संजय गुप्ता, INDORE. मालवा-निमाड़ की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के समर्थकों के बीच अब सबसे बड़ा सवाल यही चल रहा है कि आखिर बॉस (समर्थक उन्हें बॉस ही पुकारते हैं) के हाथों में कोई कुर्सी आती क्यों नहीं? दो महीने की दिल्ली-भोपाल तक चली उठापठक के दौरान समर्थकों को बड़ी आस जागी थी कि इस बार तो कम से कम बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष पद की कुर्सी दूर नहीं है। लेकिन अब यह उम्मीद टूट गई है। वहीं चुनाव प्रबंध का जिम्मा भी केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के हाथ में चला गया है। चुनाव में अब सौ दिन से भी कम समय बचा है और अभी तक विजयवर्गीय की भूमिका प्रदेश में तय नहीं हुई है। हालांकि, वह जरूर खुद के लिए कहते हैं कि वह चुनाव में मालवा-निमाड़ को देखेंगे, लेकिन पार्टी ने फिलहाल औपचारिक तौर पर कोई जिम्मेदारी नहीं दी है।
इस तरह बढ़ते गए राजनीति में कदम
विजयवर्गीय एक बहुत सामान्य घर से आते हैं, धीरे-धीरे वह राजनीति में आए, 1975 में एबीवीपी ज्वाइन की, फिर 1983 में पार्षद भी बने, युवा मोर्चा में भी कई पदों पर रहे। इसके बाद साल 1990, 1993, 1998, 2003, 2008 और 2013 तक लगातार छह चुनाव जीतकर विधायक बने। इसमें भी वह विधानसभा चार, विधानसभा दो औऱ् महू विधानसभा से जीते। साल 2000 में पहली बार सीधे चुने गए महापौर बने। साल 2003 से मप्र सरकार के मंत्रिमंडल में लगातार 12 साल जुलाई 2015 तक रहे। एक समय तो आधा दर्जन विभागों के मंत्री रहे। साल 2014 में हरियाणा चुनाव के प्रभारी बने और बीजेपी को जीत दिलाई, साल 2015 में राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए। राज्य मंत्रीमंडल से हटे तो लगा कि अब केंद्र में विजयवर्गीय धमाका करेंगे, शुरूआत भी शानदार रही और पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के दौरान 18 सीट दिलवाई और खुद पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जमकर तारीफ की। हर तरफ बॉस की चर्चा थी, इस समय उन्हें बंगाल टाइगर नाम दिया गया। समर्थकों ने सौ टंच खरा का नारा भी चलाया।
ये भी पढ़ें...
पटवारी परीक्षा धांधली को लेकर अब 25 जुलाई को भोपाल में महाआंदोलन की घोषणा, CBI जांच सहित छह मांग
इसके बाद आया उतार का सिलसिला
सब कुछ सही चल रहा था, पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में बहुमत की बात होने लगी थी, बीजेपी की रैलियों की भीड़ की बात हर तरफ थी, विजयवर्गीय से लेकर बीजेपी तक आश्वस्त थे, जीत उन्हीं की होगी लेकिन वहां चुनाव हारना और सत्ता में नहीं आना बड़ा झटका रहा। उधर, जुलाई 2019 में उनके विधायक पुत्र आकाश विजयवर्गीय के बल्ला कांड ने राष्ट्रीय स्तर पर हंगामा कर दिया। खुद मोदी ने एक बैठक में इस पर जमकर नाराजगी जताई। इसके बाद विजयवर्गीय के हाथों में पार्टी की ओर से कोई भी बड़ी जिम्मेदारी नहीं आई, जिसे लेकर समर्थक उनके समर्थन में बडा जुलूस निकाल सकें। विजयवर्गीय मिलने को हर किसी से मिलते हैं, अमित शाह से लेकर केंद्र के हर बड़े नेता के साथ उनकी मुलाकात होती है, दिल्ली बैठकों में जाते हैं, राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाए रखा है लेकिन कोई बड़ी जिम्मेदारी और पद इसके अलावा उनके पास नहीं है और यही चिंता उनके समर्थकों को खाई जा रही है।
खुद के इतना मजबूत होने से विरोधी हो गए एकजुट
विजयवर्गीय एक समय इंदौर के साथ ही मालवा-निमाड़ की राजनीति में बहुत ही पॉवरफुल रहे। जब भी प्रदेश में बदलाव की बात उठी तो विजयवर्गीय को सीएम से लेकर प्रदेशाध्यक्ष पद का सबसे मजबूत दावेदार माना जाता रहा। इंदौर में तो उनके समर्थन के बिना चुनाव जीतना लगभग नामुमकिन ही माना जाता रहा है। हालात यह रही कि एक लोकसभा चुनाव में सुमित्रा महाजन के हारने तक की नौबत आ गई थी। इसके बाद इंदौर में ताई-भाई गुट चर्चित रहा। इंदौर में महापौर प्रत्याशी चुनना हो या फिर विधायकों के टिकट तय करना हो या कोई भी काम हो, उनका हमेशा दबदबा रहा। शायद यही वजह रही कि एक गुट ताई का बन गया, जिसमें कई क्षेत्रीय नेता, विधायक चले गए, साथ ही सीएम शिवराज सिंह चौहान से भी इस गुट को काफी नजदीकी मिली। प्रदेश की राजनीति में चौहान के मजबूत होने के चलते विजयवर्गीय गुट की पकड़ ढीली होती गई। हालत यह हो गई कि प्रदेश में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले विधायक रमेश मेंदोला को मंत्री पद से लेकर कोई अन्य पद भी नहीं दिया गया। महापौर के लिए नाम चला तो पार्टी लाइन ही तय हो गई विधायक को नहीं देंगे टिकट।
हालत यह कि चुनाव में विजयवर्गीय-मेंदोला की जरूरत, फिर टाटा-बाय बाय
मेंदोला को महापौर चुनाव हो या सांवेर उपचुनाव हर जगह चुनाव प्रबंधन का जिम्मा दिया जाता है। इंदौर में किसी को सांसद, महापौर पद पर चुनाव जीतना है तो विजयवर्गीय-मेंदोला की मदद के बिना यह मुश्किल ही होता है। महापौर पद के प्रत्याशी बनने पर पुष्यमित्र भार्गव को भी सबसे ज्यादा इन्हीं के साथ देखा गया, विजयवर्गीय ने रैली भी की और 1.31 लाख वोट से जीत भी गए। चुनाव प्रबंधन और जीत के बाद धीरे-धीरे पार्टी भी उन्हें टाटा-बाय-बाय करती नजर आती है। वहीं जिस पर विजयवर्गीय की छाप लगी जैसे मंदोला, महापौर भार्गव, उन्हें भोपाल से भी तवज्जो कम ही मिलती है। अब एक बार फिर विधानसभा चुनाव के पहले सभी उम्मीदें कर रहे हैं कि बंगाल टाइगर दहाडेगा और अभी नहीं तो चुनाव में जीते के बाद पार्टी भी मानेगी कि बॉस सौ टंच खरे हैं।