा राजभवन, बहुमत के फेर में फंसी सरकार तो राज्यपाल के हाथ में होगी पतवार

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Rahul Garhwal
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वल्लभ भवन में कौन बैठेगा, तय करेगा राजभवन, बहुमत के फेर में फंसी सरकार तो राज्यपाल के हाथ में होगी पतवार

अरुण तिवारी, BHOPAL. नई सरकार के गठन को लेकर राजभवन में भी तैयारियां शुरू हो गई हैं। हम राजभवन का यहां जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस बार सरकार बनाने में राज्यपाल की अहम भूमिका रहने वाली है। प्रदेश में जिस तरह का चुनावी संघर्ष हुआ है उससे ये साफ है कि मुकाबला बेहद करीबी रहने वाला है। यदि किसी भी दल को बहुमत का जादुई नंबर नहीं मिला तो सरकार बनवाने का पूरा दारोमदार राज्यपाल पर रहेगा। यही कारण है कि राज्यपाल की भूमिका पर इस बार सबकी नजरें टिकी हुई हैं। आइए आपको दिखाते हैं कि बीजेपी-कांग्रेस में से किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने पर क्या हो सकती है स्थिति। पड़ताल करती ये खबर।

स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने पर पेचीदा होंगे हालात

यदि मध्यप्रदेश में हंग असेंबली बनती है यानी किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो राजनीतिक हालत बेहद पेचीदा हो सकते हैं। बीजेपी या कांग्रेस में से किसी को बहुमत की 116 विधानसभा सीट नहीं मिलीं तो फिर राज्यपाल की भूमिका अहम हो जाती है। जानकार कहते हैं कि बहुमत न मिलने की स्थिति में सरकार बनाने का मौका किसे देना इसका कोई बहुत स्पष्ट नियम नहीं है। ये राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करता है और राज्यपाल ये फैसला देश, काल, परिस्थिति के आधार पर करते हैं। यदि बीजेपी-कांग्रेस दोनों बहुमत के आस-पास रहती हैं तो स्थितियां क्या हो सकती हैं। मध्यप्रदेश में 230 विधानसभा सीटें हैं और स्पष्ट बहुमत के लिए 116 सीट जरूरी हैं।

क्या कहते हैं नियम कायदे

जरूरी नहीं सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता मिले

यदि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के नाते बहुमत के पास रहती है और बीजेपी राज्यपाल को सरकार बनाने के लिए जरूरी विधायकों के समर्थन का दावा करती है तो राज्यपाल बीजेपी को सरकार बनाने का मौका दे सकते हैं। बहुमत के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त रोकने के लिए इस तरह का कदम उठाया जाता है।

यदि दोनों दल करें बहुमत का दावा

यदि बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियां राज्यपाल के सामने बहुमत का पत्र दें तो राज्यपाल उन विधायकों को राजभवन बुलाते हैं जिन्होंने सरकार के समर्थन के लिए अपनी सहमति दी है। ये अन्य पार्टियों के या निर्दलीय विधायक हो सकते हैं। समर्थन देने वाले अन्य विधायकों से राज्यपाल पूछते हैं कि वे किस दल को समर्थन देना चाहते हैं। इसी आधार पर सरकार बनाने का मौका दिया जाएगा।

राजभवन में नहीं विधानसभा में होगा बहुमत का फैसला

जानकारों के अनुसार अब राजभवन में परेड से नहीं बल्कि विधानसभा में बहुमत का फैसला होगा। समर्थन देने वाले विधायकों से बात कर राज्यपाल सरकार बनाने का मौका देंगे। जिस पार्टी को मौका दिया जाएगा उसे निश्चित समय के अंदर विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना पड़ेगा। वो सरकार रहेगी या गिर जाएगी इसका फैसला बहुमत साबित करने के आधार पर होगा।

राज्यपाल की भूमिका पर उठते रहे हैं सवाल

कई राज्यों में सरकार के गठन को लेकर राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं। जानकार कहते हैं कि राज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में राज्यों में तैनात किए जाते हैं, इसलिए उनका झुकाव किसी खास विचारधारा के दल के प्रति रहता है। उनके फैसलों में पक्षपात नजर आने लगता है। आइए आपको कुछ ऐसे मामले बताते हैं जो देशभर में चर्चित हैं और जिनमें राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठे थे।

बोम्मई मामला

कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एसआर बोम्मई 13 अगस्त, 1988 और 21 अप्रैल 1989 के बीच कर्नाटक में जनता दल सरकार के मुख्यमंत्री थे। संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत 21 अप्रैल, 1989 को उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई। उस दौरान राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। बर्खास्तगी इस आधार पर की गई थी कि उस समय के कई पार्टी नेताओं द्वारा किए गए बड़े पैमाने पर दलबदल के बाद बोम्मई सरकार ने बहुमत खो दिया था। बोम्मई ने बहुमत का प्रस्ताव राज्यपाल को दिया और विधानसभा में बहुमत परीक्षण की मांग की, लेकिन राज्यपाल ने ये मांग खारिज कर दी। बोम्मई कोर्ट चले गए। सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐति‍हासिक फैसला सुनाया जो आज भी विधानसभा में बहुमत परीक्षण के नाम पर नजीर बनकर सामने आया। उनका यही मामला एसआर बोम्मई केस के तौर पर काफी चर्चित हुआ। ये फैसला एक रेफरेंस के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। कोर्ट ने फैसले में स्पष्ट किया कि विधानसभा एकमात्र ऐसा मंच है जहां सरकार के बहुमत का परीक्षण करना चाहिए, न कि राज्यपाल की व्यक्तिपरक राय यहां चलनी चाहिए जिसे अक्सर केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में जाना जाता है।

महाराष्ट्र का महाविवाद

यहां भी राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठे। साल 2019 में महाराष्ट्र के चुनावों में किसी भी दल का बहुमत नहीं आया और राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। जब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने गठबंधन कर सरकार बनाने की तैयारी की तो अचानक राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन खत्म कर आधी रात के बाद देवेंद्र फणनवीस को सीएम पद की शपथ दिला दी। उनके पास बहुमत नहीं था और फिर महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने गठबंधन की सरकार बनी।

कर्नाटक का नाटक

2019 में कर्नाटक में भी कुछ इसी तरह का नाटक हुआ। यहां पर कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन की सरकार अचानक गिर गई। कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे के बाद 23 महीने चली ये सरकार गिर गई। स्पीकर रमेश कुमार ने विधायकों को खड़ाकर सत्ता और विपक्ष के नंबरों की गिनती की। स्पीकर ने विधानसभा में हर पंक्ति को अलग-अलग खड़ा कर अधिकारियों से विधायकों की गिनती कराई। अधिकारियों ने पहले सत्ता पक्ष के सदस्यों की गिनती की और फिर उसके बाद विपक्षी विधायकों को गिना गया। संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि जब सदन में विधायकों की गिनती फिजिकली की गई है।

गोवा में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस, सरकार बीजेपी की

गोवा में 4 फरवरी 2017 को चुनाव नतीजे आये थे। नतीजों के मुताबिक 40 सीटों वाली गोवा विधान सभा में कांग्रेस को 17 सीटें मिलीं जबकि बीजेपी को 13 सीटें मिलीं। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन फिर भी सत्ता दूसरे नंबर की पार्टी यानी बीजेपी के पास गई। गोवा विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए 21 विधायकों का समर्थन चाहिए था। कांग्रेस के पास अपने 17 विधायक थे। इसके अलावा कांग्रेस समर्थित एक निर्दलीय विधायक भी जीत गया था। 4 अन्य विधायकों का समर्थन भी कांग्रेस को मिल रहा था। इस तरह से कांग्रेस के पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त विधायक थे। कांग्रेस राज्यपाल के पास सरकार बनाने का दावा पेश करने को तैयार थी। वहीं बीजेपी ने मौके पर चौका मारा। 3-3 सीटें जीतने वाली महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी और गोवा फॉर्वड इस शर्त पर बीजेपी सरकार को समर्थन देने को तैयार हो गईं कि मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री बनाया जाए। इसके बाद 3 निर्दलीय विधायकों ने भी बीजेपी को सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया। इस तरह से कम सीटें जीतने के बावजूद भी मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार गोवा में बन गई और कांग्रेस देखती रह गई।

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