BHOPAL. एक कहावत बहुत पुरानी है कि उगते सूरज को सब सलाम करते हैं। राजनीति में जब भी ये उलटफेर होता है तब ये कहावत एकदम सटीक लगती है। आमतौर पर सूरज उगता है तो ढलने में कम से कम 8 से 10 घंटे का वक्त लेता है, लेकिन मध्यप्रदेश की सियासत में शिवराज नाम के सूरज को अस्त होने में जरा भी वक्त नहीं लगा। इधर उनकी मुखिया के पद से रवानगी हुई और उधर उनके सबसे करीबी नेताओं के पोस्टर से उनके चेहरे गायब हो गए। जिन पट्टिकाओं पर अब तक शान से उनका नाम लिखा होता था अब उस जगह पर मोहन यादव का नाम उकेरा जाएगा। जिस बंगले में उन्होंने तकरीबन सोलह साल गुजारे अब वो मोहन यादव का बंगला होगा। ये चीजें तो बदलती रहेंगी अब तक उनकी गुड बुक्स में रहने की कोशिश करने वाले नेताओं का मन तो अभी से बदला हुआ दिखाई देने लगा है।
पहले से तय थी शिवराज की विदाई
वैसे शिवराज सिंह चौहान की विदाई पहले से ही तय थी। एमपी के मन में मोदी बसे और जहां मोदी बस चुके हैं वहां किसी और का क्या काम। बस इसी सोच के साथ शिवराज का चेहरा पीछे और पीछे जाता चला गया और अब गायब ही हो गया है। शिवराज सिंह चौहान ने लाख कोशिश की ये जताने की कि मध्यप्रदेश की बंपर जीत सिर्फ मोदी के फेस पर नहीं आई है। उनकी लाड़ली बहनों ने भी कमाल दिखाया है। इसे साबित करने के लिए कुछ भावुक पल भी बुने गए, लेकिन आलाकमान का दिल नहीं पिघला। शायद बंपर जीत के बाद शिवराज सिंह चौहान को ये उम्मीद जरूर रही होगी कि इसका क्रेडिट उनके खाते में जाएगा और आखिर में आलाकमान बतौर सीएम उन्हें एक नई पारी शुरू करने का मौका देंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। 163 सीटों पर जीत के बाद जो सब्जबाग उन्होंने सजाए थे वो आलाकमान के सख्त फैसलों से चुटकी में उजड़ गए।
शिवराज की टीस
2 दशक तक मध्यप्रदेश में बीजेपी के झंडा कायम रखने वाले शिवराज कि विदाई ग्रेसफुल नहीं रही। ये भी हो सकता था कि नए CM को अनाउंस करने के पहले मोदी शाह उनको दिल्ली बुलाकर कॉन्फिडेंस में लेते। धन्यवाद ज्ञापित करते, उनकी नई भूमिका के विषय में आश्वस्त करते, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वो भी इस ऐतिहासिक जीत के बाद, शायद खुद शिवराज सिंह चौहान ने ऐसे एग्जिट की कल्पना नहीं की होगी। जब बुझे मन से उन्हें मीडिया के सामने ये कहना पड़ा कि वो कुछ मांगने से बेहतर मर जाना पसंद करेंगे। इन चंद शब्दों में उनकी टीस साफ दिखाई देती है। क्योंकि जिन सवालों के जवाब उन्हें मामा और भाई कहने वाली जनता जानना चाहती है, शायद शिवराज खुद उन सवालों के जवाब तलाश रहे होंगे।
- पहला सवाल ये कि जिस पार्टी को वो इतनी निष्ठा से सेवा करते रहे, उस पार्टी में उन्हें क्या जगह मिलेगी ?
- क्या अब प्रदेश की राजनीति छोड़ कर उन्हें दिल्ली का रुख करना होगा ?
- क्या कैलाश विजयवर्गीय की तरह उन्हें किसी दूसरे प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपकर प्रदेश से बाहर कर दिया जाएगा ?
- कल्याण सिंह या आनंदी बेन पटेल की तरह किसी राज्य का राज्यपाल बनाकर आलीशान चारदिवारी में उन्हें कैद कर दिया जाएगा ?
लोकसभा चुनाव पर शिवराज की नजरें
सवाल कई हैं, लेकिन शिवराज सिंह चौहान जो खुद को फीनिक्स पक्षी की तरह मानते हैं वो किसी नई पहचान के लिए पंख जरूर फड़फड़ाएंगे। फिलहाल तो ऐलान कर चुके हैं कि अब वो पूरी 29 की 29 लोकसभा सीट बीजेपी की झोली में डालने के संकल्प पर निकल चुके हैं। ये जिम्मेदारी उन्होंने खुद को उस प्रदेश में सौंपी है जहां राजेंद्र शुक्ला जैसे उनके करीबी नेता ने ही उन्हें हॉर्डिंग्स और कटआउट्स से बाहर कर दिया है। विधानसभा में जीत के बाद कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेता दिल्ली का रुख कर भी सकते हैं, लेकिन शिवराज सिंह चौहान के लिए तो अभी दिल्ली भी दूर है। राजनीतिक पंडितों की माने तो शिवराज की लोकप्रियता और जननायक की छवि ही बीजेपी में उनकी दुश्मन बन गई। मौजूदा आलाकमान जिसमें नड्डा से पहले मोदी और शाह आते हैं वो कतई नहीं चाहेंगे कि शिवराज जैसे लोकप्रिय नेता दिल्ली आकर बैठे। क्योंकि चाहें या न चाहें शिवराज के आसपास लोगों का जमघट लगा होगा और वो एक नए पावर सेंटर की तरह चैलेंज बनकर खड़े हो सकते हैं।
पीएम पद के दावेदार बन सकते हैं शिवराज
4 बार के सीएम, लोकप्रियता और बंपर जीत दिलाने की ताकत के साथ वो बीजेपी में पीएम पद के दावेदार भी हो ही सकते हैं। दिल्ली के नेताओं में इस इनसिक्योरिटी को जगाने वाले शिवराज के लिए दिल्ली जाना नामुमकिन है। हालांकि एक टीवी शो में खुद जेपी नड्डा ये कह चुके हैं कि वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान को उनके कद और तजुर्बे के आधार पर पार्टी जिम्मेदारी देगी, लेकिन वो जिम्मेदारी क्या होगी। क्या शिवराज सिंह चौहान को लोकसभा का चुनाव लड़वाया जाएगा। शायद नहीं क्योंकि खुद शिवराज इसके लिए तैयार नहीं है और दिल्ली में उन्हें सदन में बिठाने की मंशा खुद पार्टी की नहीं होगी।
इनसिक्योर हो सकते हैं सीएम मोहन यादव
तो क्या शिवराज मंत्री पद कबूल करेंगे। शायद नहीं। लगातार चार बार सीएम रहने के बाद ये खुद अपना कद घटाने वाली बात होगी। अपनी शैली की तर्ज पर मध्यप्रदेश में ही सक्रिय रहे तो मोहन यादव पर भारी पड़ेंगे। शिवराज केबिनेट मे मंत्री रहे और अब मुख्यमंत्री बने मोहन यादव भी इनसिक्योर हो सकते हैं। तो क्या कटआउट में मुख्य लोगों की कतार से उन्हें हटा कर केंद्र और प्रदेश दोनों नेतृत्व ने ये मैसेज देने की कोशिश की है कि अब उनकी यहां कोई जगह नहीं है। क्या सत्ता के शिखर पर रहने के बाद शिवराज सीधे हाशिए पर पहुंचा दिए गए हैं। इन सब सवालों के जवाबों के लिए कम से कम लोकसभा चुनाव तक इंतजार करना होगा। इसके बाद ये देखना भी दिलचस्प होगा कि राजनीति के आकाश में उड़ान भरने वाला ये फीनिक्स पक्षी अपनी राख से दोबारा कैसे जन्म लेता है और क्या करता है।
किसी को ललकारने के मोड में नहीं शिवराज
चुनाव हार चुके पूर्व गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा हार के बाद भी बड़ी शान से कहते हैं 'मेरा पानी उतरता देख, मेरे किनारे पर घर मत बना लेना, मैं समंदर हूं, लौटकर आऊंगा। शिवराज फिलहाल ललकारने वाले ऐसे किसी मोड में नहीं पहुंचे। वो अब भी अपनी विनम्र शैली और इमेज के दायरे में रहकर यही कह रहे हैं कि मित्रों अब विदा, जस की तस रख दीनी चदरिया। ये एक इमोशनल कार्ड भी हो सकता है। पैंतरा जो भी हो, शिवराज के चेहरे की उड़ी हुई रंगत और फीकी मुस्कान साफ बता रही है कि फिलहाल वो खुद अपने सियासी भविष्य और भूमिका को लेकर किसी फैसले पर नहीं पहुंचे हैं। उस पर अपनों का यूं मुंह फेर लेना भी शायद नागवार गुजर रहा हो, लेकिन जिस दिन मुस्कान में वही चमक लौटेगी ये अंदाजा लगाया जा सकेगा कि शिवराज, जननेता बने रहने की कोई नई राह तलाश चुके हैं।