मनीष गोधा, जयपुर. राजस्थान में जनता ना सिर्फ हर पांच साल में सत्ता बदलती है, बल्कि सरकार के लगभग आधे मंत्रियों को भी घर बैठा देती है। पिछले चार चुनाव से राजस्थान में लगभग ऐसा ही ट्रेंड दिख रहा है। इस मामले में बीजेपी का रिकॉर्ड हालांकि कांग्रेस से कुछ बेहतर है। शायद इसका एक कारण यह भी है कि पिछले चार चुनाव में कांग्रेस बीजेपी के मुकाबले ज्यादा बुरी तरह हारी है।
सरकार कोई भी चुनी जाए, मंत्री उस सरकार का चेहरा होते है। उनका काम हमेशा कसौटी कसा जाता है। विधायक के रूप में उन्हें ना सिर्फ अपने क्षेत्र की जनता को खुश रखना पड़ता है बल्कि विभाग का मंत्री होने के नाते पूरे प्रदेश की जनता का ध्यान भी रखना पड़ता है। चूंकि राजस्थान में हर बार जनादेश सरकार के खिलाफ जाता रहा है, ऐसे में सरकार के मंत्री कैसे बच सकते हैं। मंत्री होने के नाते इनके क्षेत्र के लोगों का यह विशेष तौर पर ध्यान तो रखते हैं, लेकिन मंत्री होने के कारण क्षेत्र की जनता की अपेक्षाएं भी ज्यादा हो जाती हैं और शायद अपेक्षाएं ही इनकी हार का कारण बनती है। एक रोचक पहलू यह भी है कि जहां बीजेपी के बड़े मंत्री हर चुनाव में अपनी सीट बचाने मे सफल रहे, वहीं कांग्रेस के बड़े चेहरों को हर बार हार का सामना करना पड़ा।
यह है पिछले चार चुनाव का ट्रेंड
2018
इस चुनाव के समय बीजेपी सत्ता में थी और इसके 163 सीटो का प्रचंड बहुमत हासिल था, लेकिन जब चुनाव हुए तो पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा। पार्टी 163 से 73 पर आ गई। मंत्रियों की बात करें तो कुल 30 में से 16 मंत्री चुनाव हार गए। हार का सामना करने वालों में युनूस खान, प्रभुलाल सैनी, राजपालसिंह शेखावत, धनसिंह रावत, अरुण चतुर्वेदी, अजयसिंह किलक, श्रीचंद कृपलानी, डॉ. रामप्रताप, कमसा मेघवाल, बंशीधर बाजिया, ओटाराम देवासी, कृष्णेद्र कौर दीपा, सुशील कटारा, अमराराम और बाबूलाल वर्मा जैसे नाम शामिल थे। हालांकि सरकार के बडे मंत्री अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे थे। इस चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के अलावा मंत्रियों में सिर्फ गुलाबचंद कटारिया, राजेंद्र राठौड़, किरण माहेश्वरी, कालीचरण सराफ, पुष्पेंद्र सिंह, अनिता भदेल और वासुदेव देवनानी को जीत मिली थी।
2013
2013 के चुनाव के समय राजस्थान में कांग्रेस सत्ता में थी। पार्टी जब सत्ता में आई थी इसे पूरा बहुमत नहीं मिला था और 96 सीटे हासिल हुई थी। पार्टी ने बसपा के छह विधायकों को शामिल कर सरकार चलाई। चुनाव हुआ तो पार्टी सिर्फ 21 सीटों पर सिमट गई। गहलोत सरकार में मंत्री रहे ज्यादातर नेताओं को फिर से टिकट दिया लेकिन सिर्फ तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मंत्री महेंद्रजीत मालवीय, गोलमा देवी, बृजेंद्र ओला और राजकुमार शर्मा ही जीते। इनके अलावा पूरा मंत्रिमंडल हार गया। इनमें शांति धारीवाल, दुर्रु मियां, भरतसिंह, बीना काक, भंवरलाल मेघवाल, ब्रजकिशोर शर्मा, परसादीलाल, डॉ. जितेंद्र सिंह, राजेंद्र पारीक, हेमाराम और हरजीराम बुरड़क जैसे दिग्गज नेता शामिल थे। इनमें से धारीवाल, हेमाराम, परसादीलाल और भंवरलाल मेघवाल इस बार भी मंत्री हैं।
2008
इस चुनाव के समय बीजेपी 120 सीटों के साथ सत्ता में थी, लेकिन चुनाव हुए तो पार्टी 78 सीटों पर सिमट गई। इस चुनाव में बीजेपी 30 में से 25 मंत्रियों को फिर से मैदान में उतारा था, लेकिन इनमें से 13 मंत्री हार गए। हार का सामना करने वाले तत्कालीन मंत्रियों में युनूस खान, सांवरलाल जाट, मदन दिलावर, कनकमल कटारा, प्रतापसिंह सिंघवी, सुरेंद्रपाल सिंह टीटी जैसे बडे नाम शामिल थे। राजेंद्र राठौड़, नरपतसिंह राजवी और प्रभुलाल सैनी ने हार के डर से सीटें बदल ली थी और इसका फायदा भी इनको मिला।
2003
इस चुनाव के समय कांग्रेस 156 सीटों के साथ सत्ता में थी और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे। चुनाव से पहले सरकार रिपीट होने की जबर्दस्त हवा थी, लेकिन चुनाव हुए तो पार्टी सिर्फ 56 सीटों पर सिमट गई। हालत यह हुई कि गहलोत मंत्रिमंडल के 30 में से 18 मंत्री चुनाव हार गए। इनमें छोगाराम बाकोलिया, गुलाबसिंह शक्तावत, हरेंद्र मिर्धा, खेतसिंह राठौड़, तैयब हुसैन, डॉ. कमला बेनीवाल, डॉ. जकिया, हरिसिंह कुम्हेर, डॉ. जितेंद्र सिंह, मास्टर भंवरलाल मेघवाल, इंदिरा मायाराम, जनार्दन सिंह गहलोत, माधव सिंह दीवान, हबीबुर्रहमान जैसे दिग्गज नेता शामिल थे।
इस बार की सम्भावना
इस बार की बात करें तो कांग्रेस सत्ता में है और इसके 30 में से दो मंत्री शांति धारीवाल और हेमाराम चौधरी इस बार चुनाव नहीं लडने की बात कह चुके हैं। धारीवाल अपने बेटे के लिए टिकट चाहते हैं, वहीं हेमाराम चौधरी भी चुनाव नहीं लडने की बात कह रहे हैं। बाकी बचे 28 मंत्रियों में से तीन से चार के टिकट कटने की सम्भावना बताई जा रही है। बाकी बचे मंत्रियों में से कितने वापस जीत पाते हैं, यह जनता ही तय करेगी।