मध्यप्रदेश सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया है। फैसला पूरी कैबिनेट में लिया गया है इसलिए ये खबर आम हो चुकी है, लेकिन फैसला लेने की जरूरत क्यों पड़ी। ये जान लेना भी जरूरी है। इस फैसले के पीछे बीजेपी सरकार अपना एक बड़ा डर छुपाने की कोशिश कर रही है। वो डर क्या है आज मैं आपको बताता हूं। आज जिस फैसले की बात कर रहे हैं वो फैसला नगर पालिका और नगर परिषद से जुड़ा हुआ है। दो बड़े फैसले हैं। दोनों आपको बताते हैं और उन पर तफ्सील से चर्चा भी करते हैं।
तीन साल से पहले नहीं ला सकेंगे अविश्वास प्रस्ताव
हाल ही में हुई कैबिनेट की बैठक में मध्यप्रदेश सरकार ने बड़ा फैसला लिया है। इस फैसले के मुताबिक अब मप्र की किसी भी नगर पालिका के या नगर परिषद के पदाधिकारी को हटाना होगा तो तीन चौथाई बहुमत जरूरी होगा। इस नियम के दायरे में दोनों तरह के नगरीय निकायों के अध्यक्ष या फिर उपाध्यक्ष आएंगे। ये तो हुआ एक फैसला। इसके अलावा एक और बड़ा फैसला लिया गया है जो इससे भी ज्यादा चौंकाने वाला है। इस फैसले के तहत कैबिनेट ने इस बात पर मुहर लगा दी है कि तीन साल से पहले अविश्वास प्रस्ताव भी नहीं लाया जा सकेगा। अब तैयारी है इस फैसले को बतौर विधेयक विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पेश करने की। सरकार ने मध्यप्रदेश नगर पालिका अधिनियम 1961 की धारा-43 में संशोधन करते हुए ये फैसला लिया है।
सोच समझकर चिंतन करके लिया गया है ये फैसला
ये तो हुई फैसले की बात, लेकिन इस फैसले से फायदा या नुकसान किसका। ये फैसला यूं ही तो लिया नहीं गया कि मान लीजिए सरकार के कुछ नुमाइंदे सुबह उठे और उन्हें लगा कि प्रदेश में इस वक्त सबसे पहले नगर पालिका अधिनियम में कुछ बदलाव करने जरूरत है। कैबिनेट मीटिंग हुई और सबने इस पर सहमति भी जता दी। जी नहीं, ये फैसला बिलकुल इस तरह नहीं लिया गया है। बल्कि, बहुत सोच समझकर गहराई से चिंतन करके इस फैसले पर आगे की कार्यवाही की गई है। आपको बता दें कि ये जो फैसले लिए गए हैं इससे प्रदेश की बहुत सी नगर पालिका और नगर परिषद के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष राहत की सांस ले रहे होंगे, लेकिन असल राहत मिली है इससे प्रदेश की नई सरकार, प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा और संगठन में डिसिजन मेकर की भूमिका निभाने वाले बड़े पदाधिकारियों को। नगर पालिकाओं और नगर परिषद के अध्यक्ष और उपाध्यक्षों के लिए राहत का सबब केवल इतना है कि अब तक तीन चौथाई पार्षद पालिका या परिषद अध्यक्ष-उपाध्यक्ष के खिलाफ नहीं होंगे, तब तक अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकेगा।
नगरीय निकाय के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष अब लेंगे राहत की सांस!
नगर निकाय चुनाव के तकरीबन दो साल पूरे हो ही चुके हैं और अचानक सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन कर दिया। यानी अब हर अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के लिए ये भी राहत की बात है कि एक साल तक उसकी कुर्सी सुरक्षित है और वो राहत की सांस ले सकता है। क्योंकि दो साल पूरे होने के साथ ही प्रदेश के कुछ नगरीय निकायों में असंतोष और नाराजगी नजर आने लगी थी। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि प्रदेश के तीन नगरीय निकायों में एक ही दिन में अविश्वास प्रस्ताव लाए गए उसी शाम मोहन कैबिनेट की मीटिंग हुई और अधियनियम में बड़ा बदलाव कर दिया गया। यानी जिन अध्यक्ष और उपाध्यक्षों में सुबह तक तलवार लटक रही थी। शाम होते होते वो सभी निश्चिंत हो गए। अब ये भी जान लीजिए कि कहां-कहां अविश्वास प्रस्ताव लाए गए और उनकी जरूरत क्यों पड़ी।
इन तीन नगरपालिका अध्यक्षों पर लटकी थी तलवार
- सबसे पहले बात करते हैं नर्मदापुरम नगरपालिका की। यहां अध्यक्ष नीतू यादव के खिलाफ कई पार्षदों ने मोर्चा खोल दिया। यादव के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए खास बैठक बुलाने प्रस्ताव भी पारित हो गया। उनके खिलाफ करीब 21 पार्षदों ने साइन किया हुआ लेटर कलेक्टर और सीएमओ को भी सौंप दिया था। यादव पर उनके काम करने के तरीके पर आरोप है और पार्षदों की अवमानना के साथ ही विकास कार्य को अटकाने का भी आरोप है।
- दूसरा मामला टीकमगढ़ नगर पालिका का है। यहां नगर पालिका अध्यक्ष के खिलाफ 19 पार्षदों ने कलेक्टर को पत्र सौंपा। बता दें कि यहां अब्दुल गफ्फार अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। इस नगर पालिका में करीब 27 पार्षद हैं इनमें से 19 ने अध्यक्ष के खिलाफ बगावत की।
- तीसरा मामला है राजगढ़ नगर पालिका का। यहां भी कई पार्षदों ने अध्यक्ष के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का आवेदन कलेक्टर को सौंप दिया है। ये आवेदन मंजूर होकर बात आगे बढ़ पाती उससे पहले ही मोहन कैबिनेट में बड़ा फैसला हो गया और इन सब अध्यक्षों को पार्षदों की नाराजगी के बावजूद करीब एक साल की संजीवनी और मिल गई।
मेयर के लिए फिलहाल लागू नहीं होगा यह फैसला
इससे पहले नियम ये था कि इलेक्शन जीतकर आए किसी भी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के खिलाफ अगर दो तिहाई से ज्यादा पार्षद अविश्वास प्रस्ताव लाते हैं तो उसकी कुर्सी जाने का खतरा मंडरा सकता था। हालांकि, ये संकट फिलहाल सिर्फ इन तीन सारी नगरीय निकाय के सिर से टल गया है। तकरीबन सभी नगरीय निकायों के चुनाव साथ में हुए थे और सभी को अभी दो साल का ही वक्त पूरा हुआ है। एक साल के लिए वो राहत की सांस ले सकते हैं। फिलहाल मेयर को इस फैसले से बाहर रखा गया है। इसकी वजह है मेयर के चुनाव का प्रत्यक्ष प्रणाली से पूरा होना। यानी कि मेयर जनता के डायरेक्ट वोट से चुना जाता है। इसलिए उसके बदलने की प्रक्रिया थोड़ी अलग होती है। मेयर को हटाने के लिए प्रक्रिया ऐसी है कि कुल पार्षदों में से छठवें भाग के बराबर यदि पार्षद अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं तो कलेक्टर मेयर को हटाने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं।
अभी एक साल के लिए तो ये झंझट खत्म...
फिलहाल बीजेपी की सत्ता और संगठन ने अपने सिर पर आया एक बड़ा टेंशन एक साल के लिए और टाल दिया है। बार-बार सत्ता और संगठन यानी बीजेपी सरकार और प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा की कप्तानी वाले संगठन की बात इसलिए हो रही है क्योंकि अभी अगर किसी बीजेपी समर्थित नगर निगम या परिषद में अविश्वास प्रस्ताव आता और पास हो जाता तो आलाकमान के दरबार में दोनों की जवाबदेही तय हो जाती। अब एक साल के लिए ये झंझट ही खत्म। उसके बाद कुछ हुआ भी तो जरूरी पार्षदों का आंकड़ा जुटाते-जुटाते समय लग जाएगा और फिर अगले चुनाव का वक्त नजदीक आ जाएगा।
... लेकिन ये वही बात हुई कि रोम जल रहा था और नीरो बांसुरी बजा रहा था। मधुर बांसुरी की आवाज को हम कैबिनेट के ताजा फैसले के लिए मेटाफर मान लेते हैं। अभी तो इसकी आड़ में चैन की सांस ली जा सकती है, लेकिन बीजेपी की सत्ता और संगठन दोनों इस बात को नकार नहीं सकते कि अंदर ही अंदर असंतोष पनप रहा है और उनके साथियों के काम से लोग खुश नहीं है। क्या एक साल में बीजेपी इसका कोई तोड़ निकाल सकेगी?
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