मनीष गोधा, JAIPUR. राजस्थानी भाषा में विधायक पद की शपथ को लेकर राजस्थान विधानसभा में हुए विवाद के बाद राजस्थानी भाषा की मान्यता का मुद्दा एक बार फिर गरमाता दिख रहा है। हालांकि पहला मौका नहीं है कि जब राजस्थान विधानसभा में इस तरह का विवाद खड़ा हुआ है। इससे पहले भी जब-जब इस तरह के मौके आए हैं ये विवाद खड़ा होता रहा है। राजस्थानी भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किए जाने यानी राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिए जाने के मामले में कई पेंच फंसे हुए हैं और इसी के चलते आजादी के बाद से आज तक ये मुद्दा सुलझ नहीं पा रहा है।
3-4 विधायकों ने रखी थी राजस्थानी में शपथ की मांग
राजस्थान विधानसभा में बुधवार को पहले सत्र के पहले ही दिन 3-4 विधायकों ने राजस्थानी भाषा में शपथ लेने की मांग रखी। अंशुमान सिंह भाटी और रविंद्र भाटी ने तो राजस्थानी भाषा में शपथ ले भी ली, लेकिन संवैधानिक मान्यता नहीं होने के कारण सदन की कार्यवाही से इसको डिलीट करना पड़ा। वहीं आसन की ओर से बार-बार ये कहना पड़ा कि जो भाषाएं संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल हैं, उन्हीं में शपथ ली जा सकती है।
पहले भी उठता रहा है ये मुद्दा
राजस्थानी भाषा में शपथ लेने का मुद्दा पहली बार नहीं उठा है बल्कि पहले भी सामने आता रहा है। दिसंबर 2018 में हुए चुनाव के बाद जब जनवरी 2019 में 15वीं विधानसभा का पहला सत्र आहूत हुआ तो उसे समय भी 3 विधायकों ने राजस्थानी भाषा में शपथ लेने की मांग की थी। तब प्रोटेम स्पीकर के पद पर गुलाबचंद कटारिया आसीन थे और उन्होंने संविधान का हवाला देते हुए इसकी अनुमति नहीं दी थी।
क्या कहते हैं जानकार ?
जानकार बताते हैं कि 1956 के पहले कार्यकाल से ही ये विषय, इस सदन की सरगर्मी बढ़ाता रहा है। 2003 में अशोक गहलोत सरकार ने राजस्थानी को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए सर्वसम्मति से संकल्प पारित कर केंद्र सरकार को भेजा था, जिस पर तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने (2006 में) सैद्धांतिक सहमति भी दे दी। कई कारणों के चलते ये प्रक्रिया अटक गई। इसके बाद भी इसे लेकर प्रयास जारी रहे और केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने की मांग के ज्ञापन पहुंचते रहे, लेकिन मामला सिरे चढ़ा नहीं। बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार के पास सिर्फ राजस्थानी ही नहीं बल्कि अन्य प्रदेशों की भाषाओं को मान्यता देने की मांग भी लंबित है।
राजस्थानी के साथ क्या समस्या ?
राजस्थानी के साथ एक बहुत बड़ी समस्या ये भी आ रही है कि प्रदेश में अंचल के अनुसार राजस्थानी को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। प्रदेश के जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर इलाकों में मारवाड़ी बोली जाती है। वहीं उदयपुर-भीलवाड़ा क्षेत्र में मेवाड़ी, बांसवाड़ा-डूंगरपुर क्षेत्र में बागड़ी, वहीं जयपुर कोटा-बूंदी क्षेत्र में हाड़ौती का वर्चस्व है। इसी तरह सीकर-झुंझनू में शेखावाटी और भरतपुर-करौली-सवाईमाधोपुर में बृज भाषा चलती है।
मारवाड़ी भाषा को मान्यता दिलाने की मांग
राजस्थानी भाषा को मान्यता देने के लिए जो लोग आंदोलन चला रहे हैं। वे ज्यादातर मारवाड़ी भाषा को मान्यता दिलाने की मांग उठा रहे हैं जो प्रदेश के उत्तर पश्चिमी हिस्से में बोली जाती है। मारवाड़ी को मूल राजस्थानी भाषा बताने वालों का दावा है कि राजस्थान के प्राच्य विद्या संस्थानों में पौने 4 लाख से ज्यादा पांडुलिपियां मौजूद हैं जो पूरे हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा हैं। वहीं कर्नल जेम्स टॉड (1829) ने अपनी ऐतिहासिक किताब एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान में जिस राजस्थान शब्द का इस्तेमाल किया, वो मूलत: रजथान शब्द से निकला था। इसका मतलब रज यानी रेत का स्थान था और यहां की भाषा थी रजथानी, इसका मानना रेगिस्तान में बोली जाने वाली भाषा से ही था। प्रदेश के बाकी अंचलों के रहने वाले लोग इसे स्वीकार करने के लिए आसानी से तैयार नहीं हैं। सबसे बड़ा विरोध बृज और वागड़ी बोलने वालों का है। भरतपुर में तो राजस्थानी भाषा संकल्प विरोधी समिति तक बनी हुई है। इनका कहना है कि जिस भाषा को मान्यता दिलाने की बात कही जा रही है। उसमें और जो भाषा हम बोलते हैं उसमें बहुत बड़ा अंतर है। ये अपने आप में एक बहुत बड़ा विवाद है और इसका समाधान अब तक नहीं ढूंढा जा सका है।