गर्भकाल : समन्वय के नए आयाम गढ़ने की कवायद कसौटी पर

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने 13 दिसंबर 2023 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। 13 सितंबर 2024 को सरकार के कार्यकाल के 9 माह पूरे हो जाएंगे। कैसा रहा सरकार का गर्भकाल, 9 महीने में कितने कदम चली सरकार, 'द सूत्र' लेकर आया है पूरा एनालिसिस, पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार राजेश सिरोठिया का विशेष आलेख...

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राजेश सिरोठिया

राजेश सिरोठिया @ भोपाल

मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के बतौर सोलह साल से ज्यादा लंबी पारी खेलने के बाद शिवराज सिंह चौहान लोकसभा के रास्ते केंद्र में कृषि मंत्री के रूप में नई पारी खेलने में जुट गए हैं। किसान नेता की उनकी छवि को भुनाने का प्रयास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं  तो मध्यप्रदेश मेंं शहरी पृष्ठभूमि से आने वाले पिछड़े समाज के डॉ मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर आम लोगों को भले ही चौंकाया हो लेकिन जो लोग भाजपा और संघ की राजनीति के अंदरूनी मिजाज को समझते हैं, उनके लिए चौंकने जैसी कोई बात नहीं थी।

  • गर्भकाल …
  • मोहन यादव सरकार के नौ माह और आपका आंकलन…
  • कैसी रही सरकार की दशा और दिशा…
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https://thesootr.com/state/madhya-pradesh/cm-mohan-yadav-garbhkal-the-sootr-survey-6952867

 सच तो यह है कि शिवराज की काबीना में उच्च शिक्षा मंत्री रहते हुए भी संघ के अंदरखानों से मोहन यादव का नाम नए मुख्यमंत्री के बतौर उभरा था। बात चली भी आगे भी बढ़ी पर  कतिपय कारणों से तब बात आई गई हो गई। लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में भाजपा 163 सीटों के साथ जीतकर आई , उसके पहले ही संघ से लेकर भाजपा आलाकमान यह तय कर चुका था कि शिवराज को मुख्यमंत्री के रूप में और मौका नहीं मिलने वाला। इसके बजाए उनको केंद्रीय राजनीति में लाकर किसान नेता की उनकी छवि को देश भर में भुनाया जाएगा और मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर न सिर्फ मध्यप्रदेश में नए चेहरे से सूबे की जनता को रूबरु कराया जाएगा बल्कि यादव समाज में यह संदेश पहंचाने की कोशिश होगी कि भाजपा यादवों के खिलाफ नहीं है। इसलिए यूपी, बिहार और हरियाणा में फैैली यादव आबादी के  वोट हासिल करने की कोशिश की जाएगी।

बहरहाल यादव को मप्र का मुख्यमंत्री बनाने से यूपी बिहार और हरियाणा के भाजपा विरोधी यादव वोट बैंक में कितनी सेंधमारी हुई यह भाजपा आलाकमान और उनको मध्यप्रदेश में लाने में अहम भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के  चिंतन का विषय है। लेकिन एक बात तो तय है कि नौ महीने के कार्यकाल में मोहन यादव ने मप्र के मुख्यमंत्री के बतौर एक अलग छाप छोड़ी है। उन्होंने कई मिथक भी तोड़े हैं। सबको साथ लेकर चलने और समन्वय की सियासत के मंत्र को अपनाते हुए वह आगे बढऩे और प्रदेश को आगे बढ़ाने के जतन में लगे हैं।

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ग्रामीण और कृषि क्षेत्र परक योजनाओं से उन्होंने कोई छेड़छाड़ अब तक नहीं की है। ग्रामीण इलाकों में ये योजनाएं बदस्तूर जारी हैैं। अभी तक तो दावा यह है कि ये आगे भी जारी रहेंगी। सूबे की माली हालत को देखते हुए इनमें से कितनी जारी रह पाएंगीं ये तो भविष्य ही बताएगा। सूबे की वित्तीय स्थिति को देखते हुए इस चुनौती से उन्हें निपटना है। लोगों को राहत पहुंचाने के साथ कम कर्ज लेने की प्रवृत्ति से बचने का काम भी उन्हें करना है। मोहन यादव ने ग्रामीण अंचलों के साथ शहरी इलाकों की सेहत की ओर ध्यान देना शुरू किया है जिसका काम पीछे छूटता जा रहा था। उन्होंने जो फैसले लिए उनसे तो यही जाहिर होता है कि मोहन यादव को ग्रामीण इलाकों के साथ ही शहरी क्षेत्र के मध्यम वर्गीय निम्न मध्यम वर्गीय आबादी के साथ ही शहरों में फैली पसरी गरीब आबादी का भी पूरा ख्याल है।

राजेंद्र शुक्ल और जगदीश देवड़ा को उप मुख्यमंत्री बनाकर अहम जिम्मेदारी देने के साथ ही कैलाश विजयवर्गीय जैसे अनुभवी और शहरी विकास का विजन रखने वाले नेता को उन्होंने नगरीय विकास से लेकर विधानसभा में संचालन के लिए आवश्यक संसदीय कार्य जैसा विभाग सौंपा है। यह मोहन यादव की सूझबूझ को दर्शाता है। सडक़ों के क्षेत्र में पिछड़े बुंदेलखंड से लेकर महाकौशल और विंध्य को संवारने का काम राकेश सिंह जैसे नेता को दिया है तो ग्रामीण नेता से  लेकर शहरी क्षेत्रों में लोकप्रिय नेता प्रहलाद पटैल को भी उनकी योग्यता को मुताबिक ग्रामीण विकास विभाग की कमान सौंपी है। उभरती आदिवासी नेत्री संपतिया उईके को लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग देकर ग्रामीण से लेकर शहरों की पेयजल व्यवस्था को संभालने जिम्मेदारी दी है।

मोहन यादव ने अपनी काबिलियत का लोहा सिर्फ अपनी संतुलित काबीना तक नहीं मनवाया है। काहबीना के साथियों को काम करने की पूरी आजादी देने के साथ ही मंत्रियों के कामकाज में नौकरशाही के दखल को कम करने की कोशिश की है। अफसरशाहों के बीच मुख्यमंत्री और मंत्रियों की धमक को उन्होंने कायम किया है जिसकी पिछले कुछ वर्षों में कमी खलती रही है। प्रशासनिक फेरबदल करने में सख्त फैसले लेने में मोहन यादव ने कोई हिचक नहीं दिखाई उससे नौकरशाहों पर काफी बद तक लगाम लगी है। मंत्रालय में तो चापलूस किस्म के अफसरों से निजात दिलाने की कोशिशों के तहत उन्होंने एसएन मिसरा सरीखे अफसर को गृह और परिवहन विभाग की कमान सौंपी है तो संजय दुबे को पदोन्नति के साथ अहम जिम्मेदारियां सौंप है। उन्होंने मुख्यमंत्री सचिवालय में राजेश राजौरा से लेकर संजय शुक्ला और भरत यादव से लेकर निचले स्तर तक के अफसरों के चयन में काफी सावधानी बरती है।  

बीते कुछ सालों में कमलनाथ से लेकर शिवराज के राज में मुख्यमंत्री सचिवालय में जो कोटरी या काकस जैसी व्यवस्था बन गई थी जो मुख्यमंत्री तक सीमित या अपनी पसंद की जानकारी ही पहुंचाने देते थे। लेकिन मोहन यादव ने इस मिथक को भी तोडक़र मीडिया और जनता से सीधे संवाद की व्यवस्था कायम की है। जनसंपर्क आयुक्त के बतौर सुदाम खाड़े को जनसंपर्क का सचिव बनाकर उन्होंने संवाद के सेतू को और पुख्ता और बाधा रहित बनाने की कोशिश की है।

मोहन यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि किसी तरह पटरी पर लौट रही प्रशासनिक व्यवस्था को और कितना पुख्ता किया जाए? नौकरशाहों के एक वर्ग ने उन्हें अपने चंगुल में लेने की कोशिश करने शूरूआत कर दी है। नौकरशाहों का प्रयास है कि मोहन यादव को किस तरह से उलझाकर रखा जाए जिससे कि वह अपने मूल काम को नहीं कर सकें। मसलन विभागीय समीक्षा का काम मुख्य सचिव का होता है। बिजनेस रूल्स के मुताबिक वह विभागों के कामकाज की निगरानी करे और किस विभाग में क्या कमी या अच्छी है इसकी रिपोर्टिंग मुख्यमंत्री को करे। शिवराज के दौर में नौकरशाहों ने विभागीय समीक्षा का काम मुख्यमंत्री को सौंपकर अपने दायित्वों से मुंह मोड़ लिया था। जनता के प्रति उनकी जवाबदेही कम होने लगी थी। अपवाद स्वरूप कुछ ही अफसर ऐसे थे जो े थे। यह व्यवस्था दिग्विजय सिंह के राज में शुरू हुई थी जिस पर कुछ हद तक उमाभारती और कमलनाथ ने अपने कार्यकाल में लगाम लगाते हुए नौकरशाहों में कसावट लाने का काम किया था।

लोग कहते थे कि मुख्यमंत्री के बतौर शिवराज सिंह चौहान ने जिस गति और तत्परता से प्रदेश में घूमने फिरने का काम किया है वह आने वाले मुख्यमंत्रियों के लिए बड़ी चुनौती का काम होगा। लाठी घुमाने से लेकर मुदगल फेरने वाले मोहन यादव ने इस कसौटी पर तो खुद को खरा साबित कर दिया है, लेकिन प्रशासनिक पकड़ बनाने में जो तत्परता दिखाई है उस पर वह कब तक कायम रह पाते हैं यह आने वाले दिनों में होगी। प्रशासनिक पकड़ की परीक्षा में निरंतरता कायम रही तो बेशक वह ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में जाने जाएंगे जिनका जनता की नब्ज पर हाथ से लेकर अच्छे प्रशासक वाली छवि रही।

राजनीतिक मोर्चे पर वह संघ के एजेंडे पर कायम हैं। तुष्टीकरण की राजनीति से खुद को परे रखकर वह सुलझे हुए अल्पसंख्यकों के साथ संवाद करते हुए शरारती तत्वों को सख्त कार्रवाई के संकेत एवं संदेश दे रहे हैं। ‘हिंदुस्तान में रहना होगा तो वंदेमातरम कहना होगा’ से एक कदम आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जन्माष्टमी पर ‘भारत में रहना है तो राम कृष्ण कहना होगा का नारा गढ़ा है’। यादव कुल में जन्में मोहन यादव ने जन्माष्टमी पर भगवान कृष्ण के जन्मदिन को जिस धूमधाम से मनवाया है, उससे साफ है कि वह संघ के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।

 वर्ष 2003 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद कमलनाथ के 15 महीने के कार्यकाल को छोड़ दें तो साफ है कि भाजपा ने ब्राहमण बनिया की पार्टी वाली छवि से निजात पाने के लिए पिछड़े वर्ग के नेताओं पर दांव खेला है। उमा भारती और बाबूलाल गौर के बाद पिछड़े वर्ग से आने वाले तीसरे नेता हैं। सबको साथ लेकर भरोसे में लेकर चलने की इस कवायद में कब तक निरंतरता बनी रहेगी? वह संघ और भाजपा की कसौटी पर कितना और कब तक खरे उतरते रहेंगे। मोहन की मुरलिया कब तक ऐसे ही बजती  रहेगी यह तो आने वाले भविष्य के गर्भ में ही छुपा है। उम्मीद की जाना चाहिए कि उन्होंने जिस गति से सूबे में काम करे की ललक दिखाई है वह जारी रहेगा।

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