विवेक तन्खा बोले- देश को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत, कांग्रेस को अपनी कमियां दूर करनी होंगी

कांग्रेस सांसद विवेक कृष्ण तन्खा संसद में संवैधानिक मुद्दों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर रहे हैं। द सूत्र के एडिटर इन चीफ आनंद पांडे ने उनसे अदालत, सियासत और समाजसेवा पर बातचीत की, जिसके उन्होंने बेबाकी से जवाब दिए।

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Photograph: (the sootr)

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न्याय में देरी, अन्याय के समान है... 
यह विचार ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विलियम ग्लैडस्टन का है।
और
राजनीति में नैतिकता का स्थान सर्वोपरि होना चाहिए... 
यह आदर्श महात्मा गांधी का है।

इन दोनों महानताओं के विचारों को अपने जीवन में जीने वाले विरले ही लोग हैं और इन्हीं में से एक नाम है, विवेक कृष्ण तन्खा...जो अदालत की गंभीरता, संसद की गरिमा और समाज के प्रति समर्पण का त्रिकोण बनाते हैं।

तन्खा ने अपने करियर की शुरुआत वकालत से की और 40 वर्ष की उम्र में प्रदेश के सबसे युवा महाधिवक्ता बने। वे भारत सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के पद पर भी रहे, जो मध्य प्रदेश से इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले वकील थे।​

राज्यसभा में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करते हुए, वे संसद में संवैधानिक मुद्दों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर रहे हैं। द सूत्र के एडिटर इन चीफ आनंद पांडे ने तन्खा से अदालत, सियासत और समाजसेवा पर बातचीत की, जिसमें तन्खा से बेबाकी से जवाब दिए। उन्होंने कहा, देश को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत है। कांग्रेस को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। उन्होंने अदालतों के गतिरोध, ज्यूडिशरी में भाई भतीजावाद जैसे ​मामलों पर भी अपनी बात रखी।

पढ़िए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू...

सवाल: पहले फिल्मों से लेकर आम बातचीत तक, ये लाइन सुनने को मिलती थी कि "आई विल सी यू इन द कोर्ट"। मतलब लोगों को भरोसा था कि कोर्ट से न्याय मिलेगा। अब ऐसा लगता है कि समाज में न्याय व्यवस्था को लेकर भरोसा डगमगाया है। खुद जज भी कहने लगे हैं कि गरीबों के लिए न्याय पाना बेहद मुश्किल हो गया है। आप इस स्थिति को कैसे देखते हैं?

विवेक तन्खा: आपने जो कहा, उसमें काफी हद तक सच्चाई है, लेकिन मैं इसे पूरी सच्चाई नहीं कहूंगा। दरअसल, हमारा सिस्टम चाहे वो न्यायिक हो या संसदीय...ट्रस्ट पर टिका हुआ है। जब लोगों का इस सिस्टम से भरोसा उठता है, तो पूरे ढांचे को झटका लगता है।

अभी हाल ही में जस्टिस यशवंत वर्मा का जो मामला सामने आया है, उसने न्यायपालिका पर बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। रिपोर्ट अभी आई नहीं है, लेकिन देरी ने ही लोगों को बेचैन कर दिया है। उपराष्ट्रपति तक ने टिप्पणी कर दी, जो पहले सोचा भी नहीं जा सकता था।

आज देश में 3.5 करोड़ से भी ज्यादा केस पेंडिंग हैं। इसका जवाब हमें देना होगा, क्योंकि इंसाफ का उपभोक्ता जनता है, न कि सिर्फ जज और वकील। आपने देखा होगा कि जिला अदालतों में आम आदमी के लिए न बैठने की जगह होती है, न पीने का पानी। जबकि वकीलों और जजों के लिए पूरी सुविधा है।

अगर मैं लॉ मिनिस्टर होता, तो सबसे पहले यही चीजें बदलता। पर अफसोस, हमारे देश में चर्चा होती है बस उन मुद्दों पर जो कोर्ट को लेकर विवाद खड़े करें, ताकि सरकार बता सके कि देखो, हमने ये किया।

बीजेपी बार-बार कोर्ट को राजनीति का मंच बना रही है। मैं खुद अमित शाह से कहता था जब वो संसद में बोलते थे कि कश्मीर नॉर्मल हो गया है तो मैं पूछता था, अगर कश्मीरी पंडित अब भी नहीं लौट पा रहे हैं, तो नॉर्मल कहां से हो गया? कश्मीर के नाम पर वोट मांगना ठीक नहीं। एक नेता का नजरिया संवेदनशील और राष्ट्रहित में होना चाहिए, सिर्फ अपनी जीत के लिए नहीं।

द सूत्र के एडिटर इन चीफ आनंद पांडे संग कांग्रेस सांसद विवेक कृष्ण तन्खा

सवाल: ऐसा लग रहा कि इस हालात के लिए आप सीधे तौर पर बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार मानते हैं। लेकिन क्या ये डिटोरेशन हाल-फिलहाल की बात है? लोगों का भरोसा तो लंबे समय से डगमगा रहा है।

विवेक तन्खा: मैं किसी सरकार को पूरी तरह दोष नहीं दे रहा। हां, हाल के कुछ उदाहरण जरूर परेशान करते हैं, लेकिन ये प्रक्रिया नई नहीं है। इंदिरा गांधी के समय भी जजों का सुपरसेशन हुआ था, इमरजेंसी लगी थी।

मेरे पिताजी खुद जज थे। मैंने वो समय भी देखा है। मेरा राजनीति में रहना केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि रूल आफ लॉ को कायम रखने के लिए है। पार्टी मेरे लिए साधन है, लक्ष्य है देश। 

सवाल: तो क्या आपको लगता है कि न्यायपालिका को भी खुद में झांकने की जरूरत है?

विवेक तन्खा: बिलकुल। हर कोई introspection करे, जज भी, वकील भी और सिस्टम भी। आप देखिए, कितनी बार वकील हड़ताल पर चले जाते हैं। किसी निर्दोष की बेल अटक जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने खुद इस पर नाराज़गी जताई, लेकिन कोई असर नहीं पड़ा।
मैं इसे लीगल लॉलेसनेस कहता हूं। जब तक हम इस अनुशासनहीनता को रोकेंगे नहीं, तब तक कोई सुधार नहीं होगा।

सवाल: क्या आपको लगता है कि नेताओं और जजों के बीच एक पावर गेम चल रहा है?

विवेक तन्खा: कॉन्फ्लिक्ट नहीं है। अब जैसे वक्फ एक्ट आया। विवादित एक्ट है। कई इसके प्रोविजंस पर हम लोगों को लगता है कि कॉन्स्टिट्यूशनली वो संभव नहीं थे। अब वो मैटर कोर्ट पहुंचता है, तो कोर्ट को उसको सुनना तो पड़ेगा। फिर ऐसे प्रोविजंस, जैसे आपने कलेक्टर को टाइटल डिसाइड करने का हक दे दिया। क्या आज के कलेक्टर इस काबिल हैं कि वो टाइटल डिसाइड कर सकें? या उनके पास टाइम है? ये तो मजाक है ना। जब सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, आप वो चीज करो जो आप सबके लिए करते हो। अगर हिंदुओं, बौद्ध, सिख, ईसाई की ट्रस्टों और फाउंडेशंस में आप दूसरे जाति के लोगों को नहीं रख सकते, तो मुस्लिम में क्यों रख रहे हो? इससे आप झगड़ा पैदा करते हो। और इस झगड़े का क्या फायदा? हमको देश को आगे बढ़ाना है।

सवाल: कॉलेजियम बनाम NJAC की बहस भी जोर पकड़ रही है। क्या NJAC आपको ज्यादा पारदर्शी विकल्प लगता है?

विवेक तन्खा: बिलकुल। NJAC अगर ठीक से लागू हो, तो ये कॉलेजियम से बेहतर है, पर आज की सरकार की सोच ये है कि सिर्फ उन्हीं लोगों को जज बनाओ, जो उनकी विचारधारा से मेल खाते हों...न कि स्वतंत्र सोच वाले। नाम सालों तक अटका दिए जाते हैं। इस रवैये ने लोगों का भरोसा तोड़ा है। हम चाहते हैं कि NJAC हो, लेकिन उसमें सुप्रीम कोर्ट और जुडिशरी की भी मजबूत भागीदारी हो, क्योंकि सरकार खुद सबसे बड़ी पार्टी होती है कोर्ट में। अगर वही जज नियुक्त करने लगे, तो निष्पक्षता कैसे बचेगी?

कॉलेजियम की भी खामियां हैं। भाई-भतीजावाद के आरोप लगते हैं। 33 में से 11 नाम रिश्तेदारों के थे, ये सही नहीं। तो रास्ता क्या है? जैसा UK में है। वहां जजों की नियुक्ति में सरकार का दखल नहीं होता। बार एसोसिएशन, बार काउंसिल, जो लॉ फील्ड को अच्छे से समझते हैं, उनकी राय ली जाती है। हमें भी ऐसा ही मॉडल चाहिए, जिसमें सरकार न तो दबाव बना सके और न ही मनमानी कर सके।

सवाल: जुडिशियरी में अंकल जज जैसी धारणा को लेकर काफी चर्चा है। क्या ये सिर्फ एक धारणा है या गंभीर समस्या? इसका हल क्या हो सकता है?

विवेक तन्खा: यह सिर्फ धारणा नहीं, बल्कि एक तरह की बीमारी बन चुकी है, जो लगभग हर कोर्ट में फैली है। समाधान बहुत सीधा है। अगर किसी जज के नजदीकी रिश्तेदार उसी कोर्ट में वकालत कर रहे हैं, तो उस व्यक्ति को उसी कोर्ट में जज नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। मसलन, मेरा बेटा जबलपुर में प्रैक्टिस करता है, तो मुझे वहां जज नहीं बनना चाहिए जब तक वह प्रैक्टिस कर रहा है। यह होना तो चाहिए, लेकिन होता नहीं। असली दिक्कत है कि इस तरह के नियम बनाने या लागू करने में लोगों की कोई रुचि नहीं है, क्योंकि इससे निजी हित टकराते हैं। कॉलेजियम सिस्टम में भी एक किस्म का स्टेट कंट्रोल बना रहता है, जो गलत है। जज नेता नहीं होते, न ही उन्हें लोकप्रियता की चिंता करनी चाहिए। जजों का काम है सिर्फ न्याय देना और सिस्टम में सबसे योग्य लोगों को जगह देना। आज तीन करोड़ केस पेंडिंग हैं और किसी क्रिमिनल अपील पर बहस 20 साल से नहीं हो पाई है। ये सिलसिला नहीं रुका, तो न्यायपालिका से लोगों का भरोसा पूरी तरह खत्म हो जाएगा। मैंने सरकार से कई बार कहा कि संसद के तीन या पांच दिन सिर्फ जुडिशियल रिफॉर्म्स पर रखिए, सभी सुझाव बुलाइए, डिबेट कराइए, लेकिन सुनता कौन है? इस देश में समझदारों की कोई सुनता नहीं।

सवाल: आप अदालत में भी मुखर हैं और संसद में भी। कहां आपको ज्यादा स्पेस मिलता है?

विवेक तन्खा: आज के वक्त में अदालत में ज्यादा स्पेस मिलता है। संसद में दो बड़ी दिक्कतें हैं। पहली, पार्टी आपको स्पीकर बनाए या न बनाए, उसके लिए मेहनत करनी पड़ती है। पहले मुझे ज्यादा मौके मिलते थे, अब कम मिलते हैं, कारण जो भी हों। दूसरी, आज की संसद में बीजेपी ने विपक्ष के लिए स्पेस लगभग खत्म कर दिया है। पहले ऐसा नहीं था। पुराने जमाने में विपक्ष को पूरा मंच मिलता था। आज विपक्ष की 80% बातें खारिज कर दी जाती हैं। मैंने चेयरमैन को प्रस्ताव दिया कि ब्रिटिश संसद की तरह एक दिन विपक्ष को दिया जाए, ताकि विपक्ष अपनी बात खुलकर कह सके। हफ्ते में चार दिन सरकार का एजेंडा चले, लेकिन एक दिन विपक्ष का भी हो। इससे सिस्टम में संतुलन बना रहेगा। जब विपक्ष की बात सुनी ही नहीं जाती, तो लोकतंत्र एकपक्षीय हो जाता है और यह किसी लोकतंत्र के लिए घातक है।

सवाल: कांग्रेस की हालत लगातार खराब होती जा रही है। चुनाव दर चुनाव पार्टी हारती जा रही है। क्या वजह है? कॉस्मेटिक बदलाव से सुधार होगा या गहराई में ऑपरेशन करना पड़ेगा?

विवेक तन्खा: इस विषय पर मैं पब्लिक में बात करने के बजाय पार्टी के भीतर रिफॉर्म्स की बात करना उचित समझता हूं। लेकिन एक लोकतांत्रिक सोच रखने वाला व्यक्ति होने के नाते मैं यह जरूर कहूंगा कि देश को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत है। कांग्रेस को अपनी कमियों को दूर करके खुद को उस भूमिका के लिए तैयार करना होगा।

सवाल: गठबंधन की नीति ने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। क्या आपको लगता है कि रीजनल पार्टियों से दूरी बनाकर ही कांग्रेस पैन इंडिया पार्टी बन सकती है?

विवेक तन्खा: मजबूत लोकतंत्र के लिए दो बड़ी पार्टियों की जरूरत होती है। आज देश में सिर्फ दो ही पार्टियां हैं, जो राष्ट्रीय स्तर पर लड़ सकती हैं बीजेपी और कांग्रेस। हां, आज कांग्रेस कमजोर विपक्ष है, लेकिन इसका मतलब ये है कि हमें अपनी कमजोरियां दूर करके एक मजबूत विकल्प बनना होगा। रीजनल पार्टियों के साथ जरूरत से ज्यादा समझौता हमारी राष्ट्रीय हैसियत को कमजोर करता है।

सवाल: मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने पिछले सात साल में आठ प्रभारी बदले। क्या इससे फर्क पड़ेगा?

विवेक तन्खा: प्रभारी सिर्फ माध्यम होते हैं। असली लड़ाई तो राज्य के भीतर पीसीसी और कार्यकर्ताओं की होती है। हमें सभ्य समाज से कनेक्ट करना होगा। वकील, डॉक्टर, पत्रकार, उद्योगपति, ओपिनियन मेकर्स, ये सब कांग्रेस से दूर हो चुके हैं। जब तक ये लोग वापस नहीं आएंगे, तब तक पार्टी मजबूत नहीं हो सकती। ये लोग तब जुड़ेंगे, जब कांग्रेस बीजेपी की डिविसिव नैरेटिव के मुकाबले बेहतर नैरेटिव सामने लाएगी।

सवाल: पिछले चुनाव में क्या चूक रह गई? सबको लग रहा था कांग्रेस आ रही है, लेकिन परिणाम चौंकाने वाले थे।

विवेक तन्खा: मैंने चुनाव से पहले पार्टी हाईकमान को साफ कहा था कि हम ये चुनाव नहीं जीत रहे। मुझे यह तो दिख रहा था, लेकिन यह नहीं लगा था कि इतनी कम सीटें आएंगी। मुझे लगा था 95 सीटें आएंगी। इसके बहुत सारे कारण हैं। मैं उन कारणों में नहीं जाना चाहता। छत्तीसगढ़ के बारे में भी मैंने हाईकमान को बता दिया था कि शहर आपको वोट नहीं दे रहे। रायपुर, बिलासपुर आपको वोट नहीं कर रहा। गांव में आप जितनी सीट जीत जाओ, पर शहर नहीं दे रहा। अगर आप देखना चाहो, तो देख पाओगे। अगर इच्छा ही नहीं देखने की, तो कौन आपको दिखा सकता है? आज एक नया वक्त है। इस नए वक्त में नई ऊर्जा के साथ हमको एक नए मध्यप्रदेश की कल्पना करनी चाहिए।

सवाल: क्या पार्टी में ओवर कॉन्फिडेंस था? डीजी, चीफ सेक्रेटरी तक के नाम चलने लगे थे। कमलनाथ और सुरजेवाला के बीच सामंजस्य की कमी थी?

विवेक तन्खा: पुरानी बातों को बीती रहने दो। कमलनाथ जी बहुत वरिष्ठ व्यक्ति हैं, उनका अपना एक वक्त था। और उस वक्त में उन्होंने देश की बहुत सेवा की है। केंद्रीय मंत्री के रूप में...मुझे याद है कि मैं एक-एक मिनट में उनसे जबलपुर के लिए 300-300 करोड़ की रोड ले आता था। जो जबलबुर-भोपाल रोड का आवंटन एक सेकंड में हुआ था। जो कैबिनेट की बैठक जबलपुर में हुई थी, वो 2 मिनट में हुई थी। कमलनाथ, एक बड़े नेता थे, उनमें क्षमता थी। बट जब हम भी उनकी उम्र के हो जाएंगे, तो आप शायद हमारे बारे में भी यही बात करेंगे।

सवाल: आप जीतू पटवारी के कामकाज को कैसे आंकते हैं?

विवेक तन्खा: वो मेहनत कर रहे हैं, खूब दौड़-भाग कर रहे हैं। उन्हें भी एहसास है कि ये पर्याप्त नहीं है। वो मुझसे भी सुझाव मांगते हैं कि और क्या कर सकते हैं। लेकिन बदलाव रातों-रात नहीं आता। जब बदलाव 20-25 साल के पैटर्न को तोड़ना हो, तो संघर्ष भी लंबा होता है।

सवाल: क्या इस बार बदलाव आएगा? कांग्रेस सत्ता में लौटेगी?

विवेक तन्खा: एक कांग्रेस नेता के रूप में कहूं तो हां। लेकिन एक वरिष्ठ वकील और वस्तुनिष्ठ नागरिक के तौर पर कहूं तो अभी बहुत लंबा रास्ता बाकी है।

सवाल: डॉ. मोहन यादव के काम को आप कैसे देखते हैं?

विवेक तन्खा: वो सरल व्यक्ति हैं, लेकिन अभी उनका ध्यान उज्जैन और इंदौर पर ही केंद्रित दिखता है। यह धारणा बनी है कि उनका सारा प्रेम उन्हीं शहरों के लिए है। जब तक वे बाकी शहरों के लिए भी वही समर्पण नहीं दिखाते, यह धारणा बनी रहेगी और बदलाव अंदर से आना चाहिए।

सवाल: उमा भारती, बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह, और अब मोहन यादव...इन मुख्यमंत्रियों की शैली को कैसे देखते हैं?

विवेक तन्खा: हर एक की शैली अलग रही। उमा जी राम मंदिर आंदोलन की नेता थीं, भावनात्मक और टेंपरामेंटल। मैं उनका वकील भी रहा हूं, उन पर झूठे केस डाले गए थे। बाबूलाल गौर बहुत समझदार और भोपाल सेंट्रिक नेता थे, लेकिन राज्य स्तर पर असर नहीं था। शिवराज सिंह को सबसे लंबा कार्यकाल मिला, उन्होंने कोशिश की, लेकिन ब्यूरोक्रेसी पर सबकुछ छोड़ दिया और खुद सिर्फ प्रचार के हेड बनकर रह गए। 

सवाल: ओबीसी रिजर्वेशन को लेकर विवाद चल रहा है। हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में पेशी हो रही है। महाधिवक्ता पर आरोप लग रहे हैं। आप इसको कैसे देखते हैं? बतौर कांग्रेस लीडर और वरिष्ठ अधिवक्ता।

विवेक तन्खा: मैं थोड़ा बायस भी रहूंगा, क्योंकि मैं ओबीसी वर्ग का वकील भी था। हाई कोर्ट में मैंने उनकी पैरवी भी की। मेरा व्यू है कि जितनी ज्यादा रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट होगी, जितनी ज्यादा रिप्रेजेंटेटिव बॉडीज, इंस्टीट्यूशंस होंगे, उतना देश का भला होगा। अगर यूएसए में हर चीज सफेद लोगों को मिल जाए और कालों को नहीं, तो अच्छी बात होगी क्या? वाइट एंड ब्लैक का डिस्टिंक्शन इब्राहिम लिंकन ने खत्म किया। मैं चाहता हूं कि ओबीसी, एससी, एसटी, गरीब वर्ग को मैक्सिमम रिप्रेजेंटेशन मिले। दूसरा, योग्यता भी देखनी चाहिए। ये फाइन बैलेंसिंग तब हो सकती है, जब आप इसको पॉलिटिकल टूल ना देखो। हमारी प्रॉब्लम है कि हमने इन बातों को वोट बैंक के रूप में देखा। अगर हिंदुओं, मुसलमानों, ओबीसी को वोट बैंक बनाओगे, तो उनके साथ नाइंसाफी होगी।  

सवाल: जुडिशरी पे आज सबसे बड़ा खतरा क्या है?

सवाल: ओबीसी आरक्षण में कोई संशोधन लाएंगे, तो क्या होगा?

विवेक तन्खा: संशोधन की जरूरत नहीं। मध्यप्रदेश में 27% लॉ बन चुका है। सुप्रीम कोर्ट में 50% बेंचमार्क टेस्ट होगा। इंदिरा साहनी जजमेंट बदलना होगा या कॉन्स्टिट्यूशन अमेंडमेंट लाना होगा। ये वेक्स्ड इशू है।

सवाल: ऐसा केस जिसने आपको आत्मिक सुकून दिया?

विवेक तन्खा: मध्यप्रदेश में ट्राइबल्स के लिए 100% रिजर्वेशन का केस। शेड्यूल एरियाज में ट्राइबल ही बनेगा। जस्टिस धर्माधिकारी की बेंच में जीता। सुप्रीम कोर्ट में अपहोल्ड हुआ।

सवाल: लोगों को आपके बारे में सबसे बड़ी गलतफहमी?

विवेक तन्खा: यह बहुत बड़े वकील हैं। इनसे मिलना डिफिकल्ट होता है। इनका टाइम बहुत कीमती होता है।

सवाल: भारत के टॉप थ्री वकील?

विवेक तन्खा: कपिल सिबल, मुकुल रोहतगी, अभिषेक सिंघवी। 

सवाल: कोर्ट में बहस करना ज्यादा पसंद है या संसद में?

विवेक तन्खा: दोनों अलग चीज हैं। दोनों को एंजॉय करता हूं।

सवाल: एक दिन के लिए चीफ जस्टिस बनें, तो क्या फैसला लेंगे?

विवेक तन्खा: एक दिन में कुछ नहीं कर पाऊंगा। अगर बनता, तो लिबरल चीफ जस्टिस होता। वंचितों, माइनॉरिटीज को प्रोटेक्शन देता।

सवाल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम को कैसे देखते हैं?

विवेक तन्खा: कोई भी गवर्नमेंट के कुछ काम अच्छे होते हैं, कुछ नहीं। मोदी जी के कई काम अच्छे हैं, कई से डिसएग्री करते हैं। उनकी सरकार का एटीट्यूड कॉन्फ्रंटेशनल है। कंसेंचुअल होना चाहिए।

सवाल: समाज सेवा, वकालत, राजनीति में दिल के सबसे नजदीक क्या है?

विवेक तन्खा: वकालत, फिर समाज सेवा, लास्ट में राजनीति।

इंटरव्यू जीतू पटवारी कमलनाथ कांग्रेस मोदी द सूत्र विवेक तन्खा