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MP में ओबीसी वर्ग के लोगों को सरकारी भर्तियों में 14 की जगह 27 फीसदी आरक्षण देने की कहानी और लड़ाई लंबी है। अब हालत यह है कि प्रदेश में भर्ती की चाहत रखने वाले युवा ओबीसी बनाम अनारक्षित गुट में बंट गए हैं।
ओबीसी आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में सौ से ज्यादा याचिकाएं लगी हैं। करीब 70 याचिकाएं हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में शिफ्ट हो चुकी हैं और अब एमपी हाईकोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई होल्ड हैं।
इस आरक्षण को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में फिर एक याचिका लगी, जिसमें 25 जून को सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश में 27 फीसदी आरक्षण की दलील पर एक ही सवाल पूछा—कानून क्या है, इंद्रा साहनी केस क्या है?
वहीं अगली सुनवाई में 4 जुलाई को इस मामले में सरकार ने यह आरक्षण अभी देने में इसलिए असमर्थता जताई, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में विविध ट्रांसफर याचिकाएं लंबित हैं। इस पूरे गंभीर मसले को शुरू से समझते हैं, खासकर इंद्रा साहनी केस से।
मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण पर कब-क्या हुआ
8 मार्च 2019 : कांग्रेस सरकार ने अध्यादेश से 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण किया। हाईकोर्ट ने पीजी नीट में इसे लागू करने पर स्टे देते हुए 14 फीसदी ओबीसी की ही बात कही।
14 अगस्त 2019 : विधानसभा में पास होकर कानून बना। एक्ट लागू हो गया। इसके बाद लगातार याचिकाएं जारी हैं, सौ से ज्यादा याचिकाएं चल रही हैं।
18 दिसंबर 2024 : करीब 70 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर हो चुकी हैं। इनमें कुछ में ओबीसी आरक्षण का विरोध है तो कुछ इस एक्ट को लागू करने की मांग कर रहे हैं।
उधर इस विवाद के चलते जब रिजल्ट होल्ड हुआ तो सितंबर 2022 में विधिक सलाह के आधार पर जीएडी ने पीएससी में 87-13 फीसदी का फार्मूला लागू करते हुए रिजल्ट जारी करना शुरू कर दिया।
इसमें 13 फीसदी पद हर भर्ती में रोक दिए गए। यहां तक कि इसके बाद ही उत्तरपुस्तिका दिखाना भी बंद कर दिया और बाकी चयनितों के अलावा अन्य के अंक बताना भी बंद हो गया।
इसी तरह का विवाद ईएसबी भर्ती में उठा तो जनवरी 2023 में वहां भी यही 87-13 फीसदी फार्मूला लागू कर रिजल्ट जारी करने शुरू हो गए।
इसके बाद से ही पीएससी, ईएसबी की 2019 से हुई भर्तियों के 13 फीसदी पदों के रिजल्ट होल्ड हैं। इनकी संख्या हजारों में पहुंच चुकी है और परेशान उम्मीदवारों की संख्या लाखों में हो चुकी है।
क्या है इंद्रा साहनी केस
साल 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिश के तहत ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू करने का आदेश हुआ। इस पर अधिवक्ता इंद्रा साहनी ने सुप्रीम कोर्ट में केस दायर किया।
इसमें 1992 में नौ जस्टिस की संवैधानिक बेंच ने 6-3 से आदेश पारित किया, जिसे इंद्रा साहनी जजमेंट भी कहा जाता है। इसमें अहम आदेश था कि आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता है।
केवल असाधारण परिस्थितियों में इसे लागू किया जा सकता है। ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा भी दी गई। कुल 50% आरक्षण में SC को 15%, ST को 7.5% और OBC को 27% आरक्षण शामिल था।
अनुच्छेद 16(4) में पिछड़े वर्ग के लोगों का निर्धारण केवल आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि जाति व्यवस्था के आधार पर किया जा सकता है। नए मानदंडों पर विवाद केवल सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाए जा सकते हैं।
क्या है इंद्रा साहनी की संवैधानिक बाध्यता
इंद्रा साहनी जजमेंट 9 जस्टिस की बेंच का था, यानी इस मामले को पलटने के लिए 11 जस्टिस की बेंच की जरूरत होगी। लगातार आरक्षण बढ़ाने की मांग उठती रही है।
साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 16(4A) और 16(4B) को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करते हुए फिर 50% की सीमा को दोहराया। क्रीमी लेयर के नियम को भी बरकरार रखा गया।
कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्य को यह साबित करना होगा कि आरक्षण क्यों जरूरी है। राज्य को 'पिछड़ेपन', 'प्रतिनिधित्व की कमी' और 'प्रशासनिक दक्षता' के बारे में बताना होगा। कोर्ट ने कहा कि अगर राज्य ऐसा नहीं कर पाता है, तो अनुच्छेद 16 में समानता का अधिकार खत्म हो जाएगा।
EWS आरक्षण: 50% के नियम का अपवाद है
जाति आधारित आरक्षण से हटकर, केंद्र सरकार ने 2019 में संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम लाकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को 10% आरक्षण देने की बात कही थी।
इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2022) मामले में पांच जजों की बेंच ने 3:2 के बहुमत से इस कानून को सही ठहराया। इसका मतलब है कि 50% की सीमा टूट गई, लेकिन कोर्ट ने कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संवैधानिक है।
तमिलनाडु ने ऐसे हासिल किया 69 फीसदी आरक्षण वर्तमान में तमिलनाडु का 69% आरक्षण एक दूसरा अपवाद है।
तमिलनाडु ने यह आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डालकर हासिल किया है।
नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है। लेकिन अब यह नियम बदल गया है।
अब नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
इन राज्यों ने भी चाहा था 50 फीसदी से अधिक आरक्षण
- बिहार: पटना उच्च न्यायालय ने बिहार सरकार की उस अधिसूचना को खारिज कर दिया, जिसमें राज्य में सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोटा 50% से बढ़ाकर 65% किया गया था। इसमें भी इंद्रा साहनी जजमेंट के तहत 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण पर रोक की बात कही गई।
- महाराष्ट्र: सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में महाराष्ट्र के 2018 के कानून को भी रद्द कर दिया था। इस कानून में मराठों को आरक्षण देने की बात कही गई थी। कोर्ट ने कहा कि इससे राज्य में कुल आरक्षण 50% से ज्यादा हो जाएगा।
- राजस्थान: 17 मार्च 2015, जाट आरक्षण खत्म : सुप्रीम कोर्ट ने साल 2015 में राजस्थान सरकार द्वारा जाटों को ओबीसी कोटे में आरक्षण देने के यूपीए सरकार के फैसले को रद्द कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि जाट सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग नहीं हैं। आरक्षण का आधार सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक होना चाहिए।
- आंध्र प्रदेश: आंध्र में मुस्लिम आरक्षण के लिए अलग से 5 फीसदी कोटा रखा गया था। इसे आंध्र हाईकोर्ट ने 2013 में रद्द कर दिया।
इस तरह ही बढ़ा सकते हैं आरक्षण
साल 2021 के एक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्थानीय निकायों में आरक्षण देने के लिए नियम बताए:
राज्यों को एक आयोग बनाना होगा। ओबीसी के पिछड़ेपन के बारे में आंकड़े जुटाने होंगे। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी स्थानीय निकाय में कुल आरक्षण 50% से ज्यादा न हो।
कुल मिलाकर, सभी तथ्य रखते हुए ही असाधारण परिस्थिति में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण लागू किया जा सकता है। यह असाधारण परिस्थिति राज्य को साबित करनी होगी।
एमपी में ओबीसी आबादी के ये आंकड़े
ओबीसी वेलफेयर एसोसिएशन द्वारा सुप्रीम कोर्ट में यह आंकड़े दिए जा रहे हैं कि मप्र में ओबीसी आबादी 51% है और नौकरियों में 13.66% ही प्रतिनिधित्व है। इसलिए 27 फीसदी आरक्षण लागू किया जाए।
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