छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने कहा, जांच अधिकारी को गवाहों से जिरह का अधिकार, कांस्टेबल की बर्खास्तगी बरकरार

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि विभागीय जांच के दौरान जांच अधिकारी को गवाहों से जिरह करने और उनसे स्पष्टीकरण मांगने का अधिकार है। इस निर्णय के साथ यह भी माना कि ऐसी जिरह से जांच प्रक्रिया शून्य नहीं हो जाती।

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Krishna Kumar Sikander
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छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि विभागीय जांच के दौरान जांच अधिकारी को गवाहों से जिरह करने और उनसे स्पष्टीकरण मांगने का अधिकार है। चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस बिभु दत्ता गुरु की डिवीजन बेंच ने इस निर्णय के साथ यह भी माना कि ऐसी जिरह से जांच प्रक्रिया शून्य नहीं हो जाती।

यह फैसला एक पुलिस कांस्टेबल की याचिका पर सुनवाई के दौरान आया, जिसे भ्रष्टाचार और ड्यूटी में लापरवाही के आरोपों के बाद सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। कोर्ट ने जांच प्रक्रिया को नियमों के अनुरूप मानते हुए कांस्टेबल की अपील खारिज कर दी।

क्यों लगे भ्रष्टाचार और लापरवाही के आरोप?

याचिकाकर्ता, जो छत्तीसगढ़ पुलिस विभाग में कांस्टेबल के पद पर कार्यरत था, के खिलाफ 2009 में दो गंभीर आरोप लगाए गए थे। पहला आरोप था कि 6 फरवरी 2009 को उसने अनधिकृत रूप से ग्राम खोराटोला में जाकर एक शिकायतकर्ता को कमरे में बंद किया, उसे गालियां दीं, और लकड़ी रखने के मामले में जेल भेजने की धमकी देकर 5,000 रुपये की रिश्वत मांगी। यह कृत्य भ्रष्ट आचरण के तहत आया।

दूसरा आरोप था कि वह पुलिस स्टेशन में ड्यूटी से अनुपस्थित रहा, जो ड्यूटी में लापरवाही को दर्शाता है।इन आरोपों के आधार पर 12 मई 2009 को कांस्टेबल के खिलाफ आरोप-पत्र जारी किया गया, और विभागीय जांच शुरू हुई। जांच अधिकारी ने 30 दिसंबर 2009 को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें दोनों आरोप सिद्ध पाए गए। इसके परिणामस्वरूप, अनुशासनिक प्राधिकारी ने 30 जनवरी 2010 को कांस्टेबल को सेवा से बर्खास्त कर दिया।

याचिकाकर्ता की अपील और तर्क

कांस्टेबल ने इस बर्खास्तगी के खिलाफ पुलिस उपमहानिरीक्षक के समक्ष अपील दायर की, लेकिन 17 मई 2010 को इसे खारिज कर दिया गया। इसके बाद, पुलिस महानिदेशक के समक्ष दया याचिका दायर की गई, जो भी खारिज हो गई। अंततः, कांस्टेबल ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की।

सिंगल बेंच ने 14 फरवरी 2024 को याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद कांस्टेबल ने डिवीजन बेंच में रिट अपील दायर की।याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि जांच अधिकारी ने जांच के दौरान गवाहों और याचिकाकर्ता दोनों से जिरह की, जो एक अभियोजक की भूमिका निभाने जैसा था और उनकी जिम्मेदारी से परे था।

इस कारण जांच को पक्षपातपूर्ण और अनुचित बताया गया। इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसे बचाव सहायक (डिफेंस असिस्टेंट) के अधिकार की जानकारी नहीं दी गई, जिससे उसका बचाव प्रभावित हुआ। उसने यह भी कहा कि जांच में सबूतों का उचित मूल्यांकन नहीं किया गया और जांच अधिकारी ने अर्ध-न्यायिक भूमिका निभाई, जिससे प्रक्रिया में बाधा आई।

हाईकोर्ट का फैसला, जांच नियमों के अनुरूप

हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने याचिकाकर्ता के तर्कों को खारिज करते हुए जांच प्रक्रिया को छत्तीसगढ़ सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1966 के अनुरूप पाया। कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी का गवाहों से जिरह करना और स्पष्टीकरण मांगना जांच का हिस्सा है और यह प्रक्रिया को अमान्य नहीं करता।

कोर्ट ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता, जो एक प्रशिक्षित पुलिस कर्मी था, ने जांच के दौरान गवाहों से प्रभावी ढंग से जिरह की और अपने बचाव में दस्तावेज प्रस्तुत किए, जिससे यह स्पष्ट है कि वह अपने कानूनी अधिकारों से अवगत था।कोर्ट ने यह भी नोट किया कि याचिकाकर्ता ने जांच प्रक्रिया के दौरान बचाव सहायक की मांग नहीं की थी।

यह मुद्दा पहली बार हाईकोर्ट में उठाया गया, जो प्रक्रिया में खामियां तलाशने का प्रयास प्रतीत हुआ। इसके अलावा, जांच में एकत्र किए गए साक्ष्यों और गवाहों के बयानों को पर्याप्त और नियमसंगत माना गया। इस आधार पर, डिवीजन बेंच ने सिंगल बेंच के फैसले को बरकरार रखते हुए याचिकाकर्ता की अपील खारिज कर दी।

फैसले का महत्व

हाईकोर्ट का यह फैसला विभागीय जांच प्रक्रियाओं में जांच अधिकारियों की भूमिका को स्पष्ट करता है। यह निर्णय न केवल छत्तीसगढ़ पुलिस विभाग के लिए, बल्कि अन्य सरकारी विभागों में चल रही जांच प्रक्रियाओं के लिए भी एक मिसाल कायम करता है। कोर्ट ने यह साफ किया कि जांच अधिकारी को गवाहों से जिरह करने का अधिकार है, बशर्ते यह प्रक्रिया नियमों के दायरे में हो। साथ ही, यह फैसला इस बात को रेखांकित करता है कि प्रशिक्षित कर्मचारियों को अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी होने की अपेक्षा की जाती है, और बाद में इस आधार पर प्रक्रिया को चुनौती देना उचित नहीं है।

प्रभाव और भविष्य

इस फैसले ने भ्रष्टाचार और ड्यूटी में लापरवाही जैसे गंभीर आरोपों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की आवश्यकता को फिर से रेखांकित किया है। साथ ही, यह सुनिश्चित करता है कि विभागीय जांच निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हो। याचिकाकर्ता की बर्खास्तगी को बरकरार रखने से यह संदेश भी जाता है कि सरकारी कर्मचारियों को अपने कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी से करना होगा, अन्यथा कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।

इसके साथ ही, यह फैसला जांच अधिकारियों को उनके दायित्वों को स्पष्ट रूप से समझने में मदद करेगा, ताकि भविष्य में ऐसी जांच प्रक्रियाओं में पक्षपात के आरोपों से बचा जा सके। यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह प्रशासनिक जवाबदेही और पारदर्शिता को भी मजबूत करता है।

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