संजय गुप्ता, INDORE. धार जिले के गंधवानी के विधायक उमंग सिंघार के मामले में उन पर पत्नी द्वारा दर्ज एफआईआर को क्वैश करने का हाईकोर्ट ने आर्डर दिया है। इस 24 पन्ने के फैसले में हाईकोर्ट ने एक बड़ा फैसला धारा 377 (अप्राकृतिक संबंध) को लेकर दिया है। हाईकोर्ट के आदेश के पैरा 18 में साफ कहा गया है कि पति और पत्नी के बीच 377 का कोई स्थान नहीं है और यह नहीं बनता है। इस केस को लड़ने वाले अधिवक्ता विभोर खंडेलवाल ने कहा कि इस फैसले के तहत अब यह हुआ है कि कोई भी पत्नी, पति के खिलाफ धारा 377 में केस नहीं कर सकती है। यह देश में पहली बार सामने आया है।
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इस तरह की है पूरी व्याख्या
हाईकोर्ट ने आदेश में लिखा है कि पति और पत्नी के बीच यौन संबंध अहम है। यदि इसमें सक्षम नहीं है तो ऐसा लगता है कि रिश्ता बेकार हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होता क्योंकि पति और पत्नी के बीच वैवाहिक रिश्ते में प्यार शामिल होता है। इससे अंतरंगता, त्याग होता है। यौन सुख एक-दूसरे के साथ उनके निरंतर बंधन का अभिन्न अंग है, इसलिए पति और पत्नि के बीच यौन संबंध में अल्फा और ओमेगा में कोई बाधा नहीं डाली जा सकती है। इस प्रकार लगता है कि धारा 375 की संसोधित परिभाषा के मद्देनजर यह संभव है पति और पत्नी के बीच 377 का कोई स्थान नहीं है और इस तरह यह नहीं बनता है।
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क्या है आईपीसी धारा 377
जो भी कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीवजन्तु के साथ प्रकॄति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छा पूर्वक संभोग करेगा तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिए कारावास, जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है, से दण्डित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिए भी उत्तरदायी होगा।
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अपराध और सजा
- प्रकॄति विरुद्ध अपराध जैसे अप्राकृतिक रूप से संभोग करना।
- सजा- आजीवन कारावास या दस वर्ष कारावास + आर्थिक दण्ड।
- यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और प्रथम श्रेणी के मेजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।
- यह समझौता करने योग्य नहीं है।
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सुप्रीम कोर्ट में भी चला था केस
भारतीय दंड संहिता की धारा 377 "प्रकृति विरुद्ध अपराधों" से संबंधित औपनिवेशिक युग के कानून को संदर्भित करती है और एक ऐसे कानून के रूप में कार्य करती है जो "प्रकृति के कानून के खिलाफ" यौन गतिविधियों को अपराधी बनाती है। यह कानून एक पुरातन और प्रतिगामी कानून के रूप में माना जाता है, कार्यकर्ता और एल.जी.बी.टी. (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर) समुदाय के सदस्य 2001 से अदालतों में इस समलैंगिकता विरोधी कानून को खत्म करने के लिए लड़ रहे थे।
जनवरी 2017 में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय पीठ ने धारा 377 के समलैंगिकता के अपराधीकरण के 2013 के फैसले के पुनरीक्षण में धारा 377 को रद्द करने के लिए याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पांच-सदस्यीय पीठ ने इसकी शुरुआत की।
सुप्रीम का फैसला
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि समलैंगिकों के लिए यह धारा गलत है, इससे एलजीबीटी वालों को उनका हक मिला, लेकिन धारा 377 के कई प्रावधान अभी भी बनाए गए है, जिसके तहत बिना मंजूर के और जबरन बनाए गए मामले अपराध बने रहेंगे।