BHOPAL. सहकारी समितियों के चुनाव टालती आ रही बीजेपी सरकार ने संगठन के सुझाव के बाद नया रास्ता ढूंढ निकाला है। सरकार प्रशासकों की जगह बीजेपी के सहकारी नेताओं को मनोनीत करेगी। इसके लिए सहकारी समितियों में गैरप्रशासनिक और बिना निर्वाचन ही पार्टी के सक्रिय कार्यकताओं को बैठाने का मसौदा भी तैयार कर चुकी है। बीते महीने संगठन और सरकार के बीच इसको लेकर मैराथन बैठक भी हो चुकी है। वहीं संगठन ने जिलों में सक्रिय सहकारी क्षेत्र के नेताओं के नामों का पैनल भी मांगा है। जिला इकाई स्थानीय स्तर पर सहमति के बाद जो पैनल भेजेगी उसमें तीन से पांच नेताओं के नाम होंगे। प्रदेश स्तर पर इन्हीं में से एक का नाम समिति का प्रशासक बनाने चुना जाएगा। यानी सहकारी क्षेत्र के नेटवर्क पर भी बीजेपी अपनी पकड़ मजबूत करने का खाका खींच चुकी है। इसे कई जिलों में सहकारिता पर कांग्रेस की मजबूत पकड़ को ढीला करने की रणनीति भी बताया जा रहा है।
सक्रिय नेताओं की राजनीति भी ठप हो चुकी
मध्यप्रदेश में सहकारिता क्षेत्र गांव-गांव में लाखों किसानों तक फैला हुआ है। इससे सीधे तौर पर 50 लाख से ज्यादा किसान और उनके परिवार भी जुड़े हैं। यानी प्रदेश में सहकारी क्षेत्र बहुत व्यापक है। बावजूद इसके बीते 11 सालों से प्रदेश में सहकारी क्षेत्र की संस्थाओं के चुनाव ही नहीं कराए गए हैं। सहकारी समितियां भंग पड़ी हैं और इनकी कमान प्रशासक के रूप में सरकारी अधिकारियों के पास है। सहकारिता चुनाव न होने के कारण इस क्षेत्र में सक्रिय नेताओं की राजनीति भी ठप हो चुकी है और कई नेता तो अपना अस्तित्व ही खो चुके हैं। सरकार बार-बार सहकारी समितियों के चुनाव टालती आ रही है। यह स्थिति तब और भी चिंताजनक हो जाती है, जबकि सरकार की कई महत्वपूर्ण योजनाओं का लाभ इन्हीं समितियों के माध्यम से किसान और अंचल के लाखों ग्रामीणों तक पहुंचता है।
समितियां संभालती हैं खाद-बीज से लेकर राशन वितरण
किसानों को रियायती दर पर उपलब्ध खाद-बीज से लेकर राशन वितरण तक का कामकाज सहकारी समितियों के माध्यम से ही होता है। अंचलों में कुछ गांवों को मिलाकर या पंचायत स्तर पर स्थानीय किसानों को जोड़कर समिति बनती है। इसके सदस्य किसान अपने बीच से प्रतिनिधि चुनकर भेजते हैं जो क्षेत्रीय सहकारी बैंक, जिला सहकारी बैंकों का संचालक मंडल बनाते हैं। इन्हीं के बीच से राज्य सहकारी बैंक यानी अपेक्स बैंक के संचालक मंडल में प्रतिनिधि पहुंचते हैं। यानी सहकारिता के माध्यम से किसान गांव से लेकर राज्य स्तर तक आपस में जुड़े होते हैं। सरकार के सहकारिता विभाग की योजनाओं का क्रियान्वयन इन्हीं बैंक और समितियों के जरिए होता है।
प्रशासकों की कार्यशैली से असंतुष्ट प्रदेश के किसान
प्रदेश में आखिरी बार सहकारिता के चुनाव साल 2013 में हुए थे। इनका कार्यकाल साल 2018 में पूरा हो चुका है। जिसके बाद से प्रदेश में 55 हजार से ज्यादा समितियां और सहकारी बैंकों के संचालक मंडल भंग हैं। इस स्थिति में शासन द्वारा नियुक्त प्रशासनिक अधिकारी प्रशासक के रूप में काम संभाल रहे हैं। वहीं अपने बीच के प्रतिनिधि न होने से कई समितियां डिफॉल्टर हो चुकी हैं। अतिरक्त भार होने के कारण अधिकारियों की रुचि किसानों से जुड़ी समस्याओं को सुलझाने में नहीं होती। इस वजह से खाद-बीज वितरण से लेकर राशन वितरण में गड़बड़ी की शिकायतों में बीते कुछ वर्षों में खासा इजाफा हुआ है। समय पर खाद-बीज उपलब्ध नहीं होने और सहकारी सेक्टर से मिलने वाले फायदों से वंचित होने के कारण किसानों में भी नाराजगी बढ़ रही है।
मैराथन बैठकों के बाद बना नया फार्मूला
प्रदेश के सात साल से चुनाव नहीं होने की वजह से सहकारी क्षेत्र के नेता इस मामले को हाईकोर्ट ले जा चुके हैं। जहां सुनवाई चल रही है, लेकिन सरकार कभी विधानसभा तो कभी लोकसभा चुनाव की आचार संहिता और हाल ही में मानसून के साथ ही खरीफ सीजन की खेती में किसानों की व्यस्तता का हवाला देकर चुनाव टालती आ रही है। बीते महीने सहकारिता विभाग ने मतदाता सूची तैयार करने के निर्देश दिए थे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। बढ़ते दबाव के बीच बीजेपी सरकार और संगठन ने सहकारिता क्षेत्र पर कांग्रेस की पकड़ ढीली करने की रणनीति तैयार कर ली है। इसके लिए प्रदेश कार्यालय में बीते महीने प्रदेश पदाधिकारियों और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच लंबा मंथन भी हो चुका है। संगठन बीजेपी के सहकारी नेताओं को समितियों में काबिज कराते हुए एक तीर से कई निशाने साधने की तैयार कर चुकी है। इससे सहकारिता में सक्रिय बीजेपी नेताओं का पुनर्वास होगा और अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस नेता भी सहकारी संस्थाओं से दूर हो जाएंगे। वहीं समितियों की कमान अपने हाथ में आने से बीजेपी ग्रामीण क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को भी उपकृत पाएगी।
...तो सहकारिता पर मजबूत होगी पकड़
कार्यकर्ताओं को प्रशासक बनाने के मसौदे पर बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा, सीएम डॉ. मोहन यादव, सहकारिता मंत्री विश्वास सारंग प्रदेश पदाधिकारियों से चर्चा कर चुके हैं। इसको लेकर त्रिस्तरीय बैठकों में भी सभी ने सहमति दे दी है। बीजेपी का सहकारिता प्रकोष्ठ भी चुनाव की जगह अपने कार्यकर्ताओं को सहकारी समितियों की कमान सौंपने के प्रस्ताव पर सहमत हैं। प्रदेश स्तर पर सहमति के बाद जिला इकाइयों को समितियों के प्रशासक के तौर पर मनोनयन के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं के नामों के पैनल भेजने के निर्देश भी दिए गए हैं। जिला इकाइयां तीन से पांच सक्रिय कार्यकर्ताओं के पैनल भोपाल भेजेंगे। इनमें से प्रशासक के लिए नाम का चयन प्रदेश कार्यालय करेगा। सहकारिता प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक मोहनलाल राठौर ने भी संगठन और सरकार के बीच इस प्रस्ताव पर सहमति जताई है। उनका कहना है इसका लाभ पार्टी को मिलेगा और सहकारिता के माध्यम से बीजेपी अपनी पैठ को गरीब वर्ग और किसानों में और मजबूत कर पाएगी। समितियों के प्रशासक की भूमिका में आने वाले सक्रिय कार्यकर्ता नए सदस्यों को जोड़ेंगे जिससे होने वाले चुनावों में भी पार्टी को फायदा होगा।
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