ओबीसी आरक्षण पर दिल्ली में हुई उच्च स्तरीय बैठक, महाधिवक्ता के बयान ने खोली कई परतें

दिल्ली स्थित मध्यप्रदेश भवन में ओबीसी वर्ग के 27% आरक्षण को लेकर एक विशेष बैठक आयोजित हुई, जिसमें महाधिवक्ता प्रशांत सिंह का बयान चर्चा में रहा।

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Neel Tiwari
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मध्यप्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है। दिल्ली स्थित मध्यप्रदेश भवन में इस संवेदनशील विषय पर एक विशेष बैठक का आयोजन किया गया। बैठक में राज्य सरकार के प्रतिनिधियों और न्यायिक अधिकारियों ने भाग लिया। यह बैठक इसलिए भी अहम मानी जा रही है क्योंकि सालों से रुका पड़ा आरक्षण का मामला अब जनभावनाओं और कानूनी जिम्मेदारियों के चौराहे पर आ खड़ा हुआ है। बैठक में शामिल हुए सूत्रों के अनुसार इस बैठक में महाधिवक्ता प्रशांत सिंह द्वारा दिया गया बयान न केवल चौंकाने वाला था, बल्कि यह सरकार और न्यायिक तंत्र के बीच की जटिलता को भी उजागर करता है।

मैंने 27% आरक्षण रोकने का कोई अभिमत नहीं दिया– महाधिवक्ता 

बैठक में शामिल सदस्यों के द्वारा ओबीसी वेलफेयर के लिए काम कर रहे अधिवक्ताओं को दी गई जानकारी के अनुसार जब 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू न होने को लेकर सवाल उठाए। इसपर महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उन्होंने कभी भी इस आरक्षण को रोकने संबंधी कोई विधिक अभिमत नहीं दिया है। उनका कहना था कि यदि यह आरक्षण अब तक लागू नहीं हुआ है, तो इसके लिए पूरी तरह राज्य सरकार जिम्मेदार है। इस कथन ने कई पुराने विवादों और सरकार के अंदरूनी निर्णयों को नई दृष्टि से देखने की आवश्यकता उत्पन्न कर दी है। साथ ही यह सवाल भी खड़ा हो गया है कि जब महाधिवक्ता ने कभी विरोध नहीं किया, तो फिर किन आधारों पर यह आरक्षण ठंडे बस्ते में पड़ा रहा?

युवाओं की आत्महत्या के बाद भी चर्चा वकीलों जैसी

बैठक में प्रशांत सिंह,एडी.एडवोकेट जनरल हरप्रीत रूपराह,अमित सेठ,भरत सिंह,धीरेन्द्र परमार भी शामिल थे। बैठक में यह तथ्य भी सामने आया कि पिछले कुछ वर्षों में ओबीसी आरक्षण में अनिश्चितता और देरी के चलते राज्य के कई होल्ड अभ्यर्थियों ने आत्महत्या जैसा कदम उठाया है। जब इस मुद्दे को बैठक में उठाया गया और महाधिवक्ता से संवेदनशीलता के साथ चर्चा की अपेक्षा की गई, तब उन्होंने कहा, हम सभी वकील हैं और चर्चा वकीलों की तरह ही होनी चाहिए। यह बयान जहां एक ओर कानूनी अनुशासन की ओर इशारा करता है, वहीं दूसरी ओर उसमें मानवीय संवेदनाओं की कमी भी स्पष्ट नजर आती है। जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खोया, उनके लिए यह सिर्फ कानूनी मामला नहीं बल्कि जीवन और मृत्यु से जुड़ा दर्दनाक अनुभव है।

ओबीसी एडवोकेट्स को बैठक में नहीं बुलावाया

इस पूरे मुद्दे की सबसे चिंताजनक बात यह रही कि ओबीसी एडवोकेट वेलफेयर एसोसिएशन, जिसने वर्ष 2019 से लगातार इस आरक्षण के पक्ष में कानूनी मोर्चा संभाले रखा, उसके किसी भी अधिवक्ता को इस बैठक में आमंत्रित नहीं किया गया। यह न केवल उस संघर्ष की अनदेखी है जो इन अधिवक्ताओं ने वर्षों तक बिना किसी स्वार्थ के किया, बल्कि यह दर्शाता है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें जानबूझकर बाहर रखा जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या यह बैठक वास्तव में समाधान के लिए थी या केवल औपचारिकता निभाने के लिए?

एक दर्जन से अधिक अभिमतों पर साधी चुप्पी

बैठक के दौरान जब यह बात सामने आई कि महाधिवक्ता कार्यालय से समय-समय पर ऐसे अभिमत (legal opinions) जारी किए गए जो 27% आरक्षण के रास्ते में बाधा बने, तब महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने इन सभी अभिमतों से अपना पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने यह दावा किया कि वे व्यक्तिगत रूप से किसी भी नकारात्मक राय के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। यह स्थिति स्पष्ट करती है कि या तो कार्यालयीय स्तर पर असंगति है या फिर जानबूझकर महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों की जिम्मेदारी से बचा जा रहा है। इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना रवैया ओबीसी समुदाय के बीच आक्रोश को और बढ़ा सकता है।

आरक्षण लागू न होने का ठीकरा सरकार के सर

जानकारी के अनुसार महाधिवक्ता प्रशांत सिंह ने अंततः यह स्वीकार किया कि यदि राज्य सरकार चाहती, तो ओबीसी आरक्षण अब तक लागू हो चुका होता। उन्होंने यह भी कहा कि विधिक अड़चनों की तुलना में निर्णय की देरी प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी को दर्शाती है। इस कथन ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि आरक्षण जैसे मुद्दों पर सरकार की कथनी और करनी में अंतर रहा है। ओबीसी समाज के लिए यह बयान एक और झटका है, क्योंकि इससे यह प्रतीत होता है कि उनकी वर्षों की प्रतीक्षा केवल राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ती रही।

ओबीसी समाज को हक मिलने का खड़ा हुआ सवाल

ओबीसी वेलफेयर के लिए कार्य कर रहे अधिवक्ताओं के अनुसार इस बैठक से स्पष्ट हो गया है कि ओबीसी समाज को 27% आरक्षण दिलाने की राह में केवल अदालतें नहीं, बल्कि सत्ता की चुप्पी और इच्छाशक्ति की कमी भी बड़ी बाधा रही है। जब वे अधिवक्ता जो रात-दिन इस मुद्दे पर संघर्षरत हैं, उन्हें ही बैठक से बाहर रखा जाए और पीड़ित युवाओं की आत्महत्या पर चर्चा की बजाय कानूनी तर्क दिए जाएं, तो यह लोकतंत्र के उस पक्ष की पोल खोलता है, जो जनकल्याण की बात तो करता है लेकिन निर्णय लेते समय संवेदनाओं को दरकिनार कर देता है।

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