Bhopal Gas Tragedy : भारतीय इतिहास में 2-3 दिसंबर 1984 की रात एक ऐसी भयावह घटना के रूप में दर्ज है, जिसे भुला पाना मुश्किल है। यह घटना भोपाल गैस त्रासदी थी, जिसने मानवता पर अमिट छाप छोड़ी। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के कीटनाशक संयंत्र से लीक हुई मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली और लाखों लोगों को शारीरिक और मानसिक पीड़ा पहुंचाई। इस औद्योगिक दुर्घटना को दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक दुर्घटनाओं में से एक माना जाता है।
गैस रिसाव ने पूरी दुनिया को हिला दिया
भोपाल गैस त्रासदी ने भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में औद्योगिक सुरक्षा मानकों को हिलाकर रख दिया। त्रासदी के बाद औद्योगिक नियमों और सुरक्षा उपायों पर पुनर्विचार किया गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गैस रिसाव ने न केवल भोपाल बल्कि पूरे देश को हिलाकर रख दिया और इसका असर आज भी जारी है। आइए इस घटना को और विस्तार से समझते हैं और जानते हैं कि यह कैसे हुआ, इसके क्या परिणाम हुए और इसके बाद क्या हुआ।
प्लांट की तकनीकी खराबी पर नहीं दिया ध्यान
भोपाल गैस त्रासदी का मुख्य कारण मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस का रिसाव था, जिसका उपयोग यूनियन कार्बाइड कंपनी अपने कीटनाशक उत्पादों के निर्माण में करती थी। MIC एक अत्यंत जहरीली और खतरनाक गैस है, जिसका उपयोग मुख्य रूप से कीटनाशक बनाने में किया जाता है। यह गैस मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत खतरनाक है और कुछ ही समय में जानलेवा साबित हो सकती है। हादसे की रात भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के एक बड़े टैंक में तकनीकी खराबी के कारण MIC गैस का रिसाव होने लगा। इस रिसाव के कई कारण सामने आए हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण प्लांट में सुरक्षा मानकों की लापरवाही और प्रबंधन की विफलता को माना जा रहा है। दरअसल, प्लांट में कई तकनीकी खराबी थीं, लेकिन उन्हें ठीक करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। इसके अलावा गैस रिसाव के बाद आपातकालीन प्रक्रियाओं और उपकरणों का ठीक से काम न करना भी एक प्रमुख कारण था। प्लांट में स्थित सुरक्षा प्रणालियां (जैसे पानी के पर्दे और फ्लेयर टावर) ठीक से काम नहीं कर रही थीं, और कर्मचारी इस आपातकालीन स्थिति को संभालने में असमर्थ थे।
इस घटना में करीब 30 हजार लोग मारे गए
भोपाल गैस त्रासदी के तत्काल प्रभाव से एक लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए थे। हालांकि, इस त्रासदी में मरने वालों की संख्या पर अभी भी विवाद है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, इस घटना में लगभग 30 हजार लोग तत्काल मारे गए थे। जबकि अन्य मानवाधिकार संगठनों और विशेषज्ञों का कहना है कि यह संख्या इससे कहीं ज्यादा थी। कुछ रिपोर्ट्स में यह संख्या 8 हजार से 10 हजार बताई गई है। गैस के प्रभाव से न केवल मौतें हुईं, बल्कि हजारों लोग गंभीर रूप से घायल भी हुए। इनमें से कई लोग शारीरिक और मानसिक रूप से प्रभावित हुए और आज भी पीड़ित हैं। जब हम दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार करते हैं तो यह आंकड़ा और भी बढ़ जाता है। त्रासदी के बाद लंबे समय तक कई लोग सांस की बीमारियों, कैंसर, आँखों में जलन, त्वचा के घावों और मानसिक विकारों से पीड़ित रहे। इसके अलावा, गर्भवती महिलाओं ने विकलांग बच्चों को जन्म दिया और अजन्मे बच्चों के स्वास्थ्य पर भी गंभीर असर पड़ा।
गैस रिसाव से पानी और हवा हुई प्रदूषित
भोपाल गैस त्रासदी के बाद शहर में पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ा। यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के आसपास का इलाका जहरीले रसायनों से प्रदूषित हो गया, जिससे न केवल मानव निर्मित बुनियादी ढांचे बल्कि प्राकृतिक संसाधन भी खतरे में पड़ गए। यहां के जल स्रोत भारी मात्रा में जहरीले रसायनों से दूषित हो गए, जिसके कारण आसपास के इलाके के लोगों को पीने के पानी की समस्या का सामना करना पड़ा।
गैस त्रासदी के मानसिक और सामाजिक प्रभाव भी बहुत बड़े थे। हजारों लोग मानसिक रूप से प्रभावित हुए। लोगों पर भय, असुरक्षा और मौत का साया छा गया। उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया और समाज में गहरी अस्थिरता फैल गई। सामाजिक संरचना, जीवनशैली और रिश्तों पर इसका असर लंबे समय तक रहा।
ऐसे हुआ था गैस का रिसाव और फैलाव
2-3 दिसंबर की रात करीब 12 बजे यूनियन कार्बाइड के एक टैंक में स्टोर की गई एमआईसी गैस लीक हो गई। हवा के साथ गैस फैलकर आसपास के इलाकों में घुलने लगी। शुरुआत में गैस ने फैक्ट्री के आस-पास के इलाकों को प्रभावित किया, लेकिन हवा की दिशा के कारण जल्द ही यह भोपाल शहर के बड़े हिस्से में फैल गई। गैस के संपर्क में आने से लोगों को अचानक सांस लेने में दिक्कत होने लगी। कुछ ही घंटों में हजारों लोग गंभीर बीमारी का शिकार हो गए। गैस के संपर्क में आने से आंखों में जलन, चक्कर आना, सांस फूलना और अत्यधिक थकान जैसी समस्याएं होने लगीं। गैस का असर इतनी तेजी से फैला कि लोगों को अपनी जान बचाने का समय ही नहीं मिला। महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग और युवा सभी इस जानलेवा गैस की चपेट में आ गए। गैस ने इमारतों और पर्यावरण को भी प्रभावित किया- पौधे, जल स्रोत और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित हुआ।
मुआवजे के लिए दर-दर भटक रहे लोग
गैस त्रासदी के बाद पीड़ितों ने न्याय की मांग शुरू की। सरकार और यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कानूनी लड़ाई शुरू की गई। 1989 में यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच समझौता हुआ, जिसमें कंपनी ने 470 मिलियन डॉलर का मुआवजा देने पर सहमति जताई। हालांकि, यह समझौता विवादास्पद रहा क्योंकि अधिकांश प्रभावितों को पर्याप्त मुआवजा नहीं मिला और यह राशि उस समय की जरूरतों से बहुत कम थी। इसके अलावा, यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों पर त्रासदी के लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाया गया, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कभी भारत नहीं लाया गया और उन पर मुकदमा नहीं चलाया गया। यूनियन कार्बाइड के पूर्व सीईओ वॉरेन एंडरसन को भी कभी न्याय के कटघरे में नहीं लाया गया क्योंकि वे अमेरिका में रहने के कारण भारत नहीं आ सके।
समय के साथ, भोपाल गैस त्रासदी ने न्यायपालिका, सरकार और समाज को यह सोचने पर मजबूर किया कि क्या औद्योगिक कंपनियां अपने लाभ के लिए मानव जीवन की कीमत पर कार्य कर सकती हैं।
नाकाफी रहे सरकार के प्रयास
भोपाल गैस त्रासदी के लगभग 15 साल बाद, 2000 तक पीड़ितों को पर्याप्त राहत नहीं मिली थी। सरकार ने कुछ कदम उठाए थे, लेकिन ये पूरी तरह से अपर्याप्त थे। बहुत से लोग अभी भी बीमार थे, उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे और उनका जीवन दुखों से भरा हुआ था। भोपाल गैस त्रासदी ने यह स्पष्ट कर दिया कि जब तक औद्योगिक सुरक्षा और पर्यावरण जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लिया जाता, तब तक ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहेंगी। इस घटना ने दुनिया भर में औद्योगिक सुरक्षा मानकों की समीक्षा की आवश्यकता को उजागर किया। इसके बाद कई देशों ने औद्योगिक नियमों और सुरक्षा उपायों को कड़ा किया।
भोपाल गैस त्रासदी ने साबित कर दिया कि अगर बड़ी औद्योगिक कंपनियां सुरक्षा उपायों की अनदेखी करती हैं, तो परिणाम भयावह हो सकते हैं। यह त्रासदी सिर्फ भोपाल के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक चेतावनी थी। जब तक सही कदम नहीं उठाए जाते और जब तक कंपनियां और सरकारें किसी तरह की ज़िम्मेदारी नहीं लेतीं, तब तक ऐसी त्रासदियां खतरा बनी रहेंगी। 1984 में हुई यह दुर्घटना सिर्फ उस समय के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक कलंक बनी हुई है। इसे मानवता की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक के रूप में याद किया जाएगा।
पुनर्वास योजनाओं की विफलता
साल 2010 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गैस पीड़ितों के पुनर्वास के लिए 272 करोड़ रुपए की राशि स्वीकृत की गई थी। इसमें 75 फीसदी राशि केंद्र सरकार और 25 फीसदी राज्य सरकार की थी। लेकिन 14 साल बाद भी इस राशि का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाया है। गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग अब तक इस राशि को खर्च करने की ठोस योजना नहीं बना पाया है। आर्थिक पुनर्वास के लिए मिले 104 करोड़ रुपए में से सिर्फ 18 करोड़ रुपए ही स्वरोजगार प्रशिक्षण पर खर्च किए गए, बाकी राशि बेकार पड़ी है। सामाजिक पुनर्वास के लिए आवंटित 40 करोड़ रुपए में विधवाओं को पेंशन देने का प्रावधान है। वर्तमान में 4399 महिलाओं को पेंशन दी जा रही है, लेकिन वर्ष 2011 से यह राशि सिर्फ 1000 रुपए प्रतिमाह है। इसे बढ़ाने या नए लाभार्थियों को शामिल करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।चार दशक बाद भी पीड़ित कर रहे संघर्ष
गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता लगातार सरकार से उनकी समस्याओं के समाधान की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि जहरीले कचरे का निपटान और प्रदूषित भूजल की नए सिरे से जांच प्राथमिकता होनी चाहिए। भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक बाद भी पीड़ितों का संघर्ष जारी है। वे न केवल अपने स्वास्थ्य और आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि वे सरकारी योजनाओं और न्याय की लड़ाई में भी खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। यह त्रासदी न केवल भोपाल बल्कि पूरे देश के लिए चेतावनी है कि औद्योगिक लापरवाही कितनी विनाशकारी हो सकती है।
1934 में हुई थी यूनियन कार्बाइड की स्थापना
यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की स्थापना 1934 में भोपाल में हुई थी। हादसे के समय यहां करीब 9 हजार लोग काम करते थे। इस कंपनी में यूनियन कार्बाइड और कार्बन कॉर्पोरेशन की 50.9 फीसदी हिस्सेदारी थी, जबकि 49.1 फीसदी हिस्सेदारी भारत सरकार और सरकारी बैंकों समेत भारतीय निवेशकों के पास थी। भोपाल फैक्ट्री में बैटरी, कार्बन उत्पाद, वेल्डिंग उपकरण, प्लास्टिक, औद्योगिक रसायन, कीटनाशक और समुद्री उत्पाद बनाए जाते थे। साल 1984 में यह कंपनी देश की 21 सबसे बड़ी कंपनियों में शामिल थी।
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