बीजेपी के लिए इस बार आसान नहीं उदयपुर सम्भाग की राह, कटारिया की गैर मौजूदगी में हो रहा है पहला चुनाव, इसका दिख भी रहा है असर

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Pratibha Rana
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बीजेपी के लिए इस बार आसान नहीं उदयपुर सम्भाग की राह, कटारिया की गैर मौजूदगी में हो रहा है पहला चुनाव, इसका दिख भी रहा है असर

मनीष गोधा, JAIPUR. दक्षिण राजस्थान के उदयपुर सम्भाग में इस बार बीजेपी के लिए राह बहुत आसान नजर नहीं आ रही है। पिछले कई दशकों में यह पहला चुनाव है, जो इस सम्भाग में पार्टी के सबसे बड़ा चेहरा रहे गुलाब चंद कटारिया की गैर मौजूदगी में होगा। पार्टी उन्हें असम का राज्यपाल बना कर भेज चुकी है। वहीं सम्भाग की दूसरी बड़ी नेता रहीं किरण माहेश्वरी भी अब दुनिया में नहीं हैं। इसके अलावा आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रही पार्टियों सहित कुछ और चुनौतियां भी हैं।

पिछली बार BJP ने जीती थी  28 में से 14 सीटें

राजस्थान में उदयपुर सम्भाग में अब तो हालांकि जिले बढ़ गए हैं, लेकिन क्योंकि चुनाव पहले से चल रही व्यवस्था के तहत ही हो रहे हैं, इसलिए उसी को मानें तो कुल छह जिलों में 28 सीटें हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्र है, इसलिए यहां सबसे ज्यादा आरक्षित सीटें भी हैं। यहां की कुल 28 सीटों में से 17 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं। उदयपुर सम्भाग को राजस्थान में सत्ता का प्रवेश द्वार माना जाता है, क्योंकि ज्यादातर आदिवासी मतदाता है, इसलिए किसी भी पार्टी को एकमुश्त समर्थन दे देते हैं। हालांकि पिछली बार ऐसा नहीं हुआ था, क्योंकि यहां 28 में से 14 यानी आधी सीटें बीजेपी ले गई थी और बाकी बची सीटें कांग्रेस, निर्दलियो और भारतीय ट्राइबल पार्टी में बंट गई थी, फिर भी बीजेपी सत्ता में नहीं आ पाई, लेकिन पूरे राजस्थान में सम्भागवार बात करें तो कोटा के अलावा पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन इसी सम्भाग में रहा था।

यह था पिछले चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन

उदयपुर सम्भाग के सबसे बड़े जिले उदयपुर की आठ मे से छह सीटो पर बीजेपी ने जीत हासिल की थी। इसके अलावा बांसवाडा में 5 में से 2, चित्तौड़गढ़ में 5 में से 3, डूंगरुपर में 4 में से एक और राजसमंद में 4 में से 2 सीटों पर बीजेपी को जीत मिली थी। प्रतापगढ़ में पार्टी को कुछ नहीं मिला था। यहां की दोनों सीटों पर पार्टी हार गई थी।

इस बार चुनौती और बड़ी है

उदयपुर सम्भाग में इस बार बीजेपी के लिए चुनौती कुछ ज्यादा ही बड़ी दिख रही है और इसके ये कारण हैं-

ना कटारिया, ना किरण

कई दशकों में यह पहला चुनाव है जो गुलाब चंद कटारिया की गैर मौजूदगी में हो रहा है। कटारिया 1977 के बाद उदयपुर से आठ बार लगातार विधायक रहे हैं। इस बीच एक बार लोकसभा के सदस्य भी चुने गए। इस बार भी विधायक थे, लेकिन पार्टी ने इसी साल मार्च मे असम का राज्यपाल बना कर भेज दिया। कटारिया पार्टी के तो सबसे बड़े नेताओं में थे ही वे इस सम्भाग में भी पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा थे। अब क्योंकि राज्यपाल है, इसलिए यह चुनाव उनकी गैर मौजूदगी में ही हो रहा है। उदयपुर की राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोग बताते हैं कि कटारिया इस पूरे सम्भाग में पार्टी को अनुशासित रखते थे और उनकी बात कोई टाल नहीं सकता था। अब वे नहीं हैं तो अंदरूनी स्तर पर आपस में जम कर खींचतान होती दिख रही है और इसका असर चुनाव में निश्चित तौर पड़ता दिख रहा है।

कटारिया के बाद इस सम्भाग में पार्टी का दूसरा बड़ा किरण माहेश्वरी थी। वे राजसमंद से विधायक और सांसद भी रही हैं। दो वर्ष पहले कोविड के चलते उनका निधन हो गया। अब उनकी बेटी दीप्ति किरण माहेश्वरी उनकी सीट से विधायक हैं, लेकिन किरण माहेश्वरी का नहीं होना पार्टी के लिए बड़ा वैक्यूम माना जा रहा है। जानकार बताते हैं कि कटारिया और किरण माहेश्वरी का नहीं होना पार्टी के लिए परेशानी बढ़ाएगा। हालांकि पार्टी ने चित्तौड़गढ़ के सांसद सीपी जोशी का प्रदेश अध्यक्ष बना कर इन नेताओं की कमी को भरने का प्रयास किया है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि जोशी का कद कटारिया या किरण माहेश्वरी जितना बनने में अभी समय लगेगा।

आदिवासी दलों की चुनौतियां

पिछले चुनाव में इस क्षेत्र में बीजेपी की सीटें और बढ़ सकती थी, लेकिन आदिवासी क्षेत्रो में काम कर रहे आदिवासी संगठनों ने बीजेपी को रोकने में अहम भूमिका निभाई। इनमें से एक संगठन ने भारतीय ट्राइबल पार्टी के रूप में चुनाव लड़ा भी और पहली बार में ही डूंगरपुर जिले की चार में से दो सीटों पर जीत भी हासिल कर ली। हालांकि इस बार इस पार्टी में फूट पड़ गई है। इसके दोनों विधायकों ने नया संगठन बना लिया है, लेकिन अहम बात यह है कि इनकी विचारधारा यहां के आदिवासियेां में असर कर रही है और इनका सीधा मुकाबला बीजेपी से इस रूप में है कि एक तरफ जहां बीजेपी सनातन संस्कृति की बात करती है और आदिवासियों को इसका हिस्सा मानती है। वहीं इन दलों की विचारधारा से जुड़े लोग सनातन संस्कृति को नहीं मानते है और खुद को प्रकृति पूजक घोषित करते हैं। ऐसे में विचारधारा के स्तर पर यह सीधे तौर पर बीजेपी को चुनौती देते हैं और नुकसान भी उसी का करते हैं। जानकारों का कहना है कि इनके प्रभाव में कमी नहीं आई है। हालांकि ज्यादा असर डूंगपुरर और प्रतापगढ जिलों में ही है, लेकिन उदयपुर की आदिवासी सीटों पर भी ये असर बढ़ा रहे हैं।

कांग्रेस ने स्थापित किया बड़ा चेहरा

बीजेपी के लिए परेशानी यह भी है कि आदिवासी बहुल जिलों प्रतापगढ, डूंगरपुर और बांसवाड़ा में पार्टी के पास एक भी बड़ा चेहरा नहीं है। पूर्व मंत्री नंदलाल मीणा हुआ करते थे, लेकिन उम्र के चलते वे भी अब राजनीति से दूर हो गए हैं। उधर कांग्रेस ने मौजूदा सरकार के मंत्री महेन्द्र जीत सिंह मालवीय को कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य बना दिया है। मालवीय आदिवासी समुदाय का बड़ो चेहरा माने जाते है और बांसवाड़ा में उनका खासा दबदबा है। अब इस नियुक्ति से उनका कद और बढ़ गया है और इसी के साथ आदिवासी वोटों को प्रभावित करने की उनकी ताकत भी बढ़ गई है।

उपचुनाव में मिली थी करारी हार

बीजेपी के लिए इस क्षेत्र में मुश्किलें बढ़ने के संकेत पिछले वर्ष उदयपुर सम्भाग की दो सीटों के लिए हुए उपचुनाव से भी मिले हैं। यहां उदयपुर की वल्लभनगर और प्रतापगढ़ की सीटों पर हुए उपचुनाव में पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा था। वल्लभनगर में पार्टी चैथे स्थान पर रही, जबकि धरियावद में तीसरे स्थान पर रही थी और पार्टी को सीट से हाथ धोना पड़ा था।

परिवर्तन यात्रा और राजपरिवार को जोड़ने की जुगत

उदयपुर सम्भाग की इन सीटों पर दबदबा कायम रखने के लिए बीजेपी जहां एक तरफ इस इलाके की परिवर्तन यात्रा पर पूरा फोकस कर रही है वहीं मेवाड़ के राजपरिवार को भी पार्टी से जोड़ने के प्रयास चल रहे हैं। मेवाड़ में परिवर्तन यात्रा की शुरूआत के लिए पार्टी ने अमित शाह जैसे बड़े कद के नेता को बुलाया और यहां कुछ और बड़े नेताओ को लाने की तैयारी है। इसके साथ ही मेवाड़ राजपरिवार को भी पार्टी से जोड़ने की कोशिशें चल रही हैं। बताया जा रहा है कि राजपरिवार के लक्षराज सिंह मेवाड से पार्टी सम्पर्क में है और इस दिशा में जल्द ही फैसला हो सकता है।

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