मुख्यमंत्री के तौर पर डॉ. मोहन यादव को अभी एक साल भी पूरा नहीं हुआ है। इस बीच लोकसभा के चुनाव भी हुए हैं। चुनाव की आचार संहिता का असर भी उनके कामकाज पर पड़ा है। चुनाव की घोषणा से पहले के तीन माह डॉ. मोहन यादव के लिए तंत्र और व्यवस्था को समझने के लिए भी कम ही माने जा सकते हैं।
सरकार के भीतर जो लोग दशकों से काम कर रहे है,उनके लिए भी सिस्टम में काम करना चुनौतीपूर्ण होता है। राजनेता के लिए सिस्टम में करना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। आसानी से यह आरोप लगाए जाने लगते हैं कि नौकरशाही हावी है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव अब तक शिवराज सिंह चौहान द्वारा बनाए गए सिस्टम में ही काम कर रहे हैं। वही मुख्य सचिव और वही पुलिस महानिदेशक।
आमतौर पर होता यह है कि मुख्यमंत्री के पद पर बैठने वाला राजनेता प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए सबसे पहले शीर्ष पदों पर बैठे अफसरों को हटाकर नए सामने ले आता है। इसका असर यह होता है कि जो लोग सिस्टम से नाराज हैं,उन्हें परिवर्तन में बदलाव की उम्मीद दिखाई देती है। कोरोना काल में भाजपा के पास जिन परिस्थितियों में सरकार आई, वह नैतिक मूल्यों से कोसों दूर की थी। इस कारण लगभग साढ़े तीन साल शिवराज सिंह चौहान ने सरकार पूरी तरह से अपनी मनमर्जी पर चलाई। सुशासन की जो नीतियां चौहान सरकार के दूसरे कार्यकाल में बनी थीं,वह भी चौथे कार्यकाल में ध्वस्त होते देखी गईं। प्रशासन ने भी मुंह देखा व्यवहार किया।
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विधानसभा चुनाव के बीच जब इकबाल सिंह बैंस ने अगली छह माह की सेवावृद्धि लेने से इनकार कर दिया, तब शिवराज सिंह चौहान ने वीरा राणा को प्रभार देते वक्त यह संदेश देने की भरपूर कोशिश की थी कि मुख्य सचिव का पद वरिष्ठता नहीं कृपा के आधार पर दिया जा रहा है। वीरा राणा राज्य में सेवाएं दे रहे आईएएस अफसरों में सबसे वरिष्ठ थीं, इस कारण चुनाव आयोग ने ही उनका चयन मुख्य सचिव के तौर पर किया था।
शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री नहीं बने। डॉ. मोहन यादव को कमान मिली तो उन्होंने शीर्ष पद पर बदलाव को प्राथमिकता में नहीं लिया। शायद दिल्ली से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का यही संदेश डॉ. मोहन यादव के लिए रहा हो? लोकसभा चुनाव के कारण मुख्य सचिव वीरा राणा को छह माह की सेवावृद्धि भी मिल गई। इस सेवा वृद्धि के कारण नौकरशाही की मानसिकता में ठहराव का भाव नहीं आ पाया। उसकी मानसिकता अभी भी परिवर्तन के साथ चल रही है।
नया मुख्य सचिव आएगा तो नई जमावट होगी। इसका असर प्रशासनिक कामकाज पर देखा जा सकता है। मंत्रियों में भी अपने राजनीतिक नेतृत्व को लेकर कई सवाल जहन में चल रहे हैं। सवाल ऐसे हैं,जिन्हें लोग जुबां पर नहीं ला रहे लेकिन, आखों में साफ पढ़े जा सकते हैं। दरअसल, मध्यप्रदेश भाजपा की राजनीति में डॉ. मोहन यादव का नाम कभी ऐसा नहीं रहा हैं,जिसकी कल्पना भावी मुख्यमंत्री के तौर पर की जा सके। डॉ. यादव का राजनीतिक तौर-तरीका भी स्थानीय राजनीति खास तौर पर अपने हितों तक ही सीमित रहता था। इस कारण जब उनके नाम की पर्ची मुख्यमंत्री के नाम के लिए खुली तो लोगों का मुंह खुला रह जाना स्वाभाविक था।
डॉ. मोहन यादव की सरकार में नयापन कुछ भी नहीं है। एक उत्सवधर्मी मुख्यमंत्री छवि उनकी बनती जा रही है। जो सरकारी कार्यक्रम भी आयोजित हो रहे हैं,उनमें भी उनका अंदाज उत्सवी होता है। तालियों की गड़गड़ाहट है और आनंद की वर्षा है। महिलाओं के बीच शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता को कम करना उनके लिए चुनौती भरा है।
राखी के उत्सव में भी इस चुनौती को स्वीकार करते दिखाई दे रहे हैं। प्रदेश के औद्योगिक विकास और रोजगार को लेकर भी उनका नजरिया परंपरागत ही दिखाई दे रहा है। विवादास्पद पटवारी परीक्षा के चयनितों को नौकरी देने का जो कदम उन्होंने उठाया था,उसके बाद सरकारी भर्ती में तेजी की उम्मीद जागी थी। लेकिन, स्थिति जस की तस बनी हुई है। लोकसभा चुनाव होने का तर्क दिया जा सकता है। राजनीतिक निर्णय को लेकर भी मुख्यमंत्री पर दबाव साफ दिखाई पड़ता है। जिले के प्रभारी मंत्री बनाने में ही छह माह से ज्यादा का वक्त लग गया।
शिवराज सिंह चौहान जब तक मुख्यमंत्री रहे, वे दिल्ली दरबार में जाकर हाजिरी लगाने से बचते रहे। वे कभी-कभार ही दिल्ली में नजर आते थे। डॉ. मोहन यादव की उपस्थिति भोपाल के अलावा जिन स्थानों पर सबसे ज्यादा नजर आती है वह दिल्ली, इंदौर और उज्जैन हैं। उनकी उज्जैन यात्रा की वजह पारिवारिक हैं। पुत्र धर्म का निर्वाह भी वे कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के मंत्रिमंडल में उनसे वरिष्ठ कई मंत्री हैं। शिवराज सिंह चौहान जब मुख्यमंत्री बने थे, तब भी उनसे वरिष्ठ सदस्य मंत्रिमंडल में थे। शिवराज सिंह चौहान की खूबी यह थी कि उन्होंने कनिष्ठ-वरिष्ठ किसी से भी अपनी दूरी नहीं बनने दी थी। सभी की सुनने के बाद निर्णय लेना शिवराज सिंह चौहान की बड़ी खूबी मानी जाती थी। लेकिन, नागर सिंह चौहान से वन विभाग लेकर रामनिवास रावत को देने का जो निर्णय उन्होंने लिया था,उसमें सहमति की राजनीति का मार्ग बंद होता दिख रहा है।
निगम, मंडलों में भी नियुक्ति अटकी हुई हैं। मौजूदा दौर में संवाद तंत्र भी कमजोर है। डॉ. मोहन यादव सुशासन पर काम कर रहे हैं या किसान मजदूरों के लिए इसे लेकर भी कोई ठोस दावा नहीं किया जा सकता। इंदौर के हुकुमचंद मिल के मामले में मजदूरों के बकाया के भुगतान का जो फैसला उन्होंने किया था,वह ऐतिहासिक है। उसे भी शायद सरकार में बैठे नीति निर्धारक मुख्यमंत्री की छवि से नहीं जोड़ पा रहे हैं। एक मजदूर के बेटे के मुख्यमंत्री होने की छवि।