मनोज त्रिवेदी @ रायपुर
छत्तीसगढ़ विधानसभा 2023 का चुनाव और इसके परिणाम बेहद खास कई मायनों में रहे। पहला, चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान कहीं कभी यह नहीं लग रहा था कि बीजेपी बाजी पलटने वाली है। दूसरा, बीजेपी चुनाव के बाद चेहरों के बजाय पार्टी लाइन को तवज्जो देकर सरकार बनाएगी। तीसरा, सरकार किसी व्यक्ति या ब्यूरोक्रेसी पॉवर के इर्द गिर्द ना चलकर या यूं कहिए कयास को जन्म देगी कि दरअसल सरकार किसके इशारो पर चल रही है।
कोई कहता है संगठन, कोई संघ, कोई सीधा दिल्ली से तार जोड़ता है। शायद भाजपा इस बात को चुनाव के पहले समझ गई कि सरकार की रिंग कैसे, किसके सहारे चक्कर काटे से ज्यादा जरूरी यह है कि अपना सायकल पूरा करे। भले ही लोग कयास कुछ भी लगाते रहें ।
याद कीजिए पिछली कांग्रेस सरकार तीन चुनाव हारने के बाद 2018 में सत्ता में आई थी, और शायद उन्हीं कारणों की वजह से सत्ता गंवाई जिन कारणों की वजह से छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बने स्व. अजीत जोगी ने लगभग ट्रे में सजा कर जोगी जी ने बीजेपी को सत्ता सौंप दी थी ।
2018-2023 के पांच सालों को याद करें। पात्र जरूर बदले, लेकिन कमोबेश स्थिति वैसे ही रही। इन पांच सालों में राजधानी की किसी भी मुख्य सड़क पर खड़े होकर यदि आप सेल्फी लेते तो शायद आपके पीछे होर्डिंग से झांकते तत्कालीन मुख्यमंत्री का चेहरा नजर आ ही जाता। प्रचार के ओवरडोज से उकताई जनता के मन में जो चल रहा था, उसे बीजेपी भांप गई थी।
वैसे देखा जाय तो छत्तीसढ़ भाजपा ने कांग्रेस सरकार के पांच सालों में सड़क पर शायद ही कोई बड़ा आंदोलन किया हो या धरना, प्रदर्शन किया हो। किसी बड़े मुद्दे पर विधानसभा में कोई बवाल काटा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।
भूपेश बघेल की कांग्रेस की सरकार ने जैसे महादेव सट्टा, कोयले का परिवहन, शराब की बिक्री जैसे मुद्दे ट्रे में रख कर दे डाले जिस पर कायम हुए अपराध और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा की गई कार्रवाई ने भाजपा संगठन को चुनाव के पहले “कवर फायर” दे दिया और परिणाम आपके सामने है ।
पिछले नौ महीनों में छतीसगढ़ सरकार को ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि सरकार ने कोई हैरतअंगेज नहीं किया है। कुछ एक विवाद यदि सर पर आए भी तो उसे लो प्रोफाइल रहते हुए बड़ी चतुराई से हैंडल किया है।
चाहे वो कोंटा के पत्रकारों की अरेस्टिंग हो या हालिया नक्सल हिंसा में मारे केंद्रीय बल के जवान, कानून और व्यवस्था में दादागिरी या पुलिस और ब्यूरोक्रेसीं की धमक हो कोई अतरंगी निर्णय या हस्तक्षेप सरकार का स्पष्ट दिखायी नहीं पड़ता।
किसी भी लोकतांत्रिक सरकार में ये स्थिति सबसे अच्छी मानी जानी चाहिए कि लोगों को पता ना चल सके कि सरकार में पॉवर सेंटर कौन है? परिक्रमा पथ कहां से प्रारंभ होता है और कहां इसका छोर है।
वर्तमान सरकार के मुखिया का व्यक्तित्व भी ऐसा है कि कोई शायद ही उन्हें प्रिडिक्ट कर सके, या दावा कर सके। सहज छत्तीसगढ़ का एक आसान मुख्यमंत्री बीते नौ महीनों में विष्णुदेव साय नजर आए।
गर्भकाल…
विष्णुदेव साय सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…
कैसी रही सरकार की दशा और दिशा…
आप भी बताएं...विष्णु कौन सा 'चक्र' चलाएं
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चर्चा में बने रहने के लिए विवादित रहना एक राजनीतिक शगल होता है, लेकिन विवाद के सहारे सरकारें नहीं चलती। सरकार को बीच के रास्ते में ही सफर करना चाहिए जो बीते नौ महीनों में साय सरकार करते दीख रही है। पिछले नौ महीनों में लोकसभा चुनाव के परिणाम भी इस बात का सबूत है।
केंद्र की एनडीए सरकार को अन्य राज्यों की अपेक्षा बीजेपी से सबसे अच्छे लोकसभा परिणाम छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश से आए हैं। छतीसगढ़ की बड़ी समस्या नक्सलवाद है, और बीते नौ महीनों में सरकार इस बड़ी समस्या निवारण के फ्रंट फुट पर है।
पिछले दस साल के कालखंड की तुलना में पिछले नौ महीनों में भरपूर आक्रमकता प्रदेश और केंद्र सरकार ने दिखाई है। हालांकि, सरकार को अभी लंबा सफर तय करना है।
छत्तीसगढ़ में प्रदूषण, बेरोजगारी,अवैध उत्खनन, जल जमीन जंगल में काफी काम किया जाना है,। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस पर अपनी स्पष्ट नीति-कार्ययोजना पर काम करेगी, सड़क और स्वास्थ्य सुविधाओं पर भी खास काम की गुंजाइश है ।
लेखक छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्य सूचना आयुक्त रहे हैं। वे नवभारत के CEO एवं नईदुनिया और दैनिक भास्कर के GM रहे हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।
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