क्या मध्यप्रदेश में सत्ता के सरताज बन जाने के बावजूद डॉ. मोहन यादव, शिवराज सिंह चौहान से डरे हुए हैं ?
शिवराज की दक्षिण के प्रदेशों में रवानगी के बाद भी क्या मोहन यादव उन्हें लेकर इनसिक्योर हैं ?
अगर नहीं तो फिर फैसलों में ऐसी इममैच्योरिटी क्यों, ऐसा डर क्यों और ऐसी जल्दबाजी क्यों ?
BHOPAL. इन सवालों का सबब शायद अभी आप न समझे हों, लेकिन समझ जाएंगे। जब सुनेंगे कि मध्यप्रदेश में अचानक ऐसे कौन से फैसले हो गए कि सीएम मोहन यादव (cm mohan yadav) की कार्यशैली पर इस तरह के सवाल उठ रहे हैं। इस ताबड़तोड़ बदलाव का आम जनता पर सीधे भले ही असर न पड़े, लेकिन बीजेपी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वो भी 5 साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में नहीं बल्कि सिर पर आ चुके लोकसभा चुनाव में। क्योंकि मोहन यादव के एक फैसले न सिर्फ शिवराज या ज्योतिरादित्य सिंधिया (jyotiraditya scindia) बल्कि ऐसे दो दर्जन से ज्यादा नेता नाराज हो सकते हैं।
शिवराज को साइडलाइन करने की कोशिश जारी
मोहन यादव के सीएम बनने के बाद से ही शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) को साइडलाइन करने की पूरी कोशिश जारी है। पहले तो उनके तैनात किए गए अफसरों को लेकर संशय बरकरार रहा कि उन्हें कब, कहां, किस मंत्री के पास या किस जगह पदस्थ किया जाएगा। मंत्रियों के स्टाफ में तैनात पुराने अफसर तक बदल दिए गए और सख्त ताकीद दे दी गई कि कोई भी मंत्री पुराने अफसरों की डिमांड नहीं करेगा। भले ही वो अफसर उनका कितना भी खास ही क्यों न रहा हो। अफसरों के बाद अब मोहन यादव की तलवार धार घूमी है निगम मंडल के अध्यक्ष और उपाध्यक्षों के तहत, जिन्हें अचानक हटाने का फरमान जारी कर दिया गया है। अचानक हुआ ये फैसला निगम मंडल के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पर किसी बिजली की तरह गिरा है।
निगम मंडल के अध्यक्ष को मंत्री का दर्जा
आपको बता दें कि किसी भी निगम मंडल के अध्यक्ष को मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है और उपाध्यक्ष को राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त होता है। ये एक तरफ से उपकृत करने वाली पोस्टिंग मानी जाती है, जिसे लाभ का पद भी कहा जाता है। लाभ का पद इसलिए क्योंकि निगम मंडल के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनकर नहीं लाए जाते न ही सत्ता में इनकी सीधे तौर पर भागीदारी होती है। इन जगहों पर ऐसे नेताओं को पदस्थापना दी जाती है जो किसी न किसी तरह से पार्टी के लिए फायदेमंद हों। जो नेता बहुत वरिष्ठ हों, लेकिन उन्हें विधानसभा का चुनाव नहीं लड़वाया गया हो या ऐसे असंतुष्ट हों जिन्हें चुनाव में उतारकर जीत मिलना मुश्किल है, लेकिन बाहर का रास्ता दिखाने से भी नुकसान हो सकता है। ऐसे रूठे नेताओं को मनाए रखने के लिए भी निगम मंडल में नियुक्तियां की जाती हैं।
एक आदेश और सभी नियुक्तियां रद्द
मध्यप्रदेश में एक आदेश जारी कर मोहन यादव सरकार ने एक झटके में 46 निगम मंडल के अध्यक्ष और उपाध्यक्षों की नियुक्तियों को रद्द कर दिया है। इस आदेश के तहत शिवराज सिंह चौहान के अधिकांश करीबियों की निगम मंडल से छुट्टी हो गई है। सिर्फ इतना ही नहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया के भी बहुत से करीबी नप गए हैं। दिलचस्प बात ये है कि बहुत से निगम और मंडल के अध्यक्ष उपाध्यक्ष ऐसे भी थे जिनका कार्यकाल अब भी बाकी था, कुछ का कार्यकाल तो पूरे 3 साल तक का बाकी था, लेकिन उनकी भी एक झटके में छुट्टी कर दी गई। इनमें शैलेंद्र बरुआ, आशुतोष तिवारी और जितेंद्र लिटौरिया जैसे लोग थे। इन सभी लोगों को पद से हटा दिया गया है। सिंधिया के करीबियों में मुन्ना लाल गोयल से लेकर जसवंत जाटव तक के नाम शामिल थे। जो इस आदेश के शिकार हुए हैं। दिसंबर 2021 में, शिवराज सरकार ने ऐसे पदों पर तकरीबन 25 व्यक्तियों को नियुक्त किया था। इसके अलावा पिछले साल ही चुनाव से ठीक 7 महीने पहले, 35 और राजनीतिक नियुक्तियां की गई थीं, लेकिन अब सबकी नियुक्तियां रद्द हो चुकी हैं।
इस फैसले में दूरदर्शिता नदारद
इस आदेश को जारी करने में कुछ बड़ी भूल हुई है या यू कहें कि इस फैसले में राजनीतिक दूरदर्शिता पूरी तरह से नदारद ही जान पड़ती है।
पहली भूल ये है कि ऐन लोकसभा चुनाव से पहले ये फैसला ले लिया गया है। माना कि पूरे देश की तरह प्रदेश में मोदी लहर है और राम नाम का फायदा भी मिलना है, लेकिन इतनी तादाद में जब लोगों को हटाया जाएगा तब क्या उनका असंतोष या नाराजगी कुछ नुकसान नहीं पहुंचाएगी।
दूसरी भूल ये है कि जल्दबाजी में ये फैसला लेकर खुद मुख्यमंत्री मोहन यादव ये जाहिर कर रहे हैं कि राजनीतिक फैसले लेने में वो अभी कच्चे हैं। वर्ना लोकसभा चुनाव से पहले ऐसा कदम नहीं उठाते। जल्दबाजी कितनी ही रही हो या मकसद शिवराज की सेना को पूरी तरह से साइडलाइन करने का ही क्यों न हो वो लोकसभा चुनाव तक इंतजार कर ही सकते थे।
तीसरी भूल है टीम वर्क की कमी। मोहन यादव चाहते तो वो पहले सभी वरिष्ठ नेताओं को कॉन्फिडेंस में लेते और उनके साथ चर्चा करते। उसके बाद इस फैसले पर अमल करते। इससे न शिवराज की इतने सालों की साख पर सवाल उठते न ही सिंधिया की दमदारी सवालों के घेरे में आती।
चौथी भूल है इस तरह अचानक अवांछित विदाई देना। एक तरीका ये भी हो सकता था कि बतौर संगठन के मुखिया वीडी शर्मा सभी को पत्र लिखते और उन्हें पदों से इस्तीफा देने को कहते। पार्टी लाइन का पालन करते हुए सभी नेता इस आदेश को मानने के लिए बाध्य होते और ससम्मान अपने पदों से इस्तीफा दे देते। इस तरह सभी अध्यक्ष और उपाध्यक्षों को सम्मानजनक विदाई दी जा सकती थी।
पांचवी और सबसे बड़ी भूल जो हुई उससे न सिर्फ मोहन यादव के फैसलों की किरकिरी हुई बल्कि ये भी साफ हो गया कि प्रशासनिक स्तर पर भी अभी वो मुस्तैदी और कसावट नहीं आई है जो सीनियर अफसरों से उम्मीद की जाती है। सभी निगम मंडल को खाली करने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री के फरमान जारी करने के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय से एक पत्र जारी होता है। ये पत्र भेजा गया मुख्य सचिव वीरा राणा को और उसके बाद सभी निगम मंडल की नियुक्तियां निरस्त कर दी गईं। इस फैसले की जद में रेरा यानी कि भू-संपदा विनियामक प्राधिकरण भी आ रहा था। लिस्ट के 27वें नंबर पर ये नाम देखा तो अफसरों का माथा भी ठनका। इसके बाद नियम-कायदे खंगाले गए तो पता चला कि रेरा अध्यक्ष को ऐसे नहीं हटाया जा सकता। रेरा एक्ट की धारा-26 कहती है कि रेरा के अध्यक्ष को तभी हटाया जा सकता है जब उन्हें कोर्ट से सजा मिली हो या दिवालिया घोषित किया गया हो। इसके अलावा रेरा अध्यक्ष के खिलाफ कोई गंभीर आरोप हो ओर उसकी जांच सिटिंग जस्टिस से कराने के बाद आरोप सिद्ध होने पर ही अध्यक्ष को हटाया जा सकता है। या फिर तीसरा विकल्प है कि रेरा अध्यख खुद ही अपने पद से इस्तीफा दे दें। इन तीन विकल्पों के अलावा और किसी कारण के चलते रेरा अध्यक्ष को कार्यकाल पूरा होने से पहले हटाया नहीं जा सकता। मामले की जानकारी मिलने के बाद सरकार इस पूरे मामले को रफा-दफा करने में लग गई है। वहीं रेरा अध्यक्ष एपी श्रीवास्तव इस बात से खफा हैं कि अफसरों की लापरवाही के चलते उन्हें हटाने की खबर मीडिया में चल रही है। हालांकि उन्होंने इस संबंध में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया।
राजनीतिक और प्रशासनिक अपरिपक्वता का बखान कर रहा घटनाक्रम
ये घटनाक्रम भले ही सुनने में छोटा लगता हो, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक अपरिपक्वता का पीट-पीटकर बखान जरूर कर रहा है। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में इससे पहले रेरा के अध्यक्ष को हटाया नहीं गया, लेकिन तब पूरा तरीका अपनाया गया था। मामला शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल का है। तत्कालीन शिवराज सरकार ने पूर्व मुख्य सचिव अंटोनी डिसा को रेरा अध्यक्ष बनाया था, लेकिन बाद में तत्कालीन मुख्य सचिव इकबाल सिंह बैंस से पटरी न बैठने के कारण उनसे सरकार ने इस्तीफा ले लिया था। सूत्र बताते हैं कि डिसा इस्तीफा देने को तैयार नहीं थे, इस पर तत्कालीन सरकार के अफसरों ने उनके खिलाफ पुराने मामले निकालकर दबाव बनाया जिसके बाद डिसा ने इस्तीफा दिया।
क्या सब नौसीखिए हैं ?
राजनीति या कूटनीति अपनाकर ऐसे काम कई बार किए गए हैं, लेकिन इस तरह ताबड़तोड़ तरीके से बिना सोचे-समझे फैसला लेकर मोहन यादव सरकार खुद ये साबित कर रही है कि इस मैदान में वो और उनके अफसर सब नौसीखिए हैं। लोकसभा चुनाव से पहले हालात ये हैं कि जो निगम मंडल के अध्यक्ष मीटिंग की तैयारी में हैं या कुछ नया इमप्लिमेंट करना चाहते हैं उन्हें फोन के जरिए या मीडिया के जरिए ये पता चल रहा है कि उनकी कुर्सी छिन चुकी है। ऐसे फैसले के पीछे अब तक आलाकमान का फरमान बता रहे डॉक्टर मोहन यादव अपने इस अधपके फैसले के पीछे भी क्या आलाकमान को ही जिम्मेदार बताएंगे।