News Strike : बीजेपी में नेता पुत्रों के भविष्य पर बड़ा संकट मंडरा रहा है। ये सवाल बीजेपी में बार-बार उठता है। लेकिन अब ये वाकई पुरानी लीडरशिप के माथे पर चिंता की लकीरें खींच रहा है। बीजेपी में अगर एमपी के लिहाज से ही बात करें तो ऐसे बहुत से नेता हैं जो अपनी दूसरी पीढ़ी को सियासत में स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन वंशवाद की खिलाफत कर रही बीजेपी में ऐसा कोई स्कोप दिखाई नहीं दे रहा है। मौजूदा समय में कार्तिकेय सिंह चौहान को टिकट नहीं मिला तो एक बार फिर बीजेपी नेताओं की चिंता बढ़ना लाजमी है। क्योंकि इस फेहरिस्त में ऐसे बहुत से नेता हैं जो सत्ता को अपने बेटे या बेटियों को सौंपना चाहते हैं। लेकिन अब उनकी दाल गलना और भी ज्यादा मुश्किल हो चुकी है। चलिए जानते हैं ऐसे कौन कौन से नेता हैं। जो इस इंतजार में आधी से ज्यादा उम्र गुजार चुके हैं।
इस नारे ने बढ़ाई नेताओं की मुश्किलें
फिल्मी दुनिया में कंगना रनौत ने नेपोटिज्म को लेकर जमकर हमला बोला तो सियासी मैदान में बीजेपी में वंशवाद और परिवारवाद के खिलाफ जाने का नारा बहुत बुलंद है। लेकिन अब हालात ये है कि इस नारे को कांग्रेस नेताओं के खिलाफ इस्तेमाल करते-करते अब बीजेपी के ही नेताओं की मुश्किलें बढ़ने लगी हैं। जिन नेताओं ने बहुत जोरशोर से कांग्रेस में परिवारवाद का मजाक उड़ाया। या मजाक पर खामोश रहे। अब उन नेताओं के सामने सवाल है कि वो खुद अपने बेटों को अपनी ही पार्टी से सियासी रूप से स्थापित कैसे करेंगे। ये परेशानी बढ़ी तो बीजेपी में परिवारवाद की डेफिनेशन बदलने की कोशिश भी हुई।
पिता मंत्री और बेटा पार्टी का एक आम कार्यकर्ता
एक बार तो खुद अमित शाह ने परिवारवाद की नई डेफिनेशन दी। उन्होंने कहा कि परिवारवाद का मतलब ये नहीं कि एक ही परिवार में टिकट नहीं दिए जाएंगे। परिवारवाद का मतलब ये है कि पिता भी एक्टिव राजनीति में हो और पुत्र भी एक्टिव राजनीति में हो तो मुश्किल है। हालांकि रतलाम में नागर सिंह चौहान के परिवार पर ये बात फिट नहीं बैठती। जहा पति पत्नी दोनों ही एक्टिव राजनीति में है। इसके बाद परिवारवाद की नई डेफिनेशन सामने आई जिसमें कहा गया कि जब किसी एक ही परिवार का सिक्का किसी पार्टी में चलता रहे तब वो परिवारवाद है। यानी परिवारवाद की डेफिनेशन तो नए सिरे से गढ़ी जा रही है। लेकिन उसके नाम पर कोई तय क्राइटेरिया नहीं है। जिसका खामियाजा नेता पुत्रों को भुगतना पड़ रहा है। कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय को पार्टी ने पिछले चुनाव में टिकट दिया था। इसके बाद बीजेपी में उम्मीद की किरण दिखाई दी थी, नेताओं को लगा था कि अब उनके बेटे वाकई सन की तरह शाइन कर सकेंगे। लेकिन इस चुनाव में वो उम्मीदें फिर पानी में मिल गई। आकाश विजयवर्गीय की जगह उनके पिता को ही चुनाव मैदान में उतार दिया गया। यानी विजयवर्गीय तो फिर विधायक और मंत्री बन गए और बेटा पार्टी का एक आम कार्यकर्ता रह गया।
इन नेताओं के बेटों को भी नहीं मिला मौका
शिवराज सिंह चौहान के बारे में भी ये खबर आ रही थी कि वो अपनी जगह अपने बेटे को बुधनी की सीट सौंपना चाहते हैं। लेकिन चार बार के सीएम और अब केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इस मामले में कामयाबी हासिल नहीं कर सके। उनके बेटे को टिकट नहीं मिल सका। ऐसे नेताओं की फेहरिस्त सिर्फ एमपी में ही काफी लंबी है। खुद केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस लिस्ट का हिस्सा हैं। जिनके बेटे महाआर्यमन सिंधिया पॉलिटिकली एक्टिव हो चुके हैं। उनके बेटे चुनावी सभाएं करते देखे गए हैं। अमित शाह की दावत में भी उन्हें जयविलास पैलेस में खूब हाईलाइट किया गया। लेकिन क्या उन्हें आगे इसका कुछ फायदा मिल सकेगा। ये फिलहाल कहना मुश्किल है। बीजेपी में सबसे ज्यादा एक्टिव नेता नरोत्तम मिश्रा भी इस मामले में कुछ खास नहीं कर सके। वो ऐसे नेता है जिन्हें कांग्रेस से सबसे ज्यादा लोग बीजेपी में शामिल कराने का क्रेडिट दिया जाता है लेकिन नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण की अब तक धुआंधार पॉलिटिकल लॉन्चिंग नहीं हो सकी है। सबसे वरिष्ठ नेता गोपाल भार्गव की बात भी कर लेते हैं। उनके बेटे अभिषेक भार्गव पिता के चुनाव क्षेत्र में खासे एक्टिव हैं। लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला। नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह, गोविंद सिंह राजपूत के बेटे आकाश सिंह, तुलसी राम सिलावट के बेटे नीतीश सिलावट सब इस इंतजार में हैं कि एक न एक दिन उनका कद सिर्फ बीजेपी कार्यकर्ता से ज्यादा ऊपर होगा। और शायद वो चुनाव में टिकट हासिल कर सकें। प्रभात झा भी जीते जी अपने बेटे तुष्मुल झा को टिकट नहीं दिला सके।
बीजेपी में परिवारवाद का क्राइटेरिया स्पष्ट नहीं
ये कहना बिलकुल गलत होगा कि बीजेपी ने कभी परिवारवाद को हवा नहीं दी। इससे पहले बहुत से नेता पुत्र या रिश्तेदार राजनीति में टिकट हासिल कर मुकाम भी हासिल कर चुके हैं। उनके नाम भी आपको बताते हैं। सबसे पहले बात सुंदरलाल पटवा। जिनके भतीजे सुरेंद्र पटवा को टिकट मिला और वो जीते भी, मंत्री भी बने। कैलाश सारंग के बेटे विश्वास सारंग भी जीतते आ रहे हैं और कैबिनेट में हिस्सा भी बन रहे हैं। पूर्व विधायक सत्येंद्र पाठक के बेटे संजय पाठक भी इस फेहरिस्त में शामिल रहे। पूर्व सीएम बाबूलाल गौर की बहू कृष्णा गौर महापौर रहीं और अब मंत्री भी हैं। पूर्व विधायक प्रेम सिंह दत्तीगांव के बेटे राज्यवर्धन सिंह दत्तीगांव भी विधानसभा चुनाव जीते और फिर मंत्री रह चुके हैं। इसलिए बार-बार ये इल्जाम लगता है कि बीजेपी में परिवारवाद का क्राइटेरिया स्पष्ट नहीं है। जिसकी वजह से दिग्गज नेता भी तय नहीं कर पाते कि उनके बेटों के टिकट मिलेगा या नहीं। और ये सवाल भी उठता है कि क्या बीजेपी में नेताओं की अगली पीढ़ी यानी कि नेता पुत्रों का कोई भविष्य है भी या नहीं।
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