BHOPAL. मध्यप्रदेश में आदिवासी कोटे से मंत्री बनीं संपतिया उइके भारी संघर्ष के बाद यहां तक पहुंची हैं। उनका पारिवारिक और राजनीतिक सफर काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है। 1999 में सरपंच बनने से पहले परिवार की आर्थिक स्थिति को देखते हुए ईंट-भट्ठे पर मजदूरी तक करनी पड़ी थी।
संपतिआई नाम रखा, बाद में हुआ संपतिया
संपतिया का जन्म कार्तिक के महीने में हुआ था। इसलिए परिवार से उन्हें संपतिआई नाम मिला। बाद में उनका नाम संपतिया हो गया। आदिवासी समाज में बेटी के जन्म पर खुशी मनाई जाती है। कार्तिक महीने में कोदों-कुटकी की फसल आती है। इसे बेचकर आदिवासी समाज अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम करता है। इसे आदिवासी संपत्ति मानते हैं। इसलिए संपतिआई नाम रखा गया।
8 किलोमीटर दूर पढ़ने जाती थीं संपतिया
संपतिया उइके के नाना प्राइमरी टीचर थे। उनकी मां 8वीं तक पढ़ी थीं। वे चाहती थीं कि संपतिया उनसे ज्यादा पढ़ें। मां ने हमेशा उनका हौसला बढ़ाया। संपतिया ने 8वीं तक धुतका गांव के स्कूल से पढ़ाई की। ये उनके गांव से 8 किलोमीटर दूर था। वे बेहद साधारण परिवार से आती हैं। उनका गांव जंगल में ही था। पक्की सड़कें नहीं थीं। रास्ते ऊबड़-खाबड़ थे। संपतिया उनकी बहन के साथ स्कूल जाती थीं। लौटते वक्त रात हो जाती थी, लेकिन फिर भी उनकी मां ने पढ़ने से मना नहीं किया।
माता-पिता की तस्वीर के सामने की थी प्रतिज्ञा
सम्पतिया उइके ने मंडला के बम्हनी बंजर गांव से 12वीं की पढ़ाई की। ये उनके गांव से 13 किलोमीटर दूर था। वे अपनी बहन के साथ साइकिल से स्कूल जाती। इसी दौरान एक ऐसा वाकया हुआ, जिसके बाद सम्पतिया ने प्रतिज्ञा की या तो वे आईएएस बनेंगी या फिर नेता। गांव से स्कूल के बीच बंजर नदी पड़ती थी। नदी पर कोई पुल नहीं था। बारिश के दिनों में नदी पार करने के लिए डोंगी का ही सहारा था। मैं और मेरी बहन अपनी साइकिल को डोंगी में रखते और दूसरे किनारे पहुंचते थे। एक बार वे स्कूल से वापस लौट रही थीं। नदी में पानी भरा हुआ था। उन्होंने रोज की तरह साइकिल को डोंगी में रखा। जैसे ही नदी के बीच में पहुंचे अचानक नदी का बहाव तेज हो गया और डोंगी में पानी भर गया। उन्हें तैरना आता था। जैसे-तैसे वे आधा किलोमीटर दूर किनारे पर पहुंचीं। रात में देरी से पहुंचने पर जीजाजी ने उनकी पिटाई की। जब उन्होंने जीजाजी को देरी का कारण बताया तो उन्हें दुख हुआ। संपतिया ने मां और पिता के फोटो के सामने खड़े होकर प्रतिज्ञा की थी कि या तो IAS बनेंगी या नेता। बंजरी नदी पर पुल बनवाएंगी ताकि दूसरों को तकलीफ ना झेलनी पड़े। 2014 में बंजरी नदी पर पुल बना तब वे जिला पंचायत अध्यक्ष थीं।
संपतिया ने ईंट-भट्टे पर किया काम, फिर खुद का स्कूल खोला
शादी के बाद संपतिया के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। रोजी-रोटी के लिए उन्हें 30 रुपए दिन के हिसाब से ईंट-भट्ठे पर मजदूरी की। खेतों में भी काम किया। ये खराब आर्थिक स्थिति का बुरा दौर जल्द ही गुजर गया। उनके पति की पोस्टिंग 200 किलोमीटर दूर डिंडोरी जिले में हुई। घर में बूढ़े सास-ससुर थे, इसलिए वे पति के साथ नहीं गईं। गांव में महिला मंडल बनाया। मंदिर के पास एक आम के पेड़ के नीचे वे बच्चों को पढ़ाने लगीं। उन्होंने सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से स्कूल खोला।
सामान्य सीट से पहली बार बनीं आदिवासी सरपंच
सम्पतिया उइके 1999 में टिकरवाड़ा गांव की सरपंच निर्विरोध चुनी गईं। इसकी भी दिलचस्प कहानी है। वे बताती हैं कि गांव के मालगुजार ने पति और ससुर के सामने प्रस्ताव रखा कि बहू पढ़ी-लिखी है, उसे सरपंच का चुनाव लड़वाते हैं। गांव का अच्छा विकास करवाना है। जब पति ने मुझे ये बात बताई तो मेरी आंखों से आंसू निकल गए। माता-पिता की फोटो के सामने जो प्रतिज्ञा की थी, वो पूरी होती नजर आई। भले ही मैं मायके में अपने गांव का विकास नहीं कर सकी, लेकिन मुझे ससुराल में ये मौका मिला। सरपंच का चुनाव लड़ने से पहले मैंने एक शर्त रखी कि मेरे सामने कोई दूसरा प्रत्याशी खड़ा न हो। गांव के सभी लोगों की मर्जी होगी, तभी मैं चुनाव लड़ूंगी। गांव के लोगों ने साथ दिया और 1999 में मैं सामान्य सीट से निर्विरोध सरपंच चुन ली गई।
संपतिया उइके को मिला राष्ट्रपति पुरस्कार
सरपंच बनने के बाद सम्पतिया उइके ने सबसे पहले गांव की सड़क बनवाई। इसके बाद उन्होंने गांव की महिलाओं को साक्षर करने का जिम्मा उठाया। इसके लिए 2002-2003 में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के हाथों राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। महिलाओं की हालत सुधारने के लिए स्व सहायता समूह बनाना शुरू किया। तब तक वे सरपंच से जिला पंचायत अध्यक्ष बन चुकी थीं।
2013 में पहली बार लड़ा था विधायक का चुनाव
2013 में बीजेपी ने उन्हें मंडला से विधानसभा चुनाव का टिकट दिया। वे बताती हैं कि मैंने पार्टी से टिकट नहीं मांगा था। उस समय पार्टी अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ही मुझे टिकट देने का फैसला किया था। मैं चुनाव में प्रचार ही नहीं कर पाई क्योंकि मेरे पति का असामयिक निधन हो गया। इसके बाद मैं काफी डिस्टर्ब हो गई थी। इसके बावजूद सिर्फ 1700 वोटों से ही हार हुई। 2017 तक सम्पतिया जिला पंचायत अध्यक्ष रहीं। तीसरी बार उनका निर्वाचन निर्विरोध हुआ था। 2017 में बीजेपी के दिग्गज अनिल माधव दवे के निधन से खाली हुई राज्यसभा सीट के लिए पार्टी ने उन्हें प्रत्याशी बनाया और यहां भी वे निर्विरोध चुनी गईं। 10 साल बाद 2023 में पार्टी ने उन्हें मंडला विधानसभा सीट से एक बार फिर प्रत्याशी बनाया। इस बार उनका मुकाबला कांग्रेस के कमल मर्सकोले से हुआ। सम्पतिया ने ये चुनाव 15 हजार से ज्यादा वोटों से जीता और विधायक चुनी गईं। अब वे मोहन यादव की सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं।