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मध्यप्रदेश में आए–दिन बिजली कंपनी अपनी दरों में वृद्धि कर देती है। इसको लेकर सरकार भी चुप्पी साधे हुए है, क्योंकि इसमें बिजली कंपनी और सरकार दोनों की मिलीभगत है। दोनों मिलकर जनता को कैसे ठग रहे हैं और बिजली की दरें बढ़ा रहे हैं, यह है इसके पीछे का पूरा खेल।
सरकार करती है घोषणा और फिर कंपनी यह करती है
दरअसल, सरकार लगातार लोगों के सामने अपनी छवि चमकाने के लिए बिजली दर पर सब्सिडी की घोषणा करती है। यानी बिजली कंपनी बिल में सरकार की घोषणा के तहत छूट देगी और बदले में सरकार द्वारा इस छूट की राशि यानी सब्सिडी की राशि बिजली कंपनी को देकर भरपाई करेगी। अब यहीं पर खेल होता है। दरअसल सरकार सब्सिडी की घोषणा करके बिजली कंपनी से छूट दिलवा देती है, लेकिन यह राशि बिजली कंपनी को नहीं देती है।
अब बिजली कंपनी भी सरकारी घोषणा वाली सब्सिडी को अपनी राशि मानकर उसे बैलेंस शीट में सरकार पर बकाया यानी उधार के रूप में दिखा देती है। ऐसे में बिजली कंपनी को जो पूरा प्रॉफिट होता है, उसमें कंपनी इस सब्सिडी राशि को बकाया दिखाते हुए घाटा दिखा देती है। ऐसे में कंपनी का पूरा प्रॉफिट कम हो जाता है और इस घाटे को दिखाकर कंपनी विद्युत नियामक आयोग के पास दर बढ़ाने का प्रस्ताव ला देती है और इस तरह आम उपभोक्ता से अधिक दरों पर वसूली शुरू हो जाती है।
ऐसे हुआ खुलासा
मध्यप्रदेश में बिजली की लगातार बढ़ती कीमतों के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर इंदौर हाईकोर्ट में सुनवाई हुई। कोर्ट ने विद्युत वितरण कंपनी की लापरवाही पर नाराजगी जताते हुए चार सप्ताह में विस्तृत जवाब पेश करने का निर्देश दिया है। अदालत ने यह भी कहा कि 2022 में दायर याचिका के बावजूद अब तक कंपनी ने जवाब क्यों नहीं दिया, यह गंभीर प्रश्न है। जनहित याचिका सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व पार्षद महेश गर्ग द्वारा एडवोकेट प्रतीक माहेश्वरी के माध्यम से दायर की गई थी। याचिका में बिजली की दरों में की जा रही निरंतर वृद्धि को अनुचित और जनविरोधी बताया गया है।
सरकार की घोषणा के 96,000 करोड़ की वसूली
इस मामले में याचिकाकर्ता महेश गर्ग ने अधिवक्ता प्रतीक माहेश्वरी के जरिए जनहित याचिका लगाई। इसमें माहेश्वरी ने बताया कि कोर्ट के समक्ष बिजली कंपनी की ओर से जानकारी दी गई कि राज्य सरकार पर लगभग 96,000 करोड़ की राशि बकाया है। कंपनी का कहना है कि इस रकम के अभाव में उसे टैरिफ बढ़ाकर उपभोक्ताओं से वसूली करनी पड़ रही है। वहीं याचिकाकर्ता की दलील है कि यह बोझ जनता पर डालना पूरी तरह से अन्यायपूर्ण है। यानी सरकारी घोषणा के 96 हजार करोड़ की वसूली बिजली कंपनी आम उपभोक्ता से कर रही है।
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सरकार की सब्सिडी केवल घोषणाओं तक
याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार चुनावों से पहले जनता को राहत देने के लिए बिजली बिलों में छूट और सब्सिडी की घोषणाएं करती है, लेकिन बाद में उन राशियों का भुगतान बिजली कंपनियों को नहीं होता। इसका असर कंपनियों की बैलेंस शीट पर पड़ता है और वे अपने घाटे को पूरा करने के लिए बिजली दरें बढ़ा देती हैं। इससे आम जनता को अतिरिक्त आर्थिक बोझ उठाना पड़ता है। यदि सरकार समय पर सब्सिडी की राशि दे दे, तो दरें बढ़ाने की आवश्यकता ही नहीं पड़े।
मप्र में देश की दूसरी सबसे महंगी बिजली
महेश गर्ग ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि मध्यप्रदेश में बिजली की दरें देश के अधिकांश राज्यों की तुलना में अधिक हैं। शहरी क्षेत्रों में 8.73 प्रति यूनिट और ग्रामीण क्षेत्रों में 8.61 प्रति यूनिट की दर से बिजली दी जा रही है, जो महाराष्ट्र के बाद देश में दूसरी सबसे महंगी है। वहीं केंद्रशासित प्रदेश दमन-दीव में यह दर मात्र 1.71 प्रति यूनिट है। इससे स्पष्ट है कि मध्यप्रदेश में उपभोक्ताओं को अत्यधिक दरों पर बिजली दी जा रही है।
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हाईकोर्ट ने उठाए गंभीर सवाल
हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई के दौरान इस मुद्दे को जनहित का विषय मानते हुए बिजली कंपनियों और शासन की आपत्तियों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने पूछा कि यदि सरकार ने सब्सिडी की घोषणा की थी तो वह राशि बिजली कंपनियों को जमा क्यों नहीं की गई? कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि बिजली दरें तय करते समय जनता की आपत्तियों और सुझावों पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है।
किसानों और उद्योगों पर भी असर
याचिकाकर्ता ने बताया कि बिजली दरों में बढ़ोतरी से न केवल आम उपभोक्ता, बल्कि किसान और उद्योगपति भी परेशान हैं। किसानों को फसलों की सिंचाई के लिए चलने वाले पंपों का खर्च उठाना मुश्किल हो गया है। वहीं कई छोटे उद्योग बिजली की बढ़ी लागत के कारण बंदी के कगार पर पहुंच चुके हैं।
याचिका में ये मांगें रखी गईं
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जब तक राज्य सरकार द्वारा घोषित सब्सिडी और बकाया बिलों की राशि बिजली कंपनियों को नहीं दी जाती, तब तक बिजली दरों में कोई वृद्धि न की जाए।
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बिजली दरें उत्पादन लागत के आधार पर तय की जाएं, न कि कंपनियों के घाटे को भरने के लिए।
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बिजली टैरिफ बढ़ाने की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाई जाए और जनता की आपत्तियों को गंभीरता से लिया जाए।
कमीशन की कार्यप्रणाली पर भी उठे सवाल
याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि बिजली नियामक आयोग (कमीशन) द्वारा बिना उचित मूल्यांकन के बिजली कंपनियों की दर वृद्धि प्रस्तावों को मंजूरी दे दी जाती है, जिससे उपभोक्ताओं पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। याचिकाकर्ता ने मांग की है कि बिजली दरों को रेशनलाइज किया जाए ताकि आमजन के हितों की रक्षा हो सके।
अदालत की अगली सुनवाई अगस्त में
हाईकोर्ट ने कंपनी की शुरुआती आपत्तियों को खारिज करते हुए कहा कि वह मामले की मेरिट पर जवाब दे। कोर्ट ने सभी संबंधित पक्षों राज्य शासन, विद्युत नियामक आयोग और बिजली वितरण कंपनियों को चार सप्ताह में चरणबद्ध जवाब प्रस्तुत करने के निर्देश दिए हैं। मामले की अगली सुनवाई अगस्त में होगी।
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