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छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में स्थित पांडादाह गांव का जगन्नाथ मंदिर अविभाजित मध्यप्रदेश का सबसे प्राचीन जगन्नाथ मंदिर है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर की तर्ज पर बना यह मंदिर आस्था और विरासत का केंद्र है।
मंदिर का इतिहास साल 1707 से जुड़ा है। कल्चुरी वंश की पराजय के बाद भोसले शासक बिंबाजी राव के समय में महंत प्रहलाद दास की भजन मंडली पांडादाह आई। रियासत की पटरानी ने प्रभावित होकर उन्हें सम्मान दिया। पटरानी के आदेश पर हर मालगुजार से मिले 2 रुपए के दान से मंदिर का निर्माण शुरू हुआ।
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महंत प्रहलाद दास के बाद उनके शिष्य हरिदास बैरागी मंदिर के उत्तराधिकारी बने। हरिदास बैरागी राजनांदगांव रियासत के पहले शासक भी बने। उन्होंने किला और अन्य स्थापत्य का निर्माण करवाया। बाद में महंत घासी दास, बलराम दास और दिग्विजय दास ने रियासत की सत्ता संभाली।
मंदिर को 500 एकड़ जमीन दान में मिली
बैरागी राजवंश में संतानहीनता के कारण गुरु-शिष्य परंपरा में गद्दी का हस्तांतरण होता रहा। एक ब्राह्मण महिला जीराबाई ने मंदिर को 300 एकड़ भूमि दान में दी। यह भूमि राजस्व रिकॉर्ड में "ठाकुर जुगल किशोर मंदिर" के नाम दर्ज है। कुल मिलाकर मंदिर को 500 एकड़ जमीन दान में मिली। वर्तमान में इस संपदा की देखरेख रानी सूर्यमुखी देवी राजगामी संपदा कर रही है।
भगवान को कंधे पर उठाने की परंपरा
यहां की सबसे अनोखी परंपरा है अरज दूज के दिन भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की कांधे पर यात्रा। मान्यता है कि महंत हरिदास को स्वप्न में भगवान ने आदेश दिया कि रथ में नहीं, उन्हें कंधे पर उठाकर मंदिर परिसर में परिक्रमा कराई जाए।
एक बार ब्रिटिश अधिकारी की जिद पर महंत बलराम दास को रथ यात्रा करनी पड़ी, लेकिन रथ यात्रा के अगले ही दिन उस अंग्रेज अफसर की मौत हो गई। तब से आज तक यहां भगवान की यात्रा रथ पर नहीं, कांधों पर होती है। पुजारी और भक्त मूर्ति को कंधे में उठाकर मंदिर के भीतर पांच परिक्रमा कराते हैं।
पांडवो ने किया था विश्राम, ऐसी मान्यता
खैरागढ़ के घने वनांचल में बसे पांडादाह में न केवल यह मंदिर बल्कि त्रिकोणीय कुआं, संगमरमर की मूर्तियां, आमनेर नदी, सियारसुरी मंदिर और सांकरा का महामाया मंदिर जैसे कई दर्शनीय स्थल हैं।
इतिहासकारों का मत है कि महाभारत काल में पांडवों ने यहां विश्राम किया था, इसीलिए इसे पहले पांडवदाह कहा जाता था, जो बाद में पांडादाह बन गया।इसके बावजूद, यह ऐतिहासिक गांव आज भी पर्यटन विकास और सरकारी संरक्षण की प्रतीक्षा में है।
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