23 अगस्त 2023 को भारत का चंद्रयान-3 सफलतापूर्वक चंद्रमा की सतह पर पहुंच गया। इस उपलब्धि के साथ भारत चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला चौथा देश बन गया। चांद के दक्षिणी ध्रुव के पास पहुंचने वाला भारत पहला देश बन गया। चांद पर लैंडिंग के लाइव कवरेज को ISRO के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर 80 लाख लोग देख रहे थे। भारत के चांद पर पहुंचने के वीडियो को ISRO के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर 7 करोड़ लोग देख चुके हैं। 23 अगस्त 2023 को कुछ ऐसी तस्वीरें हमारे सामने थीं, जिनमें भारतीय विज्ञान जगत की एक उड़ान पर पूरा देश एकजुट था। बसों में, ट्रेनों में, फ्लाइट में, सड़क पर चलते हुए, स्कूलों में, मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघरों में, ऑफिस और घरों में लोगों के अंदर चांद की सतह पर पहुंचने का कौतूहल था। चांद पर पहुंचते ही एक स्वर में तालियों की गड़गड़ाहट थी।
वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया देश का अभिवादन
चांद पर हम पहुंच चुके हैं। भारत ने अपने अंतरिक्ष मिशन की शुरुआत 1962 में की थी। चंद्रयान-3 मिशन को कामयाबी की मंजिल तक पहुंचाने वाली संस्था इसरो 1969 से भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को उड़ान दे रही है। इस मिशन में काम करने वाले वैज्ञानिकों ने बड़ी ही विनम्रता से मिशन की सफलता पर मुस्कान के साथ देश का अभिवादन स्वीकार किया।
एक दिन की चांदनी, फिर नफरती बात
23 अगस्त 2023 को भारतीय विज्ञान जगत की उड़ान पर एकजुटता वाली भाषा की जिन तस्वीरों को हमने अपने मोबाइल पर देखा वो तस्वीरें अमूमन अब तस्वीरों से निर्मित होने वाले शिक्षाशास्त्र से गायब हो चुकी हैं। विज्ञान, पर्यावरण और मानव विकास से जुड़े कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे देश में तस्वीरें प्रसारित करने वाले सबसे बड़े स्तम्भ मीडिया चैनल्स का हिस्सा नहीं रहे हैं। मीडिया चैनल्स में होने वाली तमाशाई और नफरत भरी बहसों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि चांद पर पहुंचना उनके लिए एक दिन की चांदनी, फिर नफरती बात जैसा है।
धर्म के नाम पर क्षति पहुंचा रही हिंसा की शब्दावली
हाल ही में चलती ट्रेन में रेलवे सुरक्षा बल के एक सिपाही द्वारा 3 समुदाय विशेष के लोगों की हत्या की घटना और हत्यारे के वक्तव्य में मीडिया चैनल्स से पैदा की गई नफरत की एक बानगी मिली। हालांकि ये बानगी एक घटना तक सीमित नहीं है, बल्कि मीडिया चैनल्स से पैदा हुई नफरत की ऑडियो विजुअल वर्णमाला अब सोशल मीडिया की बहसों, हमारे चारों तरफ नफरत से भरी परिघटनाओं, ऑफिस की बातचीतों, इत्यादि का हिस्सा बन चुकी है। स्टूडियो में बैठकर एंकर और उनके साथ चिल्लाने वाले लोग 'हिंसा' की जिस शब्दावली को टीवी नामक यंत्र के जरिए देश में बड़े पैमाने पर फैलाते हैं, अब इस शब्दावली ने राह चलते लोगों को धर्म के नाम पर क्षति पहुंचाना शुरू कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच पर की सुनवाई
हेट स्पीच पर सुनवाई करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नफरत से भरे इन प्रसारणों को हेट फैलाने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बताया। मॉर्निंग कॉटेक्स्ट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में न्यूज चैनलों की नियामक संस्था एनबीएसए के पास मीडिया चैनल्स के नफरती कंटेंट को लेकर आने वाली शिकायतें बढ़ती गईं। देश के नामी गिरामी चैनल्स के प्राइम टाइम कार्यक्रमों पर नफरती और समुदाय विशेष को टारगेट करने वाले कंटेंट को लेकर इस संस्था को जुर्माना लगाना, कंटेंट हटाने, माफी और स्पष्टीकरण चैनल पर चलाने के लिए कहने जैसा एक्शन लेना पड़ा। 'कितने पत्थरबाज, कब परमानेंट इलाज', किसान आंदोलन के किसानों को 'खालिस्तानी' कहना, 'थूक जिहाद', '15% मुसलमान अब हिंदू पर भारी', 'हंगामा है यूं बरपा अल्लाह की मर्जी है', 'असली हिंदू V/s ढोंगी हिंदू' जैसी शब्दावली और समुदाय विशेष के खिलाफ नफरती संदेश के इरादे से बनाए गए ग्राफिक्स अब मीडिया चैनल्स के प्रोडक्शन की विभाजक शैली (अब मीडिया चैनल्स में रचनात्मक शैली को विभाजक शैली ने परे कर दिया है) का मुख्य हिस्सा हैं।
देश में डिवीजन की जमीन तैयार करने का मुख्य यंत्र बन रहा मीडिया
1991 में देशभर में फैले साम्प्रदायिक तनाव के समय कई बड़े कलाकारों के सहयोग से 'सुन सुन मेरे नन्हें सुन…प्यार की गंगा बहे…देश में एका रहे…सारा भारत ये कहे प्यार की गंगा बहे' जैसा एकता का गीत बना था। उससे पहले भी सिनेमाई जगत से 'तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा', 'मुझ में राम, तुझ में राम, जग में समाया' जैसे एकता के गीत देश की चेतना का हिस्सा बने थे। आज एकता की उस चेतना को मीडिया चैनल्स की विभाजनकारी शब्दावली भेदती जा रही है। शब्दों और तस्वीरों से संपन्न जिस मीडिया का काम देश के लिए विजन तैयार करने का था, वो मीडिया आज देश में डिवीजन की जमीन तैयार करने का मुख्य यंत्र बनता जा रहा है। मीडिया के शिक्षा शास्त्र में मोनू मनेसर पैदा करने की ऑडियो विजुअल शब्दावली तो है, लेकिन मून मिशन की नहीं। वर्षों के कड़े परिश्रम के बाद देश के वैज्ञानिकों की मेहनत तो चांद पर पहुंच चुकी है, लेकिन 21वीं सदी के भारतीय चैनल्स एक दिन की चांदनी के बाद नफरत की डाल पर ही लटके मिलते हैं।
( लेखक संचार विशेषज्ञ और राजनीतिक विश्लेषक हैं )