इंदौर IIT ने विकसित किया सीमेंट-मुक्त कंक्रीट, HIGHWAY की मरम्मत तेजी से हो सकेगी

इस नवाचार की सबसे खास बात यह है कि इसमें फ्लाई ऐश और ग्राउंड ग्रेन्युलेटेड ब्लास्ट फर्नेस स्लैग (GGBS) जैसे औद्योगिक अपशिष्टों का उपयोग किया गया है। यह साधारण सीमेंट की जगह लेता है, जिससे करीब 80% तक CO₂ उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है।

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Vishwanath Singh
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इंदौर आईआईटी ने भवन निर्माण की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन करते हुए एक ऐसा कंक्रीट विकसित किया है, जिसमें पारंपरिक सीमेंट का इस्तेमाल नहीं होता। यह अभिनव तकनीक पर्यावरणीय दृष्टिकोण से न केवल अधिक सुरक्षित है, बल्कि निर्माण की लागत और समय दोनों को भी कम करती है। सिविल इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अभिषेक राजपूत और उनकी शोध टीम द्वारा विकसित इस कंक्रीट को "जियोपॉलिमर हाई-स्ट्रेंथ कंक्रीट (G-HSC)" नाम दिया गया है।

सीमेंट की जगह फ्लाई ऐश और औद्योगिक अपशिष्ट

इस नवाचार की सबसे खास बात यह है कि इसमें फ्लाई ऐश और ग्राउंड ग्रेन्युलेटेड ब्लास्ट फर्नेस स्लैग (GGBS) जैसे औद्योगिक अपशिष्टों का उपयोग किया गया है। यह साधारण सीमेंट की जगह लेता है, जिससे करीब 80% तक CO₂ उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है। साथ ही, इस कंक्रीट को जल उपचार (curing) की भी जरूरत नहीं पड़ती, जिससे बड़े पैमाने पर पानी की बचत संभव होती है।

तीन दिन में 80 MPa की ताकत

आईआईटी इंदौर द्वारा विकसित यह नया कंक्रीट केवल तीन दिनों में 80 मेगापास्कल (MPa) से अधिक की कंप्रेसिव स्ट्रेंथ प्राप्त कर सकता है। इसकी यह क्षमता इसे सैन्य बंकरों, पुलों, आपदा राहत ढांचों, रेलवे स्लीपरों और हाईवे की मरम्मत जैसी तेज और मजबूत निर्माण आवश्यकताओं के लिए आदर्श बनाती है।

निर्माण लागत में भी 20% की कटौती

स्थानीय और अपशिष्ट सामग्रियों के इस्तेमाल से निर्माण लागत में करीब 20% की कमी आंकी गई है। ऐसे में यह तकनीक ना केवल पर्यावरण के लिए लाभकारी है, बल्कि आर्थिक रूप से भी व्यवहारिक है।

आईआईटी इंदौर का राष्ट्रीय योगदान

  • आईआईटी इंदौर के निदेशक प्रो. सुहास जोशी ने इस उपलब्धि की प्रशंसा करते हुए कहा, “यह विकास राष्ट्रीय प्राथमिकताओं जैसे हरित बुनियादी ढांचे और नेट-जीरो कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।”
  • परियोजना प्रमुख डॉ. अभिषेक राजपूत ने कहा, “हमारा उद्देश्य एक ऐसा टिकाऊ और तेज़ समाधान प्रदान करना है, जो पर्यावरण के साथ-साथ निर्माण उद्योग के लिए भी व्यावहारिक हो। यह हमारी भावी पीढ़ियों के लिए हरित और मजबूत ढांचा बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।”

वैश्विक जलवायु संकट में समाधान की उम्मीद

गौरतलब है कि पारंपरिक सीमेंट निर्माण वैश्विक CO₂ उत्सर्जन में 8% से अधिक का योगदान करता है। ऐसे में इस तरह के नवाचार भारत को हरित अर्थव्यवस्था और सतत विकास की दिशा में मजबूत नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। आईआईटी इंदौर की यह पहल न केवल तकनीकी दृष्टि से सराहनीय है, बल्कि पर्यावरणीय संरक्षण, जल संकट से निपटने और भारत के नेट-ज़ीरो लक्ष्य की दिशा में भी एक बड़ा कदम है। यह कंक्रीट भविष्य के बुनियादी ढांचे को नई दिशा दे सकता है जहां मजबूती, गति और हरियाली एक साथ मिलती हैं।

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