मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान लड़ेंगे लोकसभा चुनाव? केंद्रीय मंत्री के इस बयान के क्या हैं मायने?

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Harish Divekar
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मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान लड़ेंगे लोकसभा चुनाव? केंद्रीय मंत्री के इस बयान के क्या हैं मायने?

BHOPAL. शिवराज सिंह चौहान लोकसभा चुनाव लड़ेंगे, केंद्र में जाएंगे और कैबिनेट मंत्री बनेंगे। मोदी के एक मंत्री ने शिवराज के शहर में आकर ये बात कही। ये कोई वादा है या महज एक और दिलासा है। या, अटकलों को बंद रखने और मीडिया को खामोश रखने का एक शगूफा भर है। क्योंकि मोदी के जिस मंत्री ने ये बात कही है उसका बीजेपी से कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता एनडीए में साख मजबूत है।

शिवराज को लेकर बीजेपी के किसी नेता नहीं कही ये बात

ये केंद्रीय मंत्री हैं रामदास अठावले, जिनका ताल्लुक महाराष्ट्र से है। और इनकी पार्टी का नाम है रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया। जो बीजेपी नीत अलायंस है। जो बात अब तक बीजेपी के किसी नेता नहीं कही। न ही बीजेपी आलाकमान की तरफ से ऐसा कोई हिंट मिला है। उस बयान का रामदास अठावले की तरफ से आना क्या मायने रखता है। क्या शिवराज सिंह चौहान के लिए ये राहत का पैगाम है। आलाकमान का कोई मैसेज है। अगर ये आलाकमान का मैसेज होता तो अठावले से पहले खुद शिवराज को इस बात का इल्म होता और उनके बयानों में लगातार झलक रही मायूसी नजर नहीं आती।

शिवराज सिंह चौहान के सियासी सफर भुला नहीं सकते

अठावले की इस बात को सिर्फ बयान समझ कर छोड़ा नहीं जा सकता। इसकी गहराई में जाकर इसका आकलन करना जरूरी है। वैसे भी शिवराज सिंह चौहान का सियासी सफर इतना छोटा नहीं रहा कि उसे भुला दिया जाए। वो बीजेपी के सांसद रहे। जिस वक्त पार्टी ने उन्हें सांसदी छोड़कर दिग्विजय सिंह का मुकाबला करने राघौगढ़ भेजा। वो बिना किसी सवाल जवाब के उस काम में जुट गए। हारे भी, लेकिन पार्टी के दिए काम पर कभी पलटकर सवाल नहीं किया। उनकी इसी निष्ठा का सिला मिला कि वो मध्यप्रदेश के मुखिया बने और एक के बाद एक चार बार सत्ता पर काबिज होने में कामयाब भी रहे। 2023 की बंपर जीत के बाद शायद पहली बार शिवराज सिंह चौहान का एक नया रूप देखने को मिला है। जब वो मोदी की गारंटी के खिलाफ बार बार लाड़ली लक्ष्मी योजना को जीत का क्रेडिट देते नजर आए।

पार्टी और जनता दोनों को मोदी की गारंटी पर भरोसा

अपने आकाओं की मर्जी जाने बगैर ये ऐलान कर दिया कि वो अब लोकसभा की सीटों जिताने के लिए मध्यप्रदेश का दौरा करने वाले हैं। क्या बीस साल तक प्रदेश का मुखिया बने हुए उन्हें ये गुमान हो गया था कि अब ये प्रदेश उन्हीं की मिल्कियत है और मुख्यमंत्री रहे या न रहें प्रदेश में चलेगी तो उनकी ही चलेगी। शायद वो भूल गए थे कि अब मामा और पांव-पांव वाले भईया से ज्यादा पार्टी और जनता दोनों मोदी की गारंटी पर भरोसा कर रहे हैं। पार्टी प्रमुख जेपी नड्डा से एक मुलाकात के बाद शिवराज सिंह चौहान के तेवर ठंडे पड़ गए। सुर बदल गए और ये तस्वीर भी क्लियर हो गई कि अब मध्यप्रदेश को उनकी कोई जरूरत नहीं है। न लाड़ली बहनों को न मामा की प्यारी भांजियों। लोकसभा में चुनावी चेहरा मोदी ही होंगे और उस चेहरे को चमकाने के लिए एक नया और जूनियर चेहरा भी बतौर मुख्यमंत्री काफी है। इस बीच मोदी कैबीनेट के मंत्री और सीनियर नेता का बयान आता है कि वो लोकसभा चुनाव लड़ेंगे और मंत्री भी बनेंगे। जो फिर से बहुत सारे सवाल खड़े कर रहा है।

...तो क्या शिवराज छिंदवाड़ा से चुनाव लड़ते नजर आएंगे

पहला सवाल ये कि अगर शिवराज सिंह चौहान खुद चुनाव लड़ेंगे तो किस सीट से चुनाव लड़ेंगे। क्या वो वीदिशा सीट से ही चुनाव लड़ेंगे। जो बीजेपी की सबसे सेफ सीट है। ये खबरें अक्सर आती रही हैं कि आलाकमान शिवराज सिंह चौहान से खफा चल रहे हैं। तो, क्या शिवराज सिंह चौहान को इतना आसान काम सौंप दिया जाएगा। या, उन्हें किसी ऐसी सीट की जिम्मेदारी सौंपी जाएगी, जो बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद टेढ़ी खीर साबित हो रही है। वैसे ये बता दूं प्रदेश में सिर्फ एक ही लोकसभा सीट ऐसी बची है जहां बीजेपी जीत नहीं पाई है। वो है कमलनाथ की सीट। तो, क्या अब शिवराज सिंह चौहान, छिंदवाड़ा से चुनाव लड़ते नजर आएंगे। अगर ऐसा होता है तो शिवराज सिंह चौहान को अपनी पूरी ताकत झौंकनी होगी कि वो कमलनाथ को हराकर संसद पहुंच सके। और अगर हारे तो अब तक के पॉलिटिकल करियर पर सवाल उठ सकते हैं। सत्ता में बने रहने की हेकड़ी एक बार में खत्म हो सकती है।

विजयवर्गीय जैसा वनवास और वही चुनौती शिवराज फेस करेंगे?

मान लीजिए कि शिवराज सिंह चौहान छिंदवाड़ा से ही चुनाव लड़ते हैं तो फिर एक सवाल खड़ा होता कि शिवराज सिंह चौहान पार्टी के दिए दूसरे दायित्व को कैसे निभा सकेंगे। नड्डा ने उन्हें दक्षिण भारत की जिम्मेदारी सौंपी है। देश के हिंदी भाषी राज्य में बीजेपी की जीत साफ नजर आती है, लेकिन दक्षिण का द्वार अब भी पार्टी के लिए बंद है। शिवराज सिंह चौहान को यही द्वार खोलना है। चंद सीटें भी बीजेपी के हाथ लगीं तो ये शिवराज सिंह चौहान की बड़ी उपलब्धि होगी। ठीक वैसे ही जैसे पश्चिम बंगाल में कई साल लंबा वनवास गुजारकर कैलाश विजयवर्गीय ने अपनी काबिलियत साबित की और अब उन्हें ससम्मान प्रदेश में वापसी मिली। अब वही वनवास और वही चुनौती शिवराज को फेस करना है। क्या वो इस मिशन में कामयाब हो पाएंगे। और, अगर उन्हें किसी चुनौतीपूर्ण सीट से ही प्रत्याशी बना दिया गया तो क्या वो साउथ पर फोकस कर पाएंगे। दोनों ही सूरतों में शिवराज सिंह चौहान फायदे में होंगे या घाटे में ये अंदाजा लगाना मुश्किल है।

 शिवराज की योजनाओं का जिक्र हर प्रदेश में होता है

अठावले ने ये भी कहा कि शिवराज सिंह चौहान उनके साथ मंत्री मंडल में शामिल होंगे। ये भी तकरीबन नामुमकिन ही नजर आता। ऐसी चर्चाएं पहले कई बार हो चुकी हैं कि नरेंद्र मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद के अगले दावेदार शिवराज सिंह चौहान ही होंगे। वो लगातार चार बार सीएम बन चुके हैं और उनकी योजनाओं का जिक्र हर प्रदेश में होता है। हालांकि, शिवराज सिंह चौहान ने कभी खुद ऐसा कोई कंपेरिजन नहीं किया और न ही ऐसी अटकलों को तूल दी है। इसके बावजूद इन अटकलों की वजह से वो आलाकमान की नजरों में खटकते रहे हैं। विधानसभा चुनाव के दौरान भी जितनी बार मोदी मध्यप्रदेश में प्रचार के लिए आए। उनमें से कई बार शिवराज सिंह चौहान का नाम तक लेना मुनासिब नहीं समझा। शिवराज की कई फ्लेगशिप योजनाओं तक में उनका चेहरा पीछे और छोटा कर दिया गया। तो, क्या अब वही आलाकमान उन्हें कैबिनेट में बैठे देख पाएगा।

शिवराज युग के ऐतिहासिक फैसले बदलना शुरू

वैसे भी प्रदेश में जो हालात हैं वो शिवराज के लिए दिनोंदिन नाउम्मीदी का सबब बनते चले जा रहे हैं। अपने सरकारी निवास का नाम भले ही उन्होंने मामा का घर कर लिया हो, लेकिन ये भी किसी से छिपा नहीं है कि मामा अब भांजियों से बहुत दूर हैं। उनकी बनाई रवायतों को बदलने की शुरुआत राज्य गान से ही हो चुकी है। जिसके लिए मुख्यमंत्री मोहन यादव ही ये कह चुके हैं कि वो राज्यगान के लिए खड़े होने के पक्ष में नहीं है ये सम्मान केवल राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को ही मिलना चाहिए। फैसला बहुत छोटा सा है, लेकिन इशारा साफ है। शिवराज युग के ऐतिहासिक फैसले बदलना शुरू हो चुके हैं।

कुर्सी जाते ही हॉर्डिंग पोस्टर से शिवराज का चेहरा गायब

कुछ ऐसे ही हालात से वो अधिकारी भी गुजर रहे हैं जो शिवराज युग में बड़े पदों पर रहे। शिवराज के करीबी रहे और तकरीबन सत्ता से जुड़े हर फैसले में भागीदार भी रहे। बीजेपी की सरकार बनने पर ऐसे अधिकारियों ने शायद राहत की सांस ली होगी, लेकिन अब सीएम का बदलना यानी सत्ता का बदलना ही साबित हुआ। शिवराज के अधिकांश करीबियों को लूप लाइन में डाल दिया गया है। शिवराज युग के खिलाफ ये फैसले वो सीएम ले रहे हैं जो उनसे काफी ज्यादा जूनियर हैं। जिन्हें पहले पर्यटन विकास निगम का अध्यक्ष बनाने और फिर कैबिनेट का सदस्य बनना की पहल भी खुद शिवराज सिंह चौहान ने ही की थी। उन्हीं शिवराज के खिलाफ ये सूखापन क्यों। क्या मोहन यादव को ऐसी हिदायत मिली है या वो खुद इसके पक्षधर हैं। ये भी एक बड़ा सवाल है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्यों शिवराज युग की फैसलों को एक-एक कर बदला जा रहा है। क्या ये उस युग के इतिहास को धुंधला करने की कोशिश है। और, इस कोशिश से शिवराज भी अनजान नजर नहीं आते। जो ये कह चुके हैं कि कुर्सी जाते ही हॉर्डिंग पोस्टर से उनका चेहरा ही गायब कर दिया गया। जिसके जवाब में उनसे थोड़े ज्यादा तजुर्बेकार दिग्विजय सिंह ने ये पाठ पढ़ा दिया कि इसलिए उन्होंने सीएम रहते कभी अपने चेहरे को तरजीह नहीं दी।

फीनिक्स अपनी राख से ही वापसी करेगा

शिवराज अब उस दौर से गुजर रहे हैं, जिससे कभी उमा भारती गुजरी और कभी प्रदेश से बाहर की जिम्मेदारी संभाल रहे कैलाश विजयवर्गीय गुजरे। अब शिवराज क्या उमा भारती की तरह एग्रेशन का रास्ता चुनते हैं या कैलाश विजयवर्गीय की तरह वनवास खत्म होने का इतंजार करते हैं। फिलहाल उनका रुख शांत है। तो, क्या वो खामोशी के साथ सिर्फ एक विधायक की तरह पूरे पांच साल गुजार देंगे या, फिर किसी हैरान करने वाले तरीके से ये फीनिक्स अपनी राख से ही वापसी करके दिखाएगा।

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