सुबह का भूला अगर शाम को घर आए जाए तो उसे भूला नहीं कहते। बहुत पुरानी ये कहावत क्या बीजेपी के लिए भी सही साबित होगी। बीजेपी को तो अपनी गलती का अहसास हो गया है शायद। भूला अब घर लौट रहा है। सवाल ये है कि क्या भूला के घर वाले यानी कि बीजेपी के पुराने दिग्गज और इग्नोर किए जा चुके नेता सब भूल जाएंगे। अमरवाड़ा के पुराने कांग्रेसी और नए नवेले भाजपाई विधायक कमलेश शाह के साथ बीजेपी का जो रवैया है, उसके बाद पार्टी के भीतर ही ये सवाल उठ रहे हैं।
क्या कहती है दलबदल की क्रोनोलॉजी?
बीजेपी में और कांग्रेस में भी अमरवाड़ा विधायक कमलेश शाह को कई मायनों में याद किया जाएगा। सिर्फ राजनीतिक दलों में ही क्यों, जैसा चलता रहा वैसा ही चला तो कमलेश शाह मध्यप्रदेश के दलबदल के सियासी इतिहास में भी कुछ अलग ढंग से ही याद किए जाएंगे। कमलेश शाह कौन सा इतिहास रच रहे हैं वो समझने से पहले दलबदल की क्रोनोलॉजी समझ लीजिए। देखिए छुटपुट लेवल पर दल बदल तो कभी भी हो जाता है। आमतौर पर जब नेताओं को मनमाफिक जगह से अपनी पार्टी से टिकट नहीं मिलता तो वो या तो चुपचाप पार्टी की मनमानी सहन कर लेता है या फिर दल बदलकर दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ लेता है। इंडियन इलेक्शन सिस्टम में ये प्रक्रिया बहुत आम है, लेकिन जब कोई नेता चुनाव जीतने के बाद पार्टी बदलता है तो सियासी भूचाल सा आता है। दल बदल विरोधी कानून के मुताबिक अगर नेता चुनाव से पहले दलबदल करता है तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन एक चुनाव चिन्ह पर जीत हासिल करने के बाद कानून थोड़ा सख्त हो जाता है। अगर पार्टी खुद किसी जीते हुए सांसद या विधायक को निकाल देती है तो वो किसी और दल में शामिल होने के लिए स्वतंत्र होता है, लेकिन विधायक या सांसद अपनी मर्जी से दल बदल करता है तो उसे अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता है। उसकी सीट पर उपचुनाव होते हैं, जिसमें हार हुई तो समझिए पद और पार्टी दोनों गई और जीत हुई तो फिर कहना ही क्या।
दल बदल की प्रेक्टिस बीजेपी पर पड़ रही भारी
साल 2020 से ये एमपी में ये फॉर्मूला बहुत बार प्रेक्टिस किया गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बड़ी संख्या में विधायकों ने दल बदल किया। एमपी के चुनावी इतिहास का सबसे बड़ा उपचुनाव हुआ। जो जीता उसे बीजेपी ने नवाजा। जो हारा उसे भी उपकृत करने की पूरी कोशिश की गई। उसके बाद इस ट्रेंड ने जोर पकड़ लिया। कभी असंतोष के नाम पर और कभी पार्टी की विचारधारा के नाम पर जीते हुए कैंडिडेट कांग्रेस से कटते रहे और बीजेपी मिलते रहे। बीजेपी में उन्हें इसका प्रतिसाद भी मिला, लेकिन अब ये पूरी प्रेक्टिस बीजेपी पर भारी पड़ रही है। ये तो जाहिर सी बात है जो चीज शुरू होती है वो कहीं न कहीं जाकर खत्म भी होती है। एमपी में ये प्रेक्टिस अब अमरवाड़ा के विधायक कमलेश शाह पर जाकर खत्म होती नजर आ रही है।
कमलेश शाह को अब तक पद से नहीं नवाजा है
ये याद दिला दें कि इस प्रेक्टिस से मेरा मतलब दल बदल नहीं है। वो तो आगे भी हो सकता है, लेकिन हर दल बदल कर आए नेता को उपकृत करना या शर्तें पूरी करने का काम अब बीजेपी में बंद होता या कम होता हुआ दिख सकता है। ऐसे संकेत इसलिए मिल रहे हैं क्योंकि बीजेपी ने अमरवाड़ा विधायक कमलेश शाह को अब तक किसी पद से नहीं नवाजा है। कयास ये लग रहे थे कि विजयपुर के रामनिवास रावत की तरह उन्हें भी जल्दी मंत्री पद दिया जाएगा। दिलचस्प बात ये है कि रामनिवास रावत को बिना जीते ही पद मिल गया है और जीतने के बाद भी कमलेश शाह को मंत्री पद नहीं मिला है। उल्टे वो ये कहने को मजबूर हैं कि उन्होंने लोगों की सेवा के लिए बीजेपी जॉइन की थी न की मंत्री बनने के लिए।
बीजेपी के पुराने नेताओं ने अपनी अनदेखी से जताई नाराजगी
अंदरूनी खबर तो ये है कि जब अमरवाड़ा के जरिए छिंदवाड़ा का गढ़ भेदने की कोशिश हो रही थी तब ही कमलेश शाह को ये वादा कर दिया गया था उन्हें मोहन यादव सरकार में मंत्री बनाया जाएगा। लेकिन ये पहला मौका है जब दल बदल कर आए किसी नेता से बीजेपी अपना कमिटमेंट पूरा करने से डर रही है। इसकी वजह माने जा रहे हैं पार्टी के ही कुछ पुराने नेता जो लगातार अपनी अनदेखी से परेशान हैं। बीजेपी के लिए ये खबरें भी नई नहीं है। इस बार के चुनाव में जमीनी स्तर पर बीजेपी ने बुरे हालातों का सामना किया है। पुराने नेताओं ने अपनी अनदेखी से नाराजगी जताई और चुनाव प्रचार में एक्टिवली पार्टिसिपेट नहीं किया। कार्यकर्ताओं की उदासीनता भी साफ दिखी। असल में कार्यकर्ता इसलिए नाराज हुआ क्योंकि बड़े नेता के साथ दलबदल में बोनस की तरह आए कार्यकर्ता मूल भाजपाई कार्यकर्ता पर भारी पड़ने लगे थे। इस वजह से पुराने कार्यकर्ता खासे नाराज थे इसका असर जमीनी स्तर पर दिखने लगा था। अजय विश्नोई, अनूप मिश्रा, जयंत मलैया और कुछ अन्य नेता इस मामले पर बीच बीचे में मुखर भी हुए। अजय विश्नोई ने तो मौके बेमौके ट्वीट करके भी नाराजगी जाहिर की। जिसके बाद ये साफ हो गया था कि नए लोगों को चक्कर में पुरानों की अनदेखी अब पार्टी पर भारी पड़ रही है। लॉन्ग टर्म में नतीजे और ज्यादा नुकसानदायी हो सकते हैं।
नहीं मिल पा रहा बीजेपी से वफादारी का इनाम
कांग्रेस से बीजेपी में शामिल हुई बीना विधायक निर्मला सप्रे ने भी अभी तक विधानसभा से इस्तीफा नहीं दिया है। कांग्रेस विधायक दल की शिकायत पर उन्हें 31 जुलाई को नोटिस भी दिया गया था। आपको याद दिला दें कि लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के तीन विधायकों ने पार्टी छोड़कर बीजेपी जॉइन की थी। इनमें से केवल रामनिवास रावत ही मंत्री बन सके हैं। बाकी दोनों नेताओं से जो कमिटमेंट किया गया था, वो पूरा नहीं हो सका। कमलेश शाह को बीजेपी में शामिल कराने का मकसद छिंदवाड़ा लोकसभा सीट पर कमलनाथ की जड़ें कमजोर करना था। बीजेपी इसमें कामयाब भी रही जैसे ही शाह ने बीजेपी का दामन थामा, कमलनाथ के करीबी नेताओं ने भी बीजेपी जॉइन की। इनमें दीपक सक्सेना और उनके बेटे समेत कई नेता शामिल हुए थे। बीजेपी अगर कमलनाथ के गढ़ पर कब्जा कर पाई तो उसका सबसे पहला क्रेडिट कमलेश शाह को ही जाता है। जिन्होंने कांग्रेस की जीती जिताई सीट बीजेपी की झोली में डाल दी। हालांकि, अब वो उपचुनाव भी जीत चुके हैं, लेकिन मंत्री पद से दूर हैं। उन्हें बीजेपी से वफादारी का इनाम नहीं मिल पा रहा।
क्या दलबदल पर फुल स्टॉप लगने का समय शुरू हो चुका है...
अब सवाल ये है कि क्या कमलेश शाह भविष्य में दल बदल करने वाले नेताओं के लिए एक नजीर बन सकेंगे। सिर्फ कमलेश शाह ही क्यों निर्मला सप्रे का नाम भी इस फेहरिस्त में जोड़ा जा सकता है। अब तक बीजेपी में जो भी दलबदल कर आया बीजेपी ने उससे किया हर वादा निभाया। दल बदलू नेता तो फायदे में रहा, लेकिन पुराने नेताओं ने नाराजगी जाहिर करना शुरू कर दिया। उस नाराजगी का डर अब बीजेपी को सताने लगा है। यही वजह है कि फिलहाल कमलेश शाह को कोई पद नहीं मिला है। अगर कमिटमेंट पूरा नहीं होगा तो क्या दल बदल का ये सिलसिला आगे जारी रह सकेगा या इस पर फुल स्टॉप लगने का सियासी समय शुरू हो चुका है।
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