Lok Sabha Elections
हरीश दिवेकर, BHOPAL. आज सच में अदम गोंडवी बहुत याद आ रहे हैं। एस्ट्रोलॉजी की दुनिया की दुनिया में बहुत जाना माना नाम है नॉस्त्रेदमस। वो जो कह गए वो एक-एक कर सच होता गया। उसी तरह अदम गोंडवी ने जो लिखा वो लगता है आज के दौर की पॉलिटिक्स पर ही लिखा हो। जैसे बरसों पहले भांप गए हों कि राजनीति का ये हाल होगा कि खुद पीएम हिंदू और मुस्लिम पर बयान देकर वोट मांगेंगे। क्या खूब लिखा है अदम गोंडवी ने जरा सुनिएगा।
हिंदू या मुस्लिम के लिए अहसासात को मत छेड़िए, अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए।
बीजेपी में मची रेलमपेल
बस ये जो कुर्सी है न, सारा माजरा इसी का है। वैसे तो सत्ताधीश की कुर्सी बहुत मजबूत होती है। लेकिन इस बार लग रहा है कि आसानी से खिसकने वाली है। जिसे बचाने के लिए बीजेपी हर पैंतरा आजमा रही है। एक तरफ चुनावी आचार संहिता के बावजूद हिंदू मुसलमान पर खुलकर बयानबाजी हो रही है। तो, दूसरी तरफ ढेर के ढेर नेताओं को पार्टी में शामिल किया जा रहा है। शायद ये सोचकर कि लोग जितने ज्यादा होंगे कुर्सी को उतनी मजबूती से थाम सकेंगे। दूसरे दल से आयातित हों तो और अच्छा। क्योंकि फिर दूसरे दल की कुर्सी को थामने वाले कम होंगे और वो कमजोर हो जाएंगे। लेकिन शायद हालात इस के उलट हो चुके हैं। कुर्सी को थामने के चक्कर में इतने लोग भीतर आ चुके हैं कि रेलमपेल मच रही है। बीजेपी इसके लिए फिक्रमंद हो या न हो, लेकिन संघ समर्थक संस्थानों को चिंता होने लगी है।
दलबदलू नेता चिंता का कारण
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए प्रतिबद्ध अखबार मध्य स्वदेश ने इस बारे में एक के बाद एक तीन बड़े आलेख छापे हैं। तीनों की चिंता एक ही है कि बीजेपी में दल बदलकर आने वाले नेता। इस अखबार ने ये भी चिंता जताई है कि कहीं यही दलबदलू नेता कम मतदान का कारण तो नहीं। आपको तीनों आलेखों का लब्बोलुआब बताते हैं।
पहला आलेख
पहला आलेख जयराम शुक्ल का है। जो वरिष्ठ पत्रकार हैं। अपने आर्टिकल में उन्होंने बताया है कि सीधी में पहले चरण के मतदान में बड़ी गिरावट दिखी और सतना का हाल इससे भी बुरा हो सकता है। उन्होंने सवाल उठाया है कि क्या इसकी वजह बीजेपी में आई दलबदलुओं की भीड़ है। जो पुराने कार्यकर्ताओं के मनोबल को प्रभावित कर रही है। 19 अप्रैल को पहले मध्यप्रदेश की जिन 6 सीटों पर मतदान हुआ, उनमें से 4 महाकौशल की छिन्दवाड़ा, बालाघाट, जबलपुर, मंडला, विंध्य की सीधी और शहडोल शामिल हैं। इन 6 सीटों का औसत मतदान 2019 के मुकाबले 8 प्रतिशत तक गिरा। सबसे ज्यादा सीधी में 14 प्रतिशत और सबसे कम छिंदवाड़ा में 2.8 प्रतिशत। जबलपुर में लगभग 9 प्रतिशत, शहडोल में 11 प्रतिशत और बालाघाट में 4।5 प्रतिशत के करीब।
अपने लेख में उन्होंने कुछ मिसालें भी पेश की हैं। मसलन सतना से कोई तीन चौथाई कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता बीजेपी में आए। इनमें पिछले चुनाव के लोकसभा प्रत्याशी पूर्व महापौर राजाराम त्रिपाठी भी हैं। एक और प्रत्याशी सुधीर तोमर पहले दौर के ही दलबदल में आ गए। नागौद के कांग्रेस के विधायक रह चुके यादवेन्द्र सिंह पूरे दलबल ढोल-धमाके के साथ बीजेपी में शामिल हुए। ये तीनों ही विंध्य के दिग्गज नेता अजय सिंह राहुल के समर्थक हैं। इनके अलावा भी सैकड़ों की संख्या में कांग्रेसियों ने भगवा गमछा पहन लिया। तत्काल असर यह दिखा कि नागौद विधायक और खजुराहो से सांसद रह चुके बीजेपी के प्रदेश के सबसे पुराने नेताओं में एक नागेन्द्र सिंह अपने किले से बाहर ही नहीं निकले। राजनाथ सिंह की सभा में बुलाने पर भी नहीं गए। रीवा में पूर्व सांसद देवराज सिंह समेत ज्यादातर वे शामिल हुए जो बसपा से कांग्रेस में आए थे। उल्लेखनीय बात यह कि अजय सिंह राहुल के रीवा और सीधी के एक भी समर्थक बीजेपी में नहीं गए। इसका सीधा अर्थ यहां के लोग जानते हैं। चूंकि सतना से कांग्रेस प्रत्याशी सिद्धार्थ डब्बू से अजय सिंह राहुल की अदावत है, इसलिए ऐसा हुआ। इस बात की कोई गारंटी नहीं कि ये लोग बीजेपी में ही टिके रहेंगे।
जयराम शुक्ल ने अपने लेख में ये भी लिखा है कि ज्यादातर दलबदलू धनबल वाले हैं। जिनके आगे बीजेपी के पुराने कार्यकर्ता चुप बैठ गए हैं। उनके लेख में छिंदवाड़ा के ट्विस्ट का भी जिक्र मिलता है। दलबदल करने वाले कमलनाथ समर्थित महापौर विक्रम अहाके ने ऐन मतदान वाले दिन ही अपनी नई पार्टी बीजेपी की जगह कमनलाथ के समर्थन में वोट करने की अपील की। तो ये मान लीजिए कि ये सिर्फ दलबदल है। इसे निष्ठा बदलना न माना जाए।
एक मोटा-मोटा गणित जो माना जा रहा है वो ये है कि दलबदल करने वाले बहुत से नेता, खासतौर से छोटे लेवल के नेता ऐसे हैं जो हर बार अपनी मर्जी से पार्टी नहीं बदल रहे हैं। वो जिस नेता को फॉलो करते हैं या तो उसकी वजह से उन्हें पार्टी बदलनी पड़ रही है या कोई ऐसा दबाव है जिसके आगे उन्हें ये फैसला करना पड़ रहा है। और, यही वजह है कि ऐसे नेताओं की निष्ठा भी उन्हीं की तरह कन्फ्यूज हैं कि वो बीजेपी की भाषा बोले या अपनी पुरानी विचारधारा पर ही चलें। अब नए आने वाले नेता और कार्यकर्ता को कन्फ्यूज का शिकार हैं ही जो बीजेपी का मूल कार्यकर्ता है वो भी निराश हो रहा है। उसके समझ से ये बात परे है कि जब वो पूरी निष्ठा से अपनी पार्टी के लिए काम कर रहा है तो नए चेहरे की जरूरत ही क्यों पड़ रही है। इस वजह से हो ये रहा है कि बीजेपी को समझने के चक्कर में नया कार्यकर्ता धीमा पड़ा हुआ है और नए की वजह से पुराना सुस्त। शायद इसी का असर पहले चरण में नजर आया है।
दूसरा आलेख
बीजेपी का कार्यकर्ता मोदी की गारंटी की तरह ही अतिआत्मविश्वास में है या फिर घुटन में है। ये सवाल मेरा नहीं है ये सवाल मध्य स्वदेश के समूह संपादक अतुल तारे ने अपने आलेख में उठाया है। जो इस कड़ी का दूसरा आलेख है। फिक्र वही है कि मतदान प्रतिशत क्यों घटा। वो अपने लेख में लिखते हैं कि जबलपुर में श्री मोदी के ऐतिहासिक रोड शो के बावजूद मतदान का प्रतिशत 9 फीसदी गिरना क्या संकेत देता है ? 400 पार का नारा देने वाली बीजेपी को पहले चरण के मतदान के बाद यह सोचना ही होगा कि 2019 के बाद मतदान का प्रतिशत 7.5 प्रतिशत घटना अच्छे संकेत नहीं हैं। विचार करना होगा कि क्या कार्यकर्ता अति आत्मविश्वास में है ? या वह भी किसी अव्यक्त घुटन में है ? उन्होंने आगे जो भी लिखा वो कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी के चिंतनीय है। सुनिए... बिना किसी पृष्ठभूमि की परवाह किए बीजेपी में शामिल करने की दिशाहीन लालसा कांग्रेस का कितना नुकसान करेगी, पता नहीं, पर बीजेपी के आंतरिक शुचिता का स्वास्थ्य बेशक खराब कर रही है। प्रसंगवश, राजनीतिक शोधार्थी ध्यान दें। ज्योतिरादित्य सिंधिया एक बड़े नेता, उनके साथ 22 विधायक आते हैं। सरकार बीजेपी की बन जाती है। पर क्या कांग्रेस का वोट शेयर इतने बड़े राजनीतिक परिवर्तन के बाद कम हुआ ? नहीं हुआ। तात्पर्य बड़े नाम आ जाएंगे। उनके हित भी साध लिए जाएंगे। पर बीजेपी जमीन पर इससे मजबूत होगी, शक है।
ये चिंता कितनी मौजू है। हैरानी है कि बीजेपी को अब तक ये चिंता क्यों सता नहीं रही है। क्या ऐसा नहीं लगता कि भारी संख्या में नेताओं को भरने के बाद भी बीजेपी परेशान है और कांग्रेस फिर भी शांत है। तो, क्या कांग्रेस भी समझ रही है कि दल बदलने वाले नेता उसे नहीं बल्कि बीजेपी को ही कमजोर कर रहे हैं।
तीसरा आलेख
तीसरा आलेख वरिष्ठ पत्रकार शक्ति सिंह परमार का है। जिन्होंने चेताया है कि कांग्रेस से आए बड़े नेताओं की मानसिकता नहीं बदलती और वे अपने पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर ही विश्वास करते हैं। विचार करें कि इससे जमीनी स्तर पर कमजोर कौन हो रहा है? ये तीन आलेख मध्य स्वदेश में अब छपे हैं। जबकि हालात विधानसभा चुनाव के पहले से ही खराब होने लगे हैं। शायद अब पानी सिर से ऊपर जा चुका है इसलिए संघ समर्थिक अखबार को पहल करनी पड़ी है। विधानसभा चुनाव से पहले के ही न्यूज स्ट्राइक के कुछ एपिसोड में मैं इस तरफ ध्यान खींच चुका हूं कि बीजेपी महाराज भाजपा, शिवराज भाजपा और नाराज भाजपा में बंट चुकी है। इसमें महाराज भाजपा यानी वो कांग्रेसी हैं जिन पर अब भाजपाई होने का टैग लग गया है। ये हाल सिर्फ मध्यप्रदेश में ही नहीं है ये हाल ऐसी हर सीट पर है जहां दल बदल बड़ी संख्या में या किसी बड़े नेता का हुआ है। बीजेपी का संगठन उसके सामने नतमस्तक है और उसके साथ आए समर्थकों के आगे बीजेपी के खुद के कार्यकर्ता बौने बने हुए हैं।
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बीजेपी खुद दूर कर रही 400 पार का लक्ष्य !
चुनाव जैसे-जैसे उफान पर हैं सोशल मीडिया भी दो भागों में बंटा हुआ है। हिंदू मुस्लिम वाले पीएम मोदी के बयान पर कुछ कांग्रेस समर्थिक सोशल मीडिया हैंडल्स और कुछ चुनाव विश्लेषक इसे कम मतदान प्रतिशत की बौखलाहट भी बता रहे हैं। अगर ऐसा है तो ये बिलकुल सही समय है जब बीजेपी को ये मान लेना चाहिए कि दलबदल से कांग्रेस से ज्यादा उसे ही नुकसान है। सत्ता में वापसी तो तय मान सकते हैं, लेकिन इस तरह वो खुद को 400 पार वाले लक्ष्य से दूर कर रही है।
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