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BHOPAL. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हमेशा दो दलों के बीच ही होते रहे हैं- बीजेपी और कांग्रेस. इस बीच कभी सपा, बसपा और जीजीपी जैसे दल कुछ सेंधमारी करने में कामयाब रहे हैं. लेकिन तस्वीर ज्यादा नहीं बदली. लेकिन इस बार प्रदेश की चुनावी चाल कुछ और ही है. बीजेपी कांग्रेस ने खूब सर्वे करा कर टिकट तो दे दिए लेकिन लिस्ट जारी होने के बाद जो उम्मीदें थीं वो बगावत की आग में झुलकर कर रह गईं. बीजेपी अगर कांग्रेस की लिस्ट और प्रत्याशी चयन के तरीके का माखौल उड़ा रही है तो खुद भी उसी समस्या से दो चार हो रही है. टिकट कटने के बाद बीजेपी के बागी दूसरे दलों से मैदान में उतरने की तैयारी कर चुके हैं. पूरी ताकत झौंककर भी बीजेपी इस बगावत को रोकने में कामयाब नहीं हो सकी है. जब सारे सूरमा फेल हो गए तो जीत के जादूगह अमित शाह खुद जादुई मंत्र लेकर मैदान में उतर पड़े हैं.
एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है
बीजेपी ने जितना सोचा था मध्यप्रदेश में बागियों की नाराजगी दूर करना शायद उतना आसान नहीं है। हालात वहीं हैं कि एक को मनाओ तो दूजा रूठ जाता है। पार्टी के पुराने नेताओं को ही तवज्जो दो तो नए आए नेता बगावत का झंडा बुलंद करते हैं। नए और जिताऊ चेहरे मान कर दूसरों पर पार्टी ने दांव तो लगा दिया, लेकिन पुरानों ने नाक में दम कर दिया है। इस बार बागियों के सामने अकेले या निर्दलीय चुनाव लड़ने की मजबूरी नहीं है। मैदान में इतने दल उतरे हैं कि हर बागी को एक इलेक्शन सिंबल का सहारा मिल गया है और दलों को एक जिताऊ उम्मीदवार। दूसरे दलों की मौजूदगी बीजेपी और कांग्रेस दोनों के बागियों के हौसले बढ़ा भी रहे हैं। शायद यही वजह है कि बगावत और बागियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। बीजेपी खुद 69 सीटों पर विरोध झेल रही है तो कांग्रेस 51 सीटों पर अपने ही नेताओं की नाराजगी का सामना कर रही है। बीजेपी में दस दिन के अंदर बागियों की संख्या दुगनी से ज्यादा हो चुकी है। अब बेकाबू हालात को संभालने की जिम्मेदारी पार्टी के चाणक्य अमित शाह पर है।
बीजेपी में लिस्ट के बाद हालात बेकाबू हो गए
बीजेपी के चाणक्य, जीत के जादूगर- ऐसे बहुत से नाम हैं जो अमित शाह को उनकी रणनीति बनाने की काबिलियत के चलते मिली है। कर्नाटक जैसे कुछ इक्का दुक्का प्रदेश छोड़ दिए जाएं तो बाकी प्रदेशों में उनकी प्लानिंग कामयाब ही रही है। मध्यप्रदेश में भी लड़खड़ाती बीजेपी को पटरी पर लाने का काम उनकी ही मैराथन बैठकों के बाद हुआ। पर, टिकट की लिस्ट के बाद हालात भी बेकाबू हो गए। जिन दिग्गजों को प्रदेश में उतारा वो पूरे 230 सीटों की चिंता की जगह सिर्फ अपनी सीट संभालने में ज्यादा मशगूल हो गए। अब एक बार फिर अमित शाह मैदान में उतरे। बागियों को साधा भी और जीत का एक नया जादूई मंत्र भी दिया।
शाह की बारीक रणनीति की झलक इस दौरे दिखी
तीन दिन का अमित शाह का दौरा पूरी तरह से तूफानी तो रहा ही। उनकी बारीक रणनीति की झलक भी इस दौरे में पूरी तरह से नजर आई। किस अंचल में, किस जिले में कितनी देर सभा करनी है, कार्यकर्ताओं से क्या कहना है और किस जगह पर कौन सा मुद्दा उठाना है। सब कुछ बेहद सोच समझ कर प्लान किया गया और बेहद किफायत के साथ पेश किया गया। जहां मोदी को फेस बनाना था वहां मोदी को फेस बनाया और जहां गांधी परिवार की खामियां याद दिलानी थी वहां परिवारवाद का मुद्दा बखूबी उठाया।
शाह के दौरे की बड़ी बातें...
- महाकौशल में सभा, यहां कार्यकर्ताओं को बूथ मैनेजमेंट का पाठ पढ़ाया।
- घर में बैठे रहने की जगह क्षेत्र में निकलकर जनता से मिलने की सलाह दी।
- दो घंटे के लिए छिंदवाड़ा भी गए, वापसी के बाद जिला अध्यक्ष और प्रभारियों से चर्चा की।
- जबलपुर उत्तर में बागी हो रहे धीरज पटेरिया को मनाया। पटेरिया ने निर्दलीय न लड़ने का ऐलान किया।
- शहीद राजा शंकर शाह और कुंवर रघुनाथ शाह की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित कर आदिवासी वोटरों को लुभाने की कोशिश।
- उज्जैन पहुंचे, यहां महाकाल के दरबार में दर्शन किए।
- कांग्रेस सरकार पर महाकाल लोक की खिलाफत का आरोप लगाया।
- परिवारवाद के बहाने दिग्विजय सिंह और कमलनाथ दोनों को घेरा।
- मालवा निमाड़ की 66 सीटों पर कांग्रेस को चैलेंज भी दिया।
- ग्वालियर चंबल में पार्टी प्रमुखों के साथ बैठक की।
- असंतुष्टों से मुलाकात कर उन्हें भी साधने की कोशिश की।
बीजेपी को यकीन है कि शाह के ये दौरे पार्टी के लिए जीत की राह को और आसान करेंगे। हालांकि, कांग्रेस इसे बीजेपी का डर ही करार कर रही है. कांग्रेस के मुताबिक बीजेपी मान चुकी है कि प्रदेश स्तर के नेता और चेहरों से बात नहीं बनने वाली है. इसलिए खुद अमित शाह को बार बार प्रदेश आना पड़ रहा है.
पूरे प्रदेश में असंतोष का आलम है
टिकट वितरण के बाद से बीजेपी में बागी लगातार सक्रिय हो रहे थे। अमित शाह के दौरे के बाद ये उम्मीद की जा रही है कि कुछ सीटों पर बागी पैर पीछे कर लेंगे। वो या तो शांत हो जाएंगे या फिर पार्टी के साथ हो लेंगे, लेकिन जिस कदर पूरे प्रदेश में असंतोष का आलम है क्या शाह के एक दौरे से एंटी इंकंबेंसी, कार्यकर्ताओं की नाराजगी और दावेदारों का असंतोष मैनेज करना आसान होगा। इस बार छोटे दल भी असंतुष्टों के लिए नया सहारा बन गए हैं। परिवारवाद और बंटाधार के नाम पर कांग्रेस को तो घेरा जा सकता है, लेकिन छोटे दलों की मौजूदगी और उनकी वजह से प्रभावित होने वाले सियासी समीकरणों को कैसे जीरो पर लाया जा सकेगा।
अमित शाह चाहें न चाहें मप्र को समझने बार-बार आना ही होगा
ऐसा लगता है कि इस बार सियासत भी अपने सबसे होनहार विद्यार्थी का इम्तिहान लेने पर अमादा है। इस परीक्षा का साल 2023 है और क्लास है मध्यप्रदेश। जहां हालात समझ से परे हैं। इतने सालों में प्रदेश ने सिर्फ दो दलों को भिड़ते देखा। भिड़ंत अब भी उन्हीं दो के बीच है, लेकिन बीच में हाथ उठाकर मैदान में कूदने और ध्यान भटकाने के लिए इतने खिलाड़ी हैं कि हर बार सत्ता तक जाने का रोडमैप ही गड़बड़ हो जाता है और पार्टी रास्ता भटक जाती है। लिहाजा एक ही मैप से काम चलेगा नहीं ये समझ आ चुका है। अजब एमपी सियासत की गजब तासीर दिखा रहा है। जिसे समझने के लिए अमित शाह को बार-बार आना होगा और चाहें न चाहें इस इम्तिहान से गुजरना ही होगा।