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BHOPAL. चुनाव से पहले ही सीएम शिवराज सिंह चौहान का फेस पीछे कर चुकी बीजेपी अब किसी इस कुर्सी के लिए चुनेगी। जिस हिसाब से बीजेपी ने बंपर जीत हासिल की है। उस हिसाब से तो शिवराज सिंह चौहान ही इस कुर्सी के सबसे बड़े और सबसे मजबूत दावेदार बन चुके हैं, लेकिन आलाकमान की फेवरेट की लिस्ट में नहीं हैं। तो फिर, अब कुर्सी किसकी होगी। क्या उन सांसदों में से किसी एक की होगी जो इस जीत के हिस्सेदार बने हैं। या फिर कोई ऐसा चेहरा काबिज होगा, जो बीजेपी की पुरानी आदतों के मुताबिक फिर से चौंकाने वाला होगा। फैसला जो भी होगा, उसमें एक बड़ा पेंच तो फिर भी होगा। उस पेंच को समझने से पहले एक बार ताजा विधानसभा का स्वरूप समझ लीजिए।
बुंदेलखंड में उमा की अपील भी नुकसान न कर सकीं
नई विधानसभा में कई पुराने चेहरे बतौर नए चेहरे दाखिल होंगे। कई पुराने चेहरों को सदन मिस भी करेगा। फिर चाहें वो चेहरे कांग्रेस के हों या बीजेपी के हों। इन चेहरों में सबसे पहले गिनती होगी उन सांसदों की जो न सिर्फ जीते, बल्कि अपने आसपास की सीटों का समीकरण भी बदल दिया। मसलन कैलाश विजयवर्गीय जिनकी वजह से इंदौर की फंसी हुई सीटें निकल गईं और जीतू पटवारी जैसे एक्टिव विधायक की हार हो गई। यही हाल बुंदेलखंड और महाकौशल में भी रहा जहां प्रहलाद पटेल, राकेश सिंह का प्रभाव दिखा। यहां न उमा भारती की अपीलें बीजेपी का नुकसान कर सकीं न उनकी नाराजगी रंग लाई। ग्वालियर चंबल में ज्योतिरादित्य सिंधिया, अपने कुछ समर्थकों की हार के बावजूद खुद को साबित करने में कामयाब रहे। बेटे के वायरल वीडियो के बावजूद नरेंद्र सिंह तोमर ने अपना दम दिखा ही दिया। फग्गन सिंह कुलस्ते को छोड़कर सभी सांसद अब विधानसभा में पहुंचने की तैयारी में हैं। नरोत्तम मिश्रा, अरविंद भदौरिया जैसे मंत्री हार चुके हैं और जीतू पटवारी और कुणाल चौधरी जैसे फायर ब्रांड विधायक भी अब सदन में दिखाई नहीं देंगे। लहार वाले गोविंद सिंह के तजुर्बे को भी यकीनन सदन में याद किया जाएगा।
सीनियर्स की गिनती आसानी से खत्म नहीं होती
अब जब सदन में बैठे दिग्गजों की गिनती शुरू होगी तो आसानी से खत्म नहीं होगी। नजारा कुछ यूं भी हो सकता है कि सदन में सीएम को अपना पक्ष रखने से पहले अपने ही पार्टी के दिग्गजों से दो चार होना पड़ा और विपक्ष से ज्यादा उनसे ही उलझना पड़े। क्योंकि ये सब वो लोग हैं जो न सिर्फ सीनियर हैं, बल्कि सीधे आलाकमान के दरबार में दखल रखते हैं। कहने को नए सीएम को फ्री हैंड मिल सकता है, लेकिन उसके हर कदम की खबर दिल्ली दरबार तक पहुंचना भी तय ही होगी। ये सारी परेशानियां तो चलती रहेंगी पर अभी का सबसे बड़ा सवाल ये है कि मुख्यमंत्री होगा कौन।
सीएम की रेस में सबसे आगे शिवराज सिंह हैं
कोई माने या न माने इस रेस में सबसे आगे और सबसे मजबूत तो शिवराज सिंह चौहान ही नजर आ रहे हैं। जीत का सबसे बड़ा हिस्सा उनकी फ्लेगशिप योजना लाड़ली बहना के नाम ही है। इसके अलावा जनआशीर्वाद यात्रा से पहले वो जनदर्शन यात्रा के जरिए भी प्रदेशभर में सक्रिय रहे। उनके सुझाए प्रत्याशियों में भी आधे से अधिक जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। इस नाते उनका कद सबसे बड़ा है। हो सकता है कि इस जीत को देखते हुए आलाकमान उन्हें एक बार फिर मौका दे। कम से कम लोकसभा चुनाव तक सबसे आगे उन्हीं का चेहरा रह सकता है और अगर सीएम नहीं बनते तो बहुत संभव है कि वो नेता प्रतिपक्ष बनने की जगह केंद्र की राजधानी का रुख कर लें।
दूसरा नाम नरेंद्र सिंह तोमर का है
तोमर आलाकमान के बेहत करीबी है और भरोसेमंद भी। इसी भरोसे की बुनियाद पर उन्हें प्रदेश में चुनाव की कमान सौंपी गई थी। हालांकि, बेटे के वीडियो लीक होने के बाद उनकी छवि पर कुछ असर जरूर पड़ा होगा। एक वायरल वीडियो और दूसरा ओबीसी फेक्टर हावी हुआ तो नरेंद्र सिंह तोमर रेस में पिछड़ सकते हैं।
सीएम की लिस्ट के लिए विजयवर्गीय भी दमदार चेहरा है
कैलाश विजयवर्गीय का नाम भी इस लिस्ट में दमदार है। जो इंदौर को बीजेपी के नाम कराने में कामयाब हुए ही मालवा की दूसरी सीटों को भी पार्टी की झोली में डाल दिया। विजयवर्गीय वैसे ये कह चुके हैं कि मुझे पार्टी ने बड़ी जिम्मेदारी के लिए चुना है, लेकिन ये क्लियर नहीं है कि वो ये बड़ी जिम्मेदारी प्रदेश में ही संभालेंगे या फिर दिल्ली का रुख करेंगे। वैसे सीएम और उनके बीच के फासले भी किसी से छिपे नहीं है। जो चुनावी जीत के बाद भी नजर आए जब लाड़ली बहना को जीत का क्रेडिट देने के सवाल पर विजयवर्गीय ने उखड़ते हुए पलटकर सवाल कर डाला कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो ये योजना नहीं है। फिर वहां कैसे जीते। उन्होंने जीत का पूरा क्रेडिट मोदी की गारंटी को दिया है।
प्रहलाद की जननायक की छवि और ओबीसी चेहरा
चौथा नाम हैं प्रहलाद पटेल जिनका प्लस प्वाइंट है जननायक की छवि और ओबीसी चेहरा। इंडिया गठबंधन के ओबीसी राग के बीच अगर बीजेपी भी ओबीसी चेहरे को ही चुनती है तो प्रहलाद पटेल पहली पसंद हो सकते हैं। मुख्यमंत्री नहीं भी बने तो किसी अहम विभाग की कमान जरूर संभाल लेंगे। राकेश सिंह को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। जो तरुण भानोट जैसे नेता को हराने में कामयाब रहे। लेकिन सीएम पद की रेस में वो काफी पीछे हैं उनसे आगे दो नाम और हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया और वीडी शर्मा।
ज्योतिरादित्य भी मोदी-शाह के करीबी हैं
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ये साबित कर दिया है कि वो ग्वालियर चंबल में अब भी प्रभाव रखते हैं। भले ही उनके सारे समर्थक नहीं जीत सके, लेकिन सीटें तो बीजेपी के खाते में आई ही हैं। प्रदेश में उनका चेहरा भी लोकप्रिय है और वो मोदी-शाह के करीबी भी हैं। ऐसा होता है तो सिंधिया घराने की सीएम पद पर काबिज होने की कामना भी उनके साथ ही पूरी हो जाएगी। अगला नाम वीडी शर्मा का भी हो सकता है। जो कम से कम संघ के बहुत करीबी हैं और जीत के बाद अपने संगठन की कसावट की पीठ भी थपथपा ही रहे हैं। उनके सुझाए हुए प्रत्याशियों ने भी बड़ी संख्या में जीत हासिल की है। इस लिहाज से दिगज्जों की फौज के बीच वीडी शर्मा का नंबर भी लग सकता है।
बीजेपी की एक आदत सरप्राइज करने की
ये तो वो नाम हैं जो सबके सामने हैं, लेकिन बीजेपी की एक आदत और है सरप्राइज करने की। हो सकता है वो किसी ऐसे नाम को मुखिया पद पर बिठाल दे जिसके बारे में किसी ने सोचा भी न हो। पार्टी का जो भी फैसला होगा वो लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ही होगा। जो प्रदेश से बीजेपी की ज्यादा से ज्यादा सीटें सुनिश्चित कर सके, लेकिन मध्यप्रदेश की विधानसभा का क्या होगा। इस विधानसभा में कांग्रेस के कई दिग्गज अब नजर नहीं आएंगे। जीतू पटवारी, सज्जन सिंह वर्मा, गोविंद सिंह जो असल में पार्टी के धुरंधर थे और सत्ता पक्ष की नाक में दम करना खूब जानते थे वो ये चुनाव जीत नहीं सके। इसके उलट बीजेपी के बहुत से धुरंधर सदन में होंगे। ऐसे सदन को काबू में करने के लिए विधानसभा का मुखिया और सत्ताधारी दल का मुखिया दोनों का दमदार होना जरूरी है।
ऐसे में बीजेपी के लिए नए चेहरे की खोज बहुत आसान होने वाली नहीं है।
आठवां नाम कोई ऐसे विधायक का हो सकता है।
शिवराज सिंह चौहान समेत सीएम पद की रेस में सात नेता हैं। आठवां नाम कोई ऐसे विधायक का हो सकता है जो सीनियर भी हो और अच्छा दमखम भी रखता है। ये भी संभव है कि पार्टी प्रदेश से जुड़ा किसी ऐसे चेहरे के हवाले कुर्सी कर दे, जिसकी उम्मीद किसी को भी नहीं है और बाद में चुनाव लड़वा ले। एक विकल्प ये भी है कि विधानसभा जीतने के बाद अपने इन्हीं वरिष्ठ नेताओं को लोकसभा की जिम्मेदारी सौंप दे और विधानसभा में उपचुनाव करवा लें। बीजेपी के पास रास्ते अभी बहुत से, लेकिन पार्टी किस रास्ते को चुनेगी वो फैसला जरूर हैरान करने वाला हो सकता है।