जिसकी आशंका थी, आखिर वही हो गया। हम बात कर रहे हैं मध्यप्रदेश में अगले महीने होने वाले सहकारी समितियों के चुनाव की। सहकारिता विभाग के मैदानी अमले से लेकर मुख्यालय में बैठे अधिकारियों की बेरुखी के चलते एक बार फिर चुनाव टल गए हैं। प्रदेश में आखिरी बार साल 2013 में सहकारी समितियों के चुनाव हुए थे। वर्ष 2018 में कार्यकाल पूरा होने के बाद से प्रदेश में सहकारी समितियों से लेकर जिला और राज्य सहकारी बैंक प्रशासकों के भरोसे हैं। यानी छह साल से चुनाव न होने से इन संस्थाओं में प्रतिनिधियों का दखल खत्म हो गया है। अधिकारियों की मनमानी जारी है। सहकारी समितियों के जरिए मिलने वाली सुविधाओं से किसान परिवार वंचित हैं। वहीं सरकार की सहकारी क्षेत्र की योजनाएं भी बेदम पड़ी हैं।
4534 समितियों से जुड़े हैं 50 लाख किसान
सबसे पहले बात सहकारिता क्षेत्र के मूल यानी की जड़ की करते हैं। प्रदेश में 4 हजार 534 प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियां हैं, जिनसे 50 लाख से ज्यादा किसान जुड़े हैं। इसका मतलब इतने किसान इन समितियों के सदस्य हैं। वहीं सहकारिता विभाग की सभी योजनाओं का संचालन इन्हीं सहकारी समितियों के माध्यम से होता है। 2013 में प्रदेश में सहकारी समितियों के चुनाव हुए थे। जिनका कार्यकाल साल 2018 में पूरा हो चुका है, लेकिन तब से अब तक समितियों के चुनाव ही नहीं कराए गए हैं। यानी सहकारिता योजनाओं को किसानों तक पहुंचाने वाली समितियों तब से भंग हैं। सहकारी क्षेत्र के नेता कई बार सरकार से समितियों के चुनाव कराने की मांग करते आ रहे हैं। सरकार भी हर बार भरोसा दिलाती है और फिर चुनाव टाल देती है।
2018 से लगा है सहकारिता चुनाव में अड़ंगा
सरकार के आश्वासन के बावजूद सहकारी समितयों के चुनाव छह साल से अटके हुए हैं। बार-बार जल्द चुनाव कराने की बात सररकार करती आ रही है, लेकिन प्रक्रिया शुरू होते ही उस पर ब्रेक लगा दिया जाता है। आखिर वह कौन है जो सहकारी समितियों के चुनाव की राह में रोड़े अटका रहा है। कौन है, जो नहीं चाहता सहकारी संस्थाओं में राजनीतिक दखल बढ़े। सहकारिता मुख्यालय से लेकर मैदानी अधिकारियों में भी चुनाव कराने की दिलचस्पी ही नहीं दिख रही। इसके कारण चुनाव की प्रक्रिया शुरू ही नहीं हो पा रही है।
बेपटरी अपेक्स और सहकारी बैंकों की व्यवस्था
प्राथमिक समितियों के चुनाव न होने से जिला और राज्य सहकारी बैंक यानी अपेक्स बैंक में बोर्ड भंग पड़े हैं। लगातार उठ रहीं मांग को देखते हुए सरकार के आदेश पर सहकारी समितियों के चुनाव की घोषणा पिछले महीने की गई थी। सरकार द्वारा सहकारी समितियों के चुनाव कराने निर्वाचन प्राधिकारी की नियुक्ति करते हुए जून से सितम्बर के पहले सप्ताह तक चुनाव कराए जाने थे। इसके लिए जो कैलेंडर जारी किया गया था उसमें 8, 11, 28 अगस्त और 4 सितम्बर को मतदान कराया जाना था। वहीं अगस्त शुरू होने से पहले समिति सदस्यों की निर्वाचन सूची यानी मतदाता सूची तैयार की जानी थी। सरकार के आदेश के बाद भी सहकारिता विभाग मतदाता सूची तैयार नहीं करा सका।
किसानों के माथे फोड़ा अपनी गलती का ठीकरा
चुनाव की तैयारी में पिछड़े सहकारिता विभाग के अफसर इसके लिए किसानों को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। निर्धारित अवधि में मतदाता सूची तैयार करने में विफल अफसर अब लोकसभा चुनाव और खरीफ सीजन की बोवनी के चलते किसानों की व्यस्तता की दलील दे रहे हैं। सहकारिता आयुक्त आलोक कुमार सिंह का कहना है वे समय पर मतदाता सूची बनाकर उसका सत्यापन नहीं करा पाए हैं इस वह से निर्धारित कैलेंडर के आधार पर चुनाव नहीं हो सकते। सहकारिता मुख्यालय अब मानसून के बाद यानी अक्टूबर-नवम्बर में सहकारी समितियों के चुनाव कराने की सफाई दे रहा है। हांलाकि इसे लेकर भी अभी तक स्थिति स्पष्ट नहीं हैं।
छह साल से टाले जा रहे समितियों के चुनाव
प्रदेश के सहकारी समितियों का कार्यकाल साल 2018 में खत्म होने के बाद ये भंग कर दी गई थीं। इसके बाद सरकार द्वारा जिला सहकारी बैंक और राज्य सहकारी बैंक के बोर्ड को भंग किया गया। अब इनका संचालन सरकार द्वारा बैठाए गए प्रशासक कर रहे हैं। यानी छह साल से समितियों से लेकर राज्य सहकारी बैंक को अफसर ही चला रहे हैं। जबकि नियमानुसार बोर्ड भंग होने के बाद पहली बार में छह माह और दूसरी बार में एक साल के लिए ही प्रशासक बैठाए जा सकते हैं। साल 2018 में कार्यकाल पूरा होने के बाद सहकारी समितियों के चुनाव कराए जाने थे। इस बीच विधानसभा चुनाव की घोषणा कर दी गई। चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी पर तत्कालीन सीएम कमलनाथ ने भी चुनाव नहीं कराए। डेढ़ साल बाद सरकार गिरने पर शिवराज सिंह चौहान फिर सीएम बने तो उन्होंने ने भी चुनाव टाल दिए। 2023 में फिर विधानसभा चुनाव हुए और डॉ.मोहन यादव सीएम बने, लेकिन उन्होंने भी सुध नहीं ली। अब सहकारी क्षेत्र के नेताओं ने चुनाव की मांग करते हुए हाईकोर्ट की शरण लेनी पड़ी है।
सरकार की योजनाओं से वंचित किसान
किसानों को खेती के लिए खाद, बीज ही नहीं कृषि यंत्र भी सहकारी समितियों के जरिए रियायती कीमत पर मिलते हैं। वहीं जरूरत की स्थिति में सहकारी बैंक से उन्हें कम ब्याज पर ऋण भी उपलब्ध हो जाता है। समितियां भंग होने से किसानों के प्रतिनिधि जिला और सहकारी बैंकों में नहीं हैं। इस कारण किसानों की सुनवाई इन संस्थाओं में नहीं हो रही है। किसानों को अपने छोटे- छोटे काम और रियायत के लिए चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। अफसर उनकी सुनवाई ही नहीं कर रहे, जबकि समितियों के अस्तित्व में होने की हालत में उन्हें यह संघर्ष नहीं करना पड़ता। सहकारी समिति चुनाव पर सरकार और विभाग की बेरुखी पर जहां विपक्षी दल कांग्रेस दबाव बना रहा है। वहीं सहकारी क्षेत्र के नेताओं ने हाईकोर्ट में अपील भी कर दी है।
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