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मप्र भाजपा जिला अध्यक्ष नियुक्ति Photograph: (the sootr)
News Strike : बीजेपी जिलाध्यक्षों की नियुक्ति इस बार संगठन की व्यवस्था से ज्यादा दिग्गजों की साख का सवाल बनी। और, जिस नेता ने सबसे ज्यादा साख गंवाई वो नरेंद्र सिंह तोमर हैं। जिनकी अपने क्षेत्र में ही कुछ खास नहीं चल सकी। वैसे नरेंद्र सिंह तोमर प्रदेशव्यापी नेता हैं। उनका रसूख पूरे प्रदेश में है। लेकिन खास दबदबा तो ग्वालियर चंबल के क्षेत्र में है। इस क्षेत्र में नरेंद्र सिंह तोमर की बमुश्किल किसी एकाध जिले पर ही मर्जी चल सकी है। सियासी गलियारों में अटकले हैं कि दो दिग्गजों की सांठ गांठ के चलते नरेंद्र सिंह तोमर की मर्जी दरकिनार होती चली गई।
दिग्गजों के टकराव का विषय बना
बीजेपी जिलाध्यक्षों की नियुक्ति का मामला जब से चल रहा है। तब से लगातार सुर्खियां भी बटोर रहा है। आप इससे जुड़ी खबरें पढ़ रहे हैं तो आपको भी ये लाइन बार-बार लिखी नजर आई होगी कि पहली बार जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में बीजेपी में इतनी माथा पच्ची हो रही है। और, सियासी बवंडर सा आया हुआ है। हालांकि इस बवंडर को दबाए रखने की पूरी कोशिश हो रही है। कहने को तो ये सिर्फ जिलाध्यक्षों की नियुक्ति का मामला है। लेकिन इस बार ये बीजेपी दिग्गजों की रसूख की लड़ाई का मुद्दा बन गया। नतीजा ये हुआ कि पहले तो अहम जिलों को डिवाइड कर दो में बांट दिया गया। जिस वजह से कुल 62 जिलाध्यक्षों की नियुक्ति पर चर्चा शुरू हुई। चर्चा तो सिर्फ जिलाध्यक्ष के लेवल के नामों से हुई थी। जिसके लिए कुछ क्राइटेरिया फिक्स किए गए। लेकिन चर्चा का दौर कब दिग्गजों के टकराव का विषय बना, ये शायद बीजेपी को देर से ही अहसास हुआ। जिसके बाद जिलाध्यक्षों की लिस्ट कई दिनों तक लटकी रही। और, अब धीरे धीरे उसे जारी किया जा रहा है। जिसके बाद ये तस्वीर क्लियर होती जा रही है कि किस दिग्गज की कितनी ज्यादा चली है। इसमें भी सबसे ज्यादा हाईलाइट रहा ग्वालियर चंबल का एरिया। जहां दिग्गजों की सांठगांठ या सहमति इस क्षेत्र की राजनीति में बड़ा ट्विस्ट लाती दिख रही है।
पार्टी का क्राइटेरिया ताक पर चला गया
ग्वालियर चंबल से वैसे तो बीजेपी में कई बड़े नेता हैं लेकिन हम दो क्षत्रपों की बात करते हैं। एक नरेंद्र सिंह तोमर हैं और दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। दोनों ही अपने-अपने पसंदीदा कैंडिडेट को अपने जिलों का पद दिलवाना चाहते थे। लेकिन सिंधिया ने ऐसा पांसा खेला कि क्राइटेरिया भी ताक पर चला गया। और, एक जगह भले ही वो अपनी पसंद का जिलाध्यक्ष न बनाव सके हों लेकिन नरेंद्र सिंह तोमर का भी पत्ता काट ही दिया। पहले बात करते हैं उस जिलाध्यक्ष की जिसे ये पद देने की खातिर पार्टी ने क्राइटेरिया तक ताक पर रख दिया। ये नाम जसवंत जाटव है। जिन्हें शिवपुरी का जिलाध्यक्ष बनाया गया है। लिस्ट में ये नाम सबसे ज्यादा चौंकाने वाला है। क्योंकि जसवंत जाटव कुछ ही समय पहले कांग्रेस से बीजेपी में आए हैं। इस नाते वो पार्टी के क्राइटेरिया पर बिलकुल फिट नहीं बैठते हैं। असल में जिलाध्यक्ष पद के लिए बीजेपी ने ये क्राइटेरिया रखा था कि वो दावेदार को कम से कम छह साल से पार्टी का सक्रिय सदस्य होना चाहिए। इस गाइड लाइन या क्राइटेरिया को नजरअंदाज करते हुए जसवंत जाटव को ये जिम्मेदारी सौंपी गई। जबकि बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दिया था। इसके अलावा अशोक नगर में भी सिंधिया की पसंद हावी रही। उनके समर्थक आलोक तिवारी को इस जिले की कमान सौंपी गई है।
अकेले पड़ गए नरेंद्र सिंह तोमर
अब बात नरेंद्र सिंह तोमर की करते हैं। तोमर की पसंद श्योपुर में खूब चली। यहां उनकी पसंद बने शशांक भूषण को जिले की जिम्मेदारी सौंपी गई। लेकिन असल खेल हुआ ग्वालियर की सीट पर इस सीट पर तोमर और सिंधिया अपनी अपनी पसंद के दावेदार को टिकट दिलाना चाहते थे। इन दो दिग्गजों के अलावा प्रदेशाध्यक्ष भी अपने पसंदीदा नेता के नाम पर अड़े थे। पूरे मामले में सियासी टविस्ट तब आया जब पता चला कि सिंधिया ने भी वीडी शर्मा की पसंद पर सहमति जता दी है। जिसके बाद तोमर अकेले पड़ गए। सिवाय अपने समर्थक का नाम पीछे लेने के, उनके पास कोई और चारा भी नहीं बचा था। हालांकि सियासी ड्रामा भरपूर हुआ। बैठक में मान मनोव्वल का दौर भी चला। जिसके बाद फाइनली ग्वालियर जिलाध्यक्ष के नाम का ऐलान हुआ। इस जिले से तोमर अपने कीरीब रामेश्वर भदौरिया को मौका दिलाना चाहते थे। ग्वालियर के पुराने जिलाध्यक्ष अभय चौधरी भी तोमर के ही करीबी थे। इस बार भी तोमर ने इस जिले पर एड़ी चोटी का जोर लगाया हुआ था। लेकिन वीडी शर्मा की पहली पसंद जयप्रकाश राजोरिया थे। वो अपनी इस पसंद पर इस कदर डटे थे कि एक राय कायम करने के लिए खुद ग्वालियर पहुंच गए। तोमर ने अपनी पसंद को लेकर हितानंद शर्मा और शिवप्रकाश जैसे नेताओं से भी चर्चा कर ली थी। लेकिन उसका भी कुछ असर नहीं हुआ।
कम होने लगा तोमर का दबदबा
वीडी शर्मा और तोमर के बीच ग्वालियर में ही लंबी बैठक चली। उसके बाद बैठक में ही जयप्रकाश राजोरिया को बुलवा लिया गया। तब ही ये तय हो गया था कि ग्वालियर का अगला जिलाध्यक्ष जयप्रकाश राजोरिया होंगे। दिलचस्प बात ये है कि सिंधिया भी बहुत आसानी से इस नाम पर समहत हो गए। जो ये साफ इशारा करता है कि शर्मा और सिंधिया दोनों में पहले से ही इस नाम पर सहमति बन गई थी। इसलिए तोमर को भी मजबूरन पीछे हटना ही पड़ा। इस बात से ये तो साफ है कि ग्वालियर चंबल की सीटों पर तोमर का दबदबा अब कुछ कम सा होने लगा है। तमाम नाराजगी जताने के बावजूद वो अपने समर्थकों को अपने ही सियासी क्षेत्र में पद नहीं दिला सके। ये इस बात का इशारा है।
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