मध्यप्रदेश में सिंधिया के सामने बड़ी मजबूरी? नरेंद्र सिंह तोमर का देना होगा हर हाल में साथ, तभी बनेगी बात!

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Harish Divekar
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मध्यप्रदेश में सिंधिया के सामने बड़ी मजबूरी? नरेंद्र सिंह तोमर का देना होगा हर हाल में साथ, तभी बनेगी बात!

BHOPAL. बचपन में क्लासरूम में मजाक-मजाक में अक्सर एक बात कही जाती थी। शायद आपने भी कही हो या आपकी टीचर से सुना हो। कहा ये जाता था कि सबसे शैतान बच्चे को क्लास का मॉनीटर बना दो क्लास अपने आप शांत रहेगी। मजाक भरा ये जुमला कभी-कभी सियासत पर फिट बैठ जाता है। बीजेपी ने भी एक ऐसा ही फैसला लिया है। हालांकि, इस कांटेक्स्ट में शैतान शब्द पूरी तरह मुफीद नहीं है, लेकिन ये तो कहा ही जा सकता है कि बीजेपी ने जिस नेता को मप्र की कमान सौंपी। उसके लिए पार्टी के अंदर ही मौजूद अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलाना मजबूरी बन गया है। कट्टर प्रतिद्वंद्वी की मजबूरी ये है कि वो उस हाथ को खाली नहीं लौटा सकता। पहले ये दो नेता बिना अंदर अंदर एक दूसरे की खिलाफत कर रहे थे। अब हालात ये है कि दोनों की साख एक ही जगह से एक ही समय पर दांव पर है। दूसरे की जड़ें काटने की कोशिश की तो अपना आधार भी कमजोर होगा। 



तोमर को ही क्यों बनाया चुनाव प्रबंधक समिति का संयोजक



बीजेपी हर बार बहुत सोच समझ कर और ऐसे प्वाइंट्स को जेहन में रखकर फैसले लेने के लिए जानी जाती है जिसके बारे में सोचना सबके बस की बात नहीं होती। मध्यप्रदेश में भी बीजेपी ने ऐसा ही एक फैसला लिया है। नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव प्रबंधन समिति का संयोजक बनाकर। फैसला थोड़ा पुराना है, लेकिन अब उसकी तह तक जाने की कोशिश कीजिए और समझने की कि आखिर बीजेपी ने ऐसा क्यों किया। ये कमान नरेंद्र सिंह तोमर को ही क्यों सौंपी गई। क्या वो शिवराज सिंह चौहान के करीबी हैं इसलिए। क्या बीजेपी को उनकी प्रबंधन क्षमता पर भरोसा है इसलिए या फिर इसलिए कि ग्वालियर चंबल में ज्योतिरादित्य सिंधिया के कद को या वर्चस्व को कम किया जा सके। थोड़ा गौर से सोचेंगे तो शायद इस फैसले की वजह आसानी से समझ जाएंगे। पूरी बात तफ्सील से जानने से पहले इतना जान लीजिए कि इस एक फैसले बीजेपी ने ग्वालियर चंबल से जुड़ी एक बड़ी मुसीबत को  खत्म कर दिया है।



बीजेपी को 2013 के चुनाव के नतीजे की चाहत 



एक बार फिर क्लास मॉनीटर वाली बात पर आते हैं। यहां बीजेपी ने सबसे शैतान बच्चे को नहीं सबसे जहीन शख्स को चुना है। जो प्रदेश के साथ-साथ ग्वालियर चंबल की नब्ज भी खूब समझता है। प्रदेश में तो बात बन ही जाएगी। ग्वालियर चंबल में जो हालात बुरी तरह खराब हो रहे थे वो भी ठीक हो जाएंगे। क्योंकि अब तोमर की मजबूरी है सिंधिया को साथ लेकर चलना और सिंधिया की मजबूरी भी है कि तोमर की खिलाफत में हद से न गुजरना। इस अंचल से बीजेपी वही नतीजे चाहती है जो 2013 के चुनाव तक उसे मिले। 2018 में हाल बुरे रहे और अब बदतर नजर आ रहे हैं। दो क्षत्रपों की लड़ाई में ग्वालियर चंबल में बड़ा नुकसान नजर आ रहा था, लेकिन अब हालात बदलना लाजमी है।



तोमर को अपने क्षेत्र में पकड़ और सिंधिया को दबदबा साबित करना है



ग्वालियर चंबल में 2018 के चुनाव में बीजेपी ने महज 7 सीटें जीती थीं। उस चुनाव में कांग्रेस को बढ़त दिलाने का क्रेडिट जिस चेहरे को गया वो अब बीजेपी में शामिल हो चुका है यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया। अब बीजेपी की ख्वाहिश है कि इस अंचल में बहुत बेहतर न सही तो कम से कम 2013 वाला मैजिक ही दिखा सके। 34 में से कम से कम 20 सीटें ही अपने नाम कर लें। इस ख्वाहिश को पूरा करने की जिम्मेदारी नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया की ही है। दोनों ही नेता अनमैच्ड हैं। अपनी पॉलीटिकल स्किल में, अपने तजुर्बे में, अपने क्षेत्र में अपनी पकड़ में और समर्थकों के मामले में भी जो अक्सर आमने-सामने हो जाते हैं। दोनों नेताओं ने खुलकर एक दूसरे के लिए कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके समर्थकों की हरकतें ये जाहिर करती रही हैं कि दोनों के दिल मिलना मुश्किल हो रहा है। पर, अब दोनों की ही साख दांव पर है। तोमर को साबित करके दिखाना है कि क्षेत्र में उनकी पकड़ पहले की तरह मजबूत है और सिंधिया को साबित करके दिखाना है कि उनका दबदबा अब भी कायम है।



तोमर-सिंधिया को अपने क्षेत्र में चुनौतियों का सामना करना है



मतलब साफ है इन दोनों नेताओं को एक दूसरे के साथ दम लगाकर काम करना है। ये अब उनकी मजबूरी भी कही जा सकती है। क्योंकि एक की नाव डुबाकर खुद पार लगना मुश्किल होगा। ग्वालियर चंबल तो हाथ से जाएगा ही पार्टी में भी दोनों की साख और भरोसा दोनों कम होगा। वैसे भी दोनों भले ही बड़े सूरमा हों, लेकिन अपने ही क्षेत्र में उन्हें बड़ी चुनौतियों का सामना जरूर करना है। 



तोमर-सिंधिया की चुनौतियां...




  • दोनों को अपने अपने समर्थकों को काबू में रखना है।


  • कार्यकर्ताओं में जो गहरी नाराजगी है उसे मिटाना है।

  • सिंधिया के आने से नाराज पुराने नेताओं को शांत करना है।

  • अलग अलग तबकों और समाजों को फिर पार्टी से जोड़ना है।



  • गहरी पैठ बना चुकी चुनौतियों से निपटना मुश्किल



    इन दो नेताओं के पुराने तजुर्बे और पकड़ को देखकर कहा जा सकता है कि ये काम इनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं है, लेकिन हालात इशारा करते हैं कि दोनों की डगर बहुत मुश्किल है। सबसे बड़ा चैलेंज तो एक साथ मिलकर काम करना है। उसके बाद चुनौतियों से निपटना है। जो बहुत गहरी पैठ बना चुकी हैं। महापौर चुनाव में ग्वालियर की सीट हारने के बाद दोनों के बीच की खाई और साफ नजर आने लगी है। जिसका असर ग्वालियर चंबल पर पड़ना लाजमी है।



    अब तोमर को मिली नई जिम्मेदारी जाहिर तौर पर ग्वालियर चंबल में कुछ नए समीकरण जरूर बनाएंगे।



    नए फैसले की धमक बहुत जल्द ग्वालियर चंबल में सुनाई देगी



    बीजेपी पर अब तक ये आरोप खूब लगे कि सिंधिया के आने के बाद बीजेपी का हाल कांग्रेस सा हो गया है, गुटबाजी बढ़ती जा रही है। बार-बार फटकार लगाकर इस नए रोग का इलाज करने की जगह बीजेपी ने उन्हीं लोगों को डॉक्टर बना दिया है जो इस मर्ज की जड़ है। अब जड़ को पार्टी में मजबूत होना है तो अपने मर्ज का इलाज खुद ही ढूंढना होगा और खुद ही दवा करनी होगी। उम्मीद की जा रही है कि इस नए फैसले की धमक बहुत जल्द ग्वालियर चंबल में सुनी जा सकेगी।


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