गर्भकाल : मोहन सरकार...अब अंगद नजर आने लगे

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव ने 13 दिसंबर 2023 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। 13 सितंबर 2024 को सरकार के कार्यकाल के 9 माह पूरे हो जाएंगे। कैसा रहा सरकार का गर्भकाल, 9 महीने में कितने कदम चली सरकार, 'द सूत्र' लेकर आया है पूरा एनालिसिस... पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार रमण रावल का विशेष आलेख...

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रमण रावल
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रमण रावल@ BHOPAL.

दिसंबर 2023 में जब मोहन यादव मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए, तब तमाम अटकलपचीसी का निष्कर्ष था कि वे स्थानापन्न मुख्यमंत्री हैं, जो लोकसभा चुनाव (जून 2024) के बाद हटा दिये जायेंगे। आप ऐसे लोगों की समझ की अब खिल्ली उड़ा सकते हैं। वे भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के मार्गदर्शन में अपने दायित्वों को बखूबी अंजाम दे रहे हैं,जिनका संकेत तो यही है कि वे ऊपर से आदेशित-निर्देशित ही नहीं होते, बल्कि उनके विशेष स्नेह के पात्र भी हो चुके हैं। इसका सीधा-सा तात्पर्य तो यही है कि वे अंगद का पैर बन चुके हैं। जब तक वे कोई उल्लेखनीय गलती नहीं करते,आलाकमान को नया चेहरा ढूंढने की आवश्यकता नहीं रहेगी। इसलिये मोहन सरकार के नौ माह के प्रसव काल के नतीजे का नामकरण स्थायित्व किया जा सकता है।

गर्भकाल …

मोहन यादव सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…

कैसी रही सरकार की दशा और दिशा…

आप भी बताएं मोहन कौन सी तान बजाएं…. 

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मोहन यादव का नाम मुख्यमंत्री पद के लिये चौंकाने वाला तो था ही,इतना संशयपूर्ण भी था कि तात्कालिक प्रतिक्रियाएं उनके अल्प काल तक इस पद पर रहने की सामने आई थीं। संभव है कि स्वयं यादव भी लंबे कार्यकाल के लिये आश्वस्त न रहे हों। फिर भी यह उनकी राजनीतिक समझ और हिकमत ही कही जायेगी कि उन्होंने इस अवसर को इतिहास बनाने के लिये जी-जान लगा दी। उन्होंने सबसे पहले तो सारी शंकाओं को दूर करते हुए पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के कार्यकाल की महत्वपूर्ण योजना लाड़ली बहना के खातों में हर माह की 10 तारीख को एक हजार रुपये जमा करने को बरकरार रखा। इससे संदेश यह भी गया कि वे या पार्टी नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान की इस लोकप्रिय योजना को नहीं छेड़ेगा, बल्कि इसे इस तरह से स्थायित्व देगा कि आगामी लोकसभा व अगले विधानसभा चुनाव तक पर अनुकूल प्रभाव बना रहे।

किसी भी मुख्यमंत्री के बदलने पर जो सबसे पहला काम होता है, वह प्रशासनिक शल्य क्रिया का रहता है। इस मामले में भी मोहन यादव सरकार ने अपेक्षित संयम बरता और गैर जरूरी परिवर्तन नहीं किये। मुख्यमंत्री सचिवालय के अधिकारी तो बदले ही जाने रहते हैं, जो बदले भी। मंत्रिमंडल के गठन में भी अपनी पसंद को प्राथमिकता देने की कोई दिलचस्पी उन्होंने नहीं दिखाई, जो उनकी राजनीतिक परिपक्वता को दिखाता है। यदि वे किसी व्यक्ति विशेष में लगाव प्रदर्शित करते तो नेतृत्व को खटक सकता था। याने मोहन यादव ने अपनी महत्वाकांक्षा नहीं जताई कि सरकार के मुखिया होने के नाते उनकी भी पसंद-नापसंद है।

बस,एक मामले में उनकी गफलत अवश्य सामने आई, जब कांग्रेस से आये वरिष्ठ नेता रामनिवास रावत को मंत्रालय का प्रभार देने में करीब दो हफ्ते लगा दिये। हालांकि यह शीर्ष नेतृत्व से तय होना था, किंतु इसका असर मोहन सरकार की छवि पर ही हुआ। इसकी आलोचना भी हुई और हंसी भी उड़ी। लेकिन, बड़ी-सी राजनीति में छोटी-सी बातें होती रहती हैं। वैसे इस तरह के पेंच अक्सर सामने आयेंगे, जब भविष्य में भी कांग्रेस से किसी को लिया जायेगा । इससे निपटने की कोई नीति नहीं बनाई गई तो वे अवसर विवादित हो सकते हैं।

मोहन यादव की इस बात के लिये प्रशंसा करना होगा कि मुख्यमंत्री बनते ही लोकसभा चुनाव सामने होने से उन्होंने समूचे प्रदेश को नाप डाला,जिसने शिवराज सिंह चौहान के जुझारूपन,सक्रियता की कमी महसूस नहीं होने दी। यह यादव के लिये चुनौती और अवसर एकसमान रूप से थी। किस्मत के बुलंद मोहन ने तब चैन की बंसी बजाई होगी, जब ऐतिहासिक सफलता प्राप्त करते हुए मप्र की सभी 29 लोकसभा सीटें भाजपा की झोली में आ गई। यह तब हुआ, जब देश में भाजपा की सीटें 303 से घटकर 240 रह गई थी। इस उल्लेखनीय उपलब्धि ने मोहन यादव के ताज में मोर पंख सजा दिये।

 उनके अभी तक के कार्यकाल की एक महती उपलब्धि के तौर पर हम गुटीय संतुलन को भी मान सकते हैं। प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान,ज्योतिरादित्य सिंधिया,कैलाश विजयवर्गीय,नरेंद्र सिंह तोमर, गोपाल भार्गव,नरोत्तम मिश्रा,प्रहलाद पटेल जैसे दिग्गजों की वृहद श्रृंखला होते हुए भी उन्होंने किसी के साथ टकराव और बड़बोलेपन से परहेज कर स्वयं को स्थापित करने की दिशा में ही आगे बढ़ाया है।

उन के कार्यकाल की एक उपलब्धि यह भी है कि समूचे प्रदेश में केवल इंदौर में बिजनेस समिट कर निवेशकों को आमंत्रित करने के सिलसिले को आगे ले जाकर उसे क्षेत्रीय स्तर तक विस्तार दे दिया, जिसके अनुकूल परिणाम मिलने लगे हैं। वे अभी तक उज्जैन,जबलपुर,ग्वालियर में निवेशकों को आमंत्रित कर बड़ी रकम के प्रस्ताव करवा चुके हैं। इन पर अमल भी शुरू हुआ है, जो अच्छे संकेत हैं। यह पहली बार है, जब औद्योगिक विकेंद्रीकरण पर ध्यान दिया गया।प्रारंभ में इस पर भले ही सवाल उठाये गये हों, लेकिन कालातंर में इसे सराहना ही मिली।

वैसे सही तो यह भी है कि नौ महीने में मप्र जैसे विशाल राज्य के मुख्यमंत्री की कार्य प्रणाली की समीक्षा करना उचित नहीं कह सकते, लेकिन यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि उनका आने वाला कल कैसा होगा? मोहन यादव सरकार पर खासकर विपक्ष की ओर से आरोप लगाया जाता है कि वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संचालित होते हैं या यह कि प्रत्येक छोटे-बड़े काम के लिये दिल्ली  का रूख करते हैं और तदनुसार काम करते हैं, जो कि तर्क संगत नहीं माना जा सकता। भाजपा की कार्य पद्धति में अब यह तथ्य तो स्थापित हो चुका है कि उसे संघ के एजेंडे पर ही चलना होता है तो मोहन यादव भी वैसा ही करें तो नया क्या है। यही बात प्रशासन के संचालन को लेकर भी कही जाती है कि दो-चार अधिकारी ही सब कुछ तय करते हैं तो यह भी बेहद स्वाभाविक-सा है। किसी भी राज्य में ,किसी भी मुख्यमंत्री की पसंद के चुनिंदा अधिकारी ही मुख्यमंत्री के प्रमुख सलाहकार होते हैं। यह तो भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र हो चुका है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मप्र के मुख्यमंत्री मोहन यादव फिलहाल तो राजपथ पर संतुलित गति से संयमित तरीके से सरकार का संचालन कर रहे हैं। समय के साथ जो परिपक्व होते जाते हैं, वो काबिलियत मोहन यादव में भी नजर आने लगी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।)

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