राजेश बादल, BHOPAL. मध्यप्रदेश के चुनाव मैदान में ज्यादातर प्रत्याशी उतर चुके हैं। अब तक की प्रस्तुति यह संकेत दे रही है कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पहली बार इतनी भितरघात और असंतोष से भरी हुई हैं कि किसको फायदा मिलेगा, कहा नहीं जा सकता। यकीनन डबल इंजन वाली सरकारों के व्यवस्था विरोधी वोटों का आकार विकराल है। 18 साल से एक मुख्यमंत्री का डटा रहना भी स्पष्ट करता है कि पार्टी में नए नेतृत्व का संकट है। हालांकि पार्टी में मुख्यमंत्री पद पर विचार करने के लिए अनेक चेहरे हैं, पर उनका जनाधार और योग्यता पर अभी भी बड़ा सवाल है। कई चुनाव जीतना और उस आधार पर अपने को मुख्यमंत्री पद के काबिल समझना एक बात है और उस पद पर खुद को प्रमाणित करना और प्रदेश का नेतृत्व करना दूसरी बात। इस मायने में भारतीय जनता पार्टी के पास अभी तक मुख्यमंत्री तो अनेक आए, वीरेंद्र कुमार सखलेचा का विकल्प अभी तक नहीं आया। इसी प्रकार कांग्रेस को अर्जुन सिंह का विकल्प अभी तक नहीं मिला है। भले ही कुछ चेहरे उस पद की शोभा बढ़ा चुके हों।
वर्तमान में धंधा बनी राजनीति
माना जा सकता है कि वर्तमान दौर वैचारिक आधार से भटकी हुई सियासत का है। राजनीति धंधा बन चुकी है। यह चुनाव जीतने की लागत से कई गुना ज्यादा पैसा, शोहरत और सामाजिक प्रतिष्ठा देती है। इसके लिए कोई प्रवेश परीक्षा भी नहीं देनी होती। केवल धन और बाहुबल के सहारे एक बार आप चुनाव में कामयाबी हासिल कर लीजिए, फिर कुछ करने की आवश्यकता नहीं। भारतीय जनता पार्टी इन दिनों इस दुर्गुण का श्रेष्ठ उदाहरण है। कांग्रेस 10 साल से सत्ता से बाहर है और राज्यों में भी उसकी स्थिति अभी उतनी ताकतवर नहीं है। कहा जा सकता है कि वैचारिक पतन की सियासत को बीजेपी ने बीते 10 साल में बढ़ावा दिया है। अब वह अटल बिहारी युग की पार्टी नहीं रही है। मेरी मान्यता है कि देश में इन दिनों मोदी कांग्रेस की सरकार चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दल की रीति-नीति से अलग हटकर चल रहे हैं। उन्हें अपने प्रति वफादार और समर्पित नेताओं की जरूरत है। चाल, चरित्र और चेहरे के आधार पर काम कर रहे कार्यकर्ता दल की नीतियों के प्रति तो समर्पित हो सकते हैं, व्यक्ति के प्रति नहीं। प्रधानमंत्री के लिए ऐसे कार्यकर्ताओं की जरूरत अब नहीं रही। इसलिए वे अन्य दलों से व्यक्तिगत निष्ठाओं को खरीद रहे हैं। उनकी प्राथमिकता की सूची में धन आधारित वफादारी अधिक महत्वपूर्ण है। विचार आधारित नहीं। संभव है कि यह नीति अमेरिका या यूरोप के संपन्न और विकसित देशों में कहीं कामयाब हो, लेकिन भारत के संदर्भ में यह अत्यंत घातक है। भारतीय समाज अभी भी कुछ नीतियों, आदर्शों, मूल्यों, सरोकारों और कर्तव्यों से संचालित व्यवस्था पसंद करता है। तीसरे दर्जे की बाजार केंद्रित व्यवस्था अभी वह स्वीकार नहीं कर पाया है। अपवादों को छोड़ दें तो नरेंद्र मोदी की अधिकांश नीतियां फिलहाल भारतीय लोकतंत्र को स्वीकार्य नहीं नजर आतीं। अवाम के दिलों में देश प्रेम का भाव जगाना एक बात है और मुल्क को सही दिशा में आगे ले जाना दूसरी बात।
कर्ज लेकर घी पी रही मध्यप्रदेश सरकार
राष्ट्रीय नीतियों की व्याख्या मुझे इसलिए करनी पड़ी क्योंकि विधानसभा चुनावों को भी अब राष्ट्रीय मुद्दों से जोड़ दिया गया है। अभी तक हमने देखा है कि प्रदेशों के निर्वाचन स्थानीय मसलों और चेहरों की साख पर ज्यादा केंद्रित हुआ करते थे, लेकिन अब धार्मिक ध्रुवीकरण और मंदिर केंद्रित सियासत ने रोजगार, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, मौलिक अधिकार और कृषि क्षेत्र की प्राथमिकताओं को कहीं पीछे धकेल दिया गया है। लोकतंत्र में नायकों, महानायकों और सितारों की आवश्यकता उतनी नहीं होती, जितनी गांव-गांव चमकने वाले जुगनुओं की। शिवराज सरकार हजारों करोड़ के धार्मिक लोक और मूर्तियां तो बनवा सकती है, लेकिन लाखों कर्मचारियों के खाली पद नहीं भर सकती। वोट खरीदने के लिए वह लाड़ली बहनों पर करोड़ों रुपए लुटा सकती है, लेकिन गांवों के स्कूलों में योग्य शिक्षक नहीं भेज सकती। वह करोड़ों रुपए खर्च करके बुजुर्गों को तीर्थ करा सकती है, लेकिन छोटे शहरों में उस पैसे से अस्पतालों में डॉक्टर तैनात नहीं कर सकती। वह रैलियों, पंडालों और भीड़ जुटाने के नाम पर करोड़ों रुपए फूंक सकती है, पर अपने कर्मचारियों की सेवानिवृति पर दिए जाने वाले फंड का रोना रोती है। हर महीने वह हजारों करोड़ रुपए का कर्ज लेकर घी पी रही है। मुख्यमंत्री कहते हैं कि पैसे की कमी नहीं है। यदि ऐसा है तो आज आप गांवों की सड़कें देख लीजिए, बिजली की कटौती देख लीजिए। क्या परिणाम निकलता है, आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है।
विकल्प और विकल्पशून्यता
एक स्वस्थ्य लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक दल को अनंत काल तक सत्ता का आनंद क्यों भोगना चाहिए ? आज यह सवाल भारतीय मतदाता के सामने खड़ा हुआ है। बेशक आजादी के फौरन बाद कांग्रेस की इस देश को जरूरत थी, क्योंकि आजादी के आंदोलन की सभी वैचारिक धाराओं से निकले तपे-तपाए लोग उसके साथ थे। कहने की जरूरत नहीं कि उस दौर में मुल्क के पुनर्निर्माण का काम कांग्रेस ने बखूबी किया, लेकिन लंबे समय तक राज करने के कारण उसके भीतर एक नैसर्गिक राजा वाला भाव पनपने लगा था। विपक्ष इतना कमजोर था कि वह सत्ताधारी दल के सामने कभी चुनौती नहीं बन सका। गैर-कांग्रेसी सरकारों का भी हश्र हमने देखा है, लेकिन जब 2014 में इस देश के मतदाता ने प्रतिपक्ष को इस लायक समझा कि उसे कांग्रेस के विकल्प के तौर पर सत्ता में बिठाया जा सकता है तो उसने देर नहीं की। अब यह राष्ट्र पाता है कि मौजूदा नेतृत्व और पार्टी के भीतर अधिनायकवादी प्रवृतियां उभर आई हैं, जो देश की लोकतांत्रिक देह के लिए नुकसानदेह है। पर वह यह भी देखता है कि प्रतिपक्ष का आकार भी अत्यंत दुर्बल और महीन है तो वह विकल्पशून्यता की अवस्था में चला जाता है। समाज के एक वर्ग की राय है कि निर्वाचन ऐसी प्रणाली है, जिसमें विकल्प स्वतः निकलकर आता है।
प्रतिपक्ष को अवसर देना लोकतंत्र की मांग
यदि मध्यप्रदेश का मतदाता भारतीय जनता पार्टी को पसंद करता है तो वह यह भी देखता है कि मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह अपनी चौथी पारी में एकदम चुके हुए नजर आते हैं और तमाम ड्रामों के जरिए अपने को मंच पर बनाए रखते हैं। उनके विकल्प के रूप में लंबी कतार है। दूसरी ओर कांग्रेस 20 साल से विपक्ष में है। वह उतने ही वोट बैंक के साथ खड़ी है, जो भारतीय जनता पार्टी के पास है तो यह मानने का पर्याप्त आधार है कि मतदाताओं के बीच वह समान रूप से लोकप्रिय और भरोसेमंद पार्टी है। प्रतिपक्ष को अवसर देना अब लोकतंत्र की मांग है। राजस्थान का मतदाता इसलिए ढाई दशक से हर 5 साल के बाद सरकार बदल देता है। हम उसे जागरुक मान सकते हैं। स्वस्थ्य लोकतंत्र बहती हुई निर्मल धारा के समान है, जिसमें पार्टियां आकर अपने कार्यक्रमों के आधार पर हुकूमत करती हैं और एक ही पार्टी का शासन ठहरे हुए पोखर के पानी की तरह है। चाहे वह भारतीय जनता पार्टी हो या फिर कांग्रेस।