मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में निचली अदालत के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें अभियोजन पक्ष की ओर से जिरह के आरोपी के अधिकार को प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह मामला एक ऐसे आरोपी से संबंधित है, जिसमें बलात्कार के आरोपी ने पीड़िता के बयानों पर जिरह के लिए बार-बार स्थगन मांगा, जिससे गवाह को असुविधा और परेशानी का सामना करना पड़ा।
रायसेन के बेगमगंज थाना अंतर्गत रहने वाले तुलसीराम पर बलात्कार का आरोप लगा था। जिस मामले में कोर्ट में चल रही सुनवाई में आरोपी की ओर से पीड़िता की गवाही पर जिरह करने के लिए बार-बार समय लेकर उसे टाला जा रहा था। अदालत ने माना कि आरोपी के यह बार-बार स्थगन मांगने का उद्देश्य गवाह को परेशान करना और मामले में जानबूझकर देरी करना था।
जस्टिस जीएस अहलूवालिया की पीठ का आदेश
मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस जीएस अहलूवालिया की एकल पीठ ने कहा कि अभियुक्त द्वारा लगातार स्थगन की मांग को एक स्पष्ट देरी करने की रणनीति माना जा सकता है, जिससे गवाहों को अनावश्यक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अदालत ने इस निर्णय में जोर दिया कि न्यायालयों को स्थगन का अधिकार बिना किसी औचित्य के नहीं देना चाहिए और उन्हें गवाहों की कठिनाइयों को ध्यान में रखना चाहिए।
अभियोक्त्री से जिरह न होने पर क्षति का तर्क खारिज
अभियुक्त ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करते हुए तर्क दिया कि यदि उसे अभियोक्त्री से जिरह करने का अधिकार नहीं दिया गया, तो उसे अपूरणीय क्षति होगी, लेकिन कोर्ट ने पाया कि इस स्थिति के लिए स्वयं आरोपी जिम्मेदार है। कोर्ट ने कहा कि आवेदक ने जानबूझकर देरी करने और गवाह को परेशान करने की मंशा से स्थगन की मांग की। उच्च न्यायालय ने कहा कि वकील बदलना कोई उचित आधार नहीं है, जिससे जिरह के लिए बार-बार स्थगन की अनुमति दी जा सके। क्योंकि आवेदक को पहले से अगली सुनवाई की तिथि का पता था।
देरी करने की रणनीति को स्वीकार नहीं किया जा सकता : हाइकोर्ट
अदालत ने अपने आदेश में उल्लेख किया कि आवेदक द्वारा लगातार स्थगन की मांग अभियोक्ता को परेशान करने के उद्देश्य से की गई थी। इस प्रकार की देरी करने की रणनीति न्यायिक प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ के समान है और इसे मंजूरी नहीं दी जा सकती। अदालत ने यह भी कहा कि वकील बदलने का कारण स्थगन का पर्याप्त आधार नहीं बन सकता, क्योंकि आवेदक को पहले से अगली पेशी की तिथि के बारे में जानकारी थी और उसे इस संबंध में अपनी तैयारी कर लेनी चाहिए थी।
बार-बार स्थगन के कारण हुआ अधिकार का निष्कासन
मामले के दस्तावेजों के अनुसार, अभियोजन पक्ष का मुख्य क्रॉस एग्जामिनेशन 9 फरवरी को हुआ था और इसके बाद बचाव पक्ष के वकील ने जिरह को स्थगित करने की मांग की, जिसे अदालत ने 23 फरवरी तक के लिए स्वीकार कर लिया। फिर भी, इस तिथि पर भी कोई कारगर प्रयास नहीं किया गया और अगली पेशी में आवेदक द्वारा वकील बदलने का कारण बताते हुए फिर से जिरह के लिए समय मांगा गया। कोर्ट ने अभियोजन पक्ष की परेशानी और देरी को ध्यान में रखते हुए आवेदक के जिरह करने के अधिकार को समाप्त कर दिया।
उच्च न्यायालय ने किया याचिका खारिज
अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि गवाह को परेशान करने और केस में जानबूझकर देरी करने की मंशा से किए गए प्रयासों को अदालत बर्दाश्त नहीं कर सकती। इस निर्णय के साथ, उच्च न्यायालय ने आवेदक की याचिका को खारिज कर दिया और निचली अदालत के आदेश को पूरी तरह से जायज ठहराया।
इस निर्णय से न्यायपालिका ने यह संदेश दिया कि गवाहों को परेशान करने या न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक देरी करने की कोशिशों को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
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