गर्भकाल : अचूक निशानेबाज बदलाव के संकेत केवल एक फायर से देते हैं

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने 13 दिसंबर 2023 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। 13 सितंबर 2024 को सरकार के कार्यकाल के 9 माह पूरे हो जाएंगे। कैसा रहा सरकार का गर्भकाल, 9 महीने में कितने कदम चली सरकार, 'द सूत्र' लेकर आया है पूरा एनालिसिस, पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार विजय मनोहर तिवारी का विशेष आलेख...

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विजय मनोहर तिवारी
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विजय मनोहर तिवारी@भोपाल.

किसी भी सरकार के कामकाज को देखने के लिए नौ महीने का समय एक बहुत छोटी सी खिड़की है। विशेष रूप से तब जब 18 साल से कायम एक जैसी व्यवस्था को बदलकर आई हुई एक नई नवेली सरकार हो। चाहे सत्ता में लौटकर आई पार्टी वही हो या विपक्षी सत्ता में आ गए हों। दोनों ही स्थितियों में बदलाव मापने के लिए नौ महीने का समय काफी नहीं है। फिर भी बदलाव, महसूस करने वाली एक ऐसी अवस्था है, जो एक या चार दिन में भी हो सकती है, बल्कि शपथ के अगले एक घंटे में भी हो सकती है।

किसी भी नई व्यवस्था में नए लीडर के लिए यह जरूरी होता है कि आते ही वह सबसे पहले अपने आने का इशारा करे। पुराने लीडर जब अगले ही चुनाव के बाद दूसरी या तीसरी बार लगातार सत्ता में वापसी करते हैं तो पुरानी टकसालों में ढले हुए सिक्के उनके पास होते हैं। बहुत कम संभावना है कि वे कोई नया इशारा लेकर आएं। उन्हें लगता है कि सत्ता में उनकी वापसी पुराने इशारों पर ही मुहर है तो नया क्या करना। अब नए इशारे की क्या जरूरत है। ऐसी यथास्थिति में अक्सर कुछ भी बदला हुआ नजर नहीं आता या बहुत देर से कुछ नए पन की अनुभूति आए तो आए।

गर्भकाल …

मोहन यादव सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…

कैसी रही सरकार की दशा और दिशा…

आप भी बताएं मोहन कौन सी तान बजाएं…. 

इस लिंक पर क्लिक करके जानें सबकुछ…

https://thesootr.com/state/madhya-pradesh/cm-mohan-yadav-garbhkal-the-sootr-survey-6952867

अगर लीडर नया है तो वह इशारा देगा ही। अपने होने का, परिदृश्य में अपने आने का इशारा। कुछ नए पन का इशारा। मार्केटिंग की भाषा उसे "नई ऑफरिंग' कहती है। वह नया इशारा लीडर के फैसलों में हो सकता है, नीतियों में हो सकता है और आजकल की राजनीति का सबसे सस्ता उपाय, बयान और भाषण से हो सकता है। फैसले और नीतियों के जरिए आने वाले बदलाव के लिए समय चाहिए। वह तुरंत नहीं होगा। 
सीधे मध्यप्रदेश की सत्ता के अपने विषय पर आते हैं कि डॉ. मोहन यादव की सरकार को नौ महीने हो चुके हैं तो यहां क्या बदलाव या क्या नया होता हुआ नजर आया है?

सबसे नया तो डॉ. मोहन यादव का नाम ही है, जिसने सबको एक झटके में चौंकाया। चुनावों के परिणाम आने तक किसे अंदाजा था कि मध्यप्रदेश की राजनीति अगली करवट उज्जैन की तरफ ले रही है। अलबत्ता चुनावों से कुछ महीने पहले उनके नाम की सुगबुगाहट अवश्य थी, लेकिन बीजेपी की राजनीति में डॉ. मोहन यादव उन नेताओं में से नहीं हैं, जो अपने नाम के डंके बजाते घूमते कभी भी कहीं भी देखे गए हों। जो काम दिया गया है, उसकी लक्ष्मण रेखा में चुपचाप वही करते रहो। इसलिए हर बार जब भी यह प्रश्न आया कि शिवराज सिंह चौहान के बाद अगला सीएम कौन, जितने भी नाम चर्चा में रहे, डॉ. मोहन यादव दूर-दूर तक उन सूचियों में चर्चा का विषय ही नहीं थे। वे इन सब संभावनाओं से दूर अपनी "लक्ष्मण रेखा' में थे। इसलिए उनके नाम का ऐलान ही प्रदेश की राजनीति में दो दशक बाद आया एक नया इशारा था।

ऐसे किसी भी लीडर के लिए कुर्सी पर आना बहुत आरामदेह कभी नहीं है, जैसी परिस्थिति में डॉ. मोहन यादव की शपथ हुई। वे जिस कुर्सी पर आ रहे थे, वह शिवराज सिंह चौहान की अठारह साल की अखंड सत्ता के "भारी गुरुत्वाकर्षण' वाला अडिग आसन था। अठारह साल पहले जिसने पहली बार अपने मताधिकार का उपयोग किया था, वह अठारह साल का युवा अब छत्तीस साल का था और मुख्यमंत्री के रूप में उसे आदत ही शिवराज सिंह चौहान को देखने की थी। उनके व्यापक संपर्क, फील्ड से उनके मजबूत कनेक्ट ने राजनीति में उनका 'कटआउट' आकाशीय बनाया था। पार्टी के कई धुरंधर अठारह साल दर्शक दीर्घा में रहते हुए बदलाव की आस में आशाहीन हो चुके थे। ऐसे में आम लोगों के साथ पार्टी की अपेक्षाओं के अंबार स्वाभाविक हैं। 

मैं अपना एक अनुभव बताता हूं। भोपाल में मेरे एक घनिष्ठ मित्र एक ऐसे कवर्ड कैम्पस में रहते हैं, जहां सौ प्रतिशत हिंदू हैं, लेकिन कैम्पस के बाहर कहीं दूर एक पुरानी बसाहट में कुछ परिवार मुस्लिमों के होंगे। वहां एक मस्जिद है। लाउड स्पीकर पर पांच बार की नमाज एक असहनीय समस्या थी। एक बार कॉलोनी के कुछ बच्चों ने तत्कालीन कलेक्टर अविनाश लवानिया को एक मार्मिक चिट्ठी लिखी थी। लाउड स्पीकर के शोर से वे पढ़ नहीं पाते थे। शाम को पार्क में खेल नहीं पाते थे। एक दूसरे से जोर से बात करनी होती थी। उस चिट्ठी को किसी कार्रवाई लायक नहीं समझा गया था। वे मित्र अक्सर मुझसे कहते थे कि उनकी आवाज मैं कहीं ऊपर तक पहुंचाऊं। मैंने उस रोचक चिट्ठी पर एक ट्वीट किया था, जिस पर राष्ट्रीय बाल आयोग ने संज्ञान लेते हुए कलेक्टर को पत्र लिखा था मगर हुआ कुछ नहीं। जहां एक भी मुस्लिम परिवार नहीं था, उस तरफ मस्जिद के सारे लाउड स्पीकर यूं ही फुल वॉल्यूम में पांच बार मुंह नहीं किए थे।

डॉ. मोहन यादव की शपथ के तुरंत बाद हुए शुरुआती निर्णयों में से एक धर्मस्थलों से इन लाउड स्पीकरों का शोर बंद करने का भी था। अगली सुबह ही मुझे मित्र का फोन आया। बच्चे बहुत खुश थे। बिना किसी विवाद के एक सहज बदलाव हुआ था, जो जनता में महसूस कर लिया गया था। एक इशारा था, जो सही जगह पहुंच गया था। यह कोई अरबों रुपयों की ऐसी योजना नहीं थी, जिसके परिणाम वर्षों बाद आते। यह कोई ऐसी घोषणा नहीं थी, जिसके लिए केबिनेट में निर्णय होते और नीतियों के दस्तावेज रचे जाते। किंतु उनके लिए यह भी अनायास नहीं रहा होगा। यह आम जनता की एक पीड़ा है, इस पर ध्यान देने की जरूरत है और अगर कभी अवसर मिला तो सबसे पहले यही पुण्यकार्य करना है, यह भाव एक विधायक या मंत्री के रूप में उनमें रहा होगा अन्यथा आते ही वे ऐसा संकेत नहीं दे सकते थे। वे कुछ और कर सकते थे। अचूक निशानेबाज बदलाव के संकेत एक फायर से देते हैं!

लगातार तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री और बाद में तीन बार से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के गांधी नगर और नई दिल्ली के सरकारी आवासों पर हमने अपने काम में जुटे केवल प्रधानमंत्री को ही देखा है। उनके परिवार, भाई-भतीजों, नाते-रिश्तेदारों को नहीं। उल्टा वे अपनी पूज्य माताजी के पुराने छोटे से घर में ही उनसे आशीर्वाद लेने जाया करते थे। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ तो संन्यस्त हैं और वे भी अपने सरकारी आवास में एक मुख्यमंत्री के रूप में अकेले हैं। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की उनकी एक बहन के परिवार के कुछ वीडियो आए थे, जिनसे यह स्पष्ट था कि वे करोड़ों आम भारतीयों की भांति ही अपना जीवनयापन कर रही हैं। ऐसे दुर्लभ दृश्य आम भारतीयों में अपने नेताओं के प्रति विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा कई गुना बढ़ा देते हैं, जिसका आज की राजनीति में अकाल पड़ा हुआ है।

राजनीति में किसी के ऊंचाई पर पहुंचने के बाद यह बहुत सामान्य है कि परिवार के लोगों और नाते-रिश्तेदारों की अपनी टकसालें कुछ ज्यादा ही जोर से चमकें। सत्ता की चमक-दमक से बचे रहना एक कठिन साधना है। परिवार के संदर्भ में यह बात नेताओं और अफसरों दोनों पर लागू है। इस दृष्टि से देखें तो डॉ. मोहन यादव उज्जैन के हैं। उनका परिवार वहीं है। जब तक वे उच्च शिक्षा मंत्री रहे भोपाल में अपने सरकारी आवास पर अधिकतर अपना कामकाज करते हुए अकेले ही पाए गए। तब उनका परिवार उज्जैन में ही रहा। यह एक सीनियर अफसर का आकलन है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी हममें से अधिकतर लोगों को नहीं पता कि श्रीमती मोहन यादव या उनके बेटे-बेटी कभी भोपाल में राजपाट संभालते या समानांतर सत्ता केंद्र जमाते हुए अब तक दिखाई दिए हों। उज्जैन के पुराने घर में अपने पूज्य पिता से मिलते हुए मुख्यमंत्री की कुछ तस्वीरें अवश्य हमने देखीं, जिनका हाल ही में स्वर्गवास हुआ है। 

जनता अपने नेताओं से यही अपेक्षा करती है कि वे अपनी जिम्मेदारियों पर खरा उतरें, कठोर निर्णय लें, किसी के दबाव में न आएं, अपने अवसर के हर मिनट का सदुपयोग करें, कोई काम कल पर न टालें, योजनाओं के क्रियान्वयन में समय सीमा तय करें, सिस्टम में भ्रष्टाचार काबू में करें, सरकारी कार्यक्रमों में मेगा इवेंट की प्रवृत्ति और फिजूलखर्ची सख्ती से रोकें, योग्य और निष्ठावान कार्यकर्ताओं को अपने उत्तराधिकार के लिए तैयार करें, उन्हें आगे लाएं, प्रशासन में पदों पर चयन का आधार प्रतिभा और दक्षता हो, जातिगत संकीर्णता और भेदभाव से जितना संभव हो बचें, अपने बाल-बच्चों को राजनीति की बजाए दूसरे अच्छे कामों में प्रेरित करें, स्वयं की बजाए अपने काम और अपने परफॉर्मेंस को ही बोलने दें। ये कुछ ऐसे सूत्र और सावधानियां हैं, जो एक अलग लकीर खींचती हैं और जिस आत्मनिर्भर-विश्वगुरू भारत का स्वप्न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देखा है, उसकी ओर अपने प्रदेश की मजबूत कदमताल सुनिश्चित करती हैं।

मध्यप्रदेश के शहर नाजायज कब्जों, अतिक्रमण, अवैध गुमठी-ठेलों और बस्तियों की भयावह चपेट में हैं, जहां भूमाफिया का एक सुव्यवस्थित तंत्र शासन को चुनौती दे रहा है और गांवों का हाल भी ठीक नहीं है, जो एकतरफा पलायन के कारण वीरान होते गए हैं। इस लिहाज से डॉ. मोहन यादव के लिए मध्यप्रदेश में क्या गांव और क्या शहर, मैदान खाली पड़ा है। वे एक नई लहर ला सकते हैं, जिससे शहरों का स्वास्थ्य पहले से अच्छा हो और गांवों की रौनक भी लौटे। इसके लिए उन्हें एक नई कार्य संस्कृति का सूत्रपात करना होगा। इसके लिए विविध विषयों के विशेषज्ञों के साथ वे अपना एक वैचारिक सर्कल बना सकते हैं, जिनसे समय-समय पर उनसे विमर्श करें और नवाचार के सूत्र पकड़ पाएं। गुजरात में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने स्वयं को एक शक्तिशाली नेतृत्व के रूप में इसी प्रकार ढाला था।  

आज जब मैं यह टिप्पणी लिख रहा हूं, एक्स पर आई एक ताजा तस्वीर ऐसे ही एक और इशारे का परिचय है। पहली बार डॉ. मोहन यादव की केबिनेट बैठक में मुख्य सचिव की कुर्सी मंत्रियों के पीछे लगाई गई है। अगर यह तस्वीर सही है तो यह एक ऐसे एक्स-रे की तरह है, जिससे रीढ़ की एक सीधी हड्डी दिखाई दे रही है!

(लेखक मध्य प्रदेश के पूर्व सूचना आयुक्त एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं। इस लेख में उनके निजी विचार हैं।)

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