आनंद पांडेय @ भोपाल
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया था? यूं तो इसकी तमाम व्याखाएं हैं। एक व्याख्या ये भी है कि वो नहीं चाहते थे कि उनके रहते ब्रज (मथुरा, वृंदावन, गोकुल का इलाका) के लोग भगवान इंद्र की पूजा करें, इसलिए उन्होंने समझाइश देकर इंद्र की पूजा बंद करवा दी। इंद्र गुस्से में आ गए और उनके गुस्से के प्रकोप से ब्रज के इलाके में मूसलाधार बारिश होने लगी। घबराए ब्रजवासी कृष्ण के पास पहुंचे। कृष्ण ने बिना देर किए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया और पूरे इलाके के लोगों को उसके नीचे शरण दे दी। बस, इसके साथ ही कृष्ण की सत्ता स्थापित हो गई।
डॉ. मोहन यादव को भी अपनी सत्ता की हनक और खनक कायम करने के लिए अभी किसी गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाना बाकी है। अभी वो, सिर्फ फैसले ले रहे हैं... जबकि दरकार है चमत्कारिक और क्रांतिकारी फैसलों की। शुरुआती दिनों मे जब गुना में बस दुर्घटना हुई और परिवहन आयुक्त को हटाया गया तो लगा था कि वाकई अब सब बदल जाएगा। इसके बाद भोपाल के बीआरटीएस को तोड़ने के फैसले को भी दुस्साहिक निर्णयों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है, लेकिन ऐसे फैसले गिन-चुने ही हैं। मोहन को बड़े...कड़े और तत्काल... फैसले की थ्योरी पूरी शिद्दत से अख्तियार करनी ही पड़ेगी।
मोहन को इसी मोड़ पर ये भी तय करना होगा कि वो महज नेता (पॉलीटिशियन) बने रहना चाहते हैं या लीडर (नायक) बनना चाहते हैं। मौजूदा दौर की भावनात्मक... सोशल मीडिया ड्रिवन और दबाव भरी राजनीति के चलते यादव को उनकी पीआर टीम भले ही भुट्टे खाने के लिए सड़क किनारे रोक दे या सावन के झूले में झुलाए... लेकिन ये सारी कवायद उनकी लोकप्रियता को न तो स्थायित्व दे पाएंगी और न ही उनकी तस्वीर के रंगों को उजला और चटख कर पाएंगी। हां, ऐसा करके वो तात्कालिक चर्चा का विषय जरूर बन जाएंगे। अपनी लकीर बड़ी करने के लिए उन्हें तो हर हाल में वो फैसले लेने पड़ेंगे जो मध्यप्रदेश की आम जनता के जीवन में स्थायी और सकारात्मक बदलाव ला सकें। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य पर वो बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन अभी तक इन मामलों में उन्होंने कोई विशेष चिंता नहीं जताई है और न ही कोई विजन डॉक्यूमेंट जनता के सामने रखा है, जबकि आम आदमी के सरोकार से जुड़े यही विषय सबसे महत्वपूर्ण होते हैं।
हालांकि, उनके साथ अच्छी बात ये है कि वो पढ़े भी हैं और गढ़े भी। यानी उन्हें किताबों का सैद्धांतिक ज्ञान भी है और उसे सार्वजनिक जीवन में उतारने की व्यावहारिक कला भी आती है। उनके बारे में कहा जाता है कि वो कॉलेज के दिनों से ही राजनीतिक संतुलन साधना सीख गए थे। कई बार छात्र राजनीति में उद्दंडता, तीखे तेवर और लड़ाकूपन न चाहते हुए भी वक्त की जरूरत होते हैं। इन सबकी वजह से छात्र नेताओं और शिक्षकों के रिश्तों में आमतौर पर कड़वाहट आ ही जाती है।
बताया जाता है कि मोहन ने रिश्तों की इस कड़वाहट का इलाज होली के रंगों में खोज लिया था। होली पर अपनी बुलट पर सवार होकर, अपने हुल्लड़बाज यारों की टोली के साथ सबसे पहले उस प्रोफेसर के घर जा धमकते थे, जिनसे नेतागिरी के चलते कभी हुज्जत हुई थी। रंग-गुलाल लगाकर पैर पड़ने और फिर गुजिया खाने-खिलाने से रिश्ते एक बार फिर पहले की तरह ही मीठे हो जाते थे। संतुलन साधने की ये कलाबाजी मुख्यमंत्री बनने के बाद तो डॉ. मोहन यादव के और भी ज्यादा काम आ रही है। हालांकि अभी उन्हें सत्ता के शिखर पर पहुंचे ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, लिहाजा उनकी कार्यशैली को लेकर किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी, लेकिन फिर भी उन्होंने सधी हुई शुरुआत की है, इस बात से तो उनके विरोधी भी इनकार नहीं कर सकते हैं। हालांकि बौद्धिक विलास में व्यस्त राजनीतिक विश्लेषकों के लिए मुख्यमंत्री के तौर पर डॉ. मोहन यादव का नाम किसी आधारहीन अचंभे से कम नहीं था। विचार परिवार से सैद्धांतिक निष्ठा रखने वाले, आत्मतुष्टि की झपकी में लीन प्रदेश के स्वयंमुग्धा नेताओं ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि सभी स्थापित मानकों और वर्जनाओं को तोड़कर यादव को प्रदेश की सत्ता का शिखर सौंपा जा सकता है।
एक बात और है- यादव की पेशानी पर अजन्मी बेटियों के बाबुल की तरह यूं तो तमाम परेशानियां लिखी हुई हैं, लेकिन उनमें से सबसे ज्यादा रेखांकित करने वाली हैं- अस्थिर करने वाले धुर राजनीतिक विरोधियों और बरसों पुरानी जड़ जमाऊ ब्यूरोक्रेसी नाम की खरपतवार पर काबू रखना। शुरुआती नौ महीनों में उन्होंने बहुत हद तक राजनीतिक चुनौतियों को तो समझ भी लिया है और साध भी लिया है। हालांकि जैसी राजनीति की परंपरा भी है और विडंबना भी कि... विरोधी हमेशा सक्रिय रहते हैं... ठीक वैसे ही मोहन के साथ भी हो रहा है और होता रहेगा। लेकिन फिर भी अपनी व्यवहार कुशलता और राजनीतिक चातुर्य से उन्होंने हालात संभाल रखे हैं और वैसे भी उनके विरोधी जानते हैं कि मोहन 'ऊपर वालों' की पसंद हैं, लिहाजा सक्रिय भले ही रहेंगे, लेकिन नुकसान करने की हैसियत में रहेंगे... ऐसा लगता नहीं। लेकिन भ्रष्टाचार के पर्याय में तब्दील हो चुके प्रशासनिक अधिकारियों पर वो लगाम कैसे कसेंगे, ये सौ टके का सवाल है?
मोहन निरंतर सीख रहे हैं, गढ़ रहे हैं और अपने आपको तराश रहे हैं। उनमें सीखने की भूख बनी हुुई है। यही जिद और भूख उन्हें दूसरे नेताओं से अलग करेगी। हालांकि ये बात भी सही है कि यादव के शुरुआती कार्यकाल को स्वर्णकाल की संज्ञा नहीं दी जा सकती, लेकिन फिर भी कालखंड और प्रतिस्पर्धा के जिस दौर में उन्हें सीएम बनाया गया है, उसे देखते हुए उनकी इब्तिदा को कतई कमतर करके नहीं आंका जा सकता है।
उन्हें जल्द ही अपनी कर्मठता... दृढ़ इच्छाशक्ति... गतिमान कार्यशैली... वैज्ञानिक दृष्टिकोण और नवाचार के जरिए अपनी तमाम परेशानियों पर विजय हासिल करनी ही होगी... क्योंकि वो भी ये तो भली-भांति जानते ही हैं कि पूर्वजों की पुण्याई पर अब न तो लंबी राजनीति चलती है और न ही जीवन।
(लेखक द सूत्र के एडिटर इन चीफ हैं।)
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