बर्खास्त कांस्टेबल की मौत के 9 साल बाद मिला इंसाफ,पत्नी और बच्चों को हाईकोर्ट से मिली राहत

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से जुड़ा एक अहम मामला सामने आया है,जिसमें नौ वर्षों बाद एक बर्खास्त कांस्टेबल को न्याय मिला है। यह मामला पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है।

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Harrison Masih
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छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से जुड़ा एक अहम मामला सामने आया है, जिसमें नौ वर्षों बाद एक बर्खास्त कांस्टेबल को न्याय मिला है। यह मामला न केवल पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कानून के रास्ते से देर से ही सही, न्याय जरूर मिलता है।

क्या है पूरा मामला?

विनोद सिंह, जो कि पुलिस विभाग में कांस्टेबल (जीडी) के पद पर कार्यरत थे, पर वर्ष 2014 में आरोप लगाया गया कि वे ड्यूटी के दौरान नशे में थे और उन्होंने अपने सहकर्मियों के साथ अभद्र व्यवहार किया। यह भी बताया गया कि उनके खिलाफ पूर्व में 7 छोटी और 1 बड़ी अनुशासनात्मक सजा भी दी जा चुकी थी।

इन्हीं आधारों पर 24 जनवरी 2015 को उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।

हाईकोर्ट में याचिका और कानूनी संघर्ष

विनोद सिंह ने राज्य शासन के बर्खास्तगी आदेश के खिलाफ 2016 में हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। उन्होंने आरोपों को गलत बताया और कहा कि उनके खिलाफ उचित प्रक्रिया नहीं अपनाई गई।

लेकिन कुछ महीने बाद ही उनका निधन हो गया (2017)। इसके बाद उनके परिवार — पत्नी और बच्चों ने मुकदमे को आगे बढ़ाया, और नौ वर्षों तक लगातार कानूनी लड़ाई लड़ी।

हाईकोर्ट का फैसला: बर्खास्तगी आदेश रद्द

मामले की सुनवाई जस्टिस संजय अग्रवाल की सिंगल बेंच में हुई। कोर्ट ने पाया कि विनोद सिंह के नशे की पुष्टि के लिए कोई मेडिकल जांच नहीं कराई गई थी।

सिर्फ मौखिक गवाही और पंचनामे के आधार पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले (बच्चूभाई कार्यानी विरुद्ध महाराष्ट्र राज्य) का हवाला देते हुए कहा गया कि नशे की पुष्टि ब्लड या यूरीन टेस्ट से ही की जा सकती है।

इस आधार पर कोर्ट ने कहा कि बिना उचित मेडिकल प्रमाण के सेवा से बर्खास्त करना गलत है। कोर्ट ने आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि राज्य सरकार दो माह के भीतर इस आदेश की समीक्षा कर निर्णय ले।

 

हाईकोर्ट की टिप्पणी: आरोप गंभीर, पर सबूत जरूरी

कोर्ट ने यह भी माना कि याचिकाकर्ता के खिलाफ पहले कई अनुशासनात्मक कार्रवाइयाँ हो चुकी थीं, लेकिन उसके बावजूद भी आरोपों की पुष्टि के बिना सेवा समाप्त करना उचित नहीं है। कानून में सबूत और प्रक्रिया दोनों जरूरी हैं।

यह मामला उन कई लोगों के लिए मिसाल है जो अन्याय के खिलाफ हिम्मत नहीं जुटा पाते। विनोद सिंह की पत्नी और बच्चों ने जिस हिम्मत और धैर्य के साथ यह लड़ाई लड़ी, वह कानूनी प्रणाली पर भरोसे की मिसाल है।

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