JAIPUR. राजस्थान में नए सीएम भजनलाल शर्मा का नाम तय होते ही, सभी के मन में सबसे पहला सवाल दो बार मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे को लेकर उठ रहा है। सवाल ये है कि वसुंधरा राजे का पार्टी में अब क्या भविष्य होगा? सूत्रों का कहना है कि राजे को सीएम पद से दूर रखने के संकेत उन्हें 8 महीने में 4 बार दिए जा चुके थे, लेकिन वे लगातार अड़ी रहीं और आलाकमान के सामने नाराजगी जताती रहीं। इसका परिणाम ये हुआ कि आलाकमान ने अपने फैसलों में राजे को शामिल करने के बजाय दूर ही रखा। बता दें कि राजे के बतौर सीएम पहले कार्यकाल के समय ओम माथुर प्रदेशाध्यक्ष थे, लेकिन उनके बाद और सतीश पूनिया की नियुक्ति से पहले तक, राजे की राय से ही प्रदेश अध्यक्ष पद नियुक्त होते आए थे। 2009 में ओम माथुर के हटने के बाद अरुण चतुर्वेदी हो या अशोक परनामी, हमेशा वसुंधरा की ही चली।
- प्रदेशाध्यक्ष की नियुक्ति - वर्ष 2019 में राजे की बिना राय लिए आलाकमान ने सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। ऐसे में कहा जा सकता है कि यह पहली घटना थी जब किसी राजनीतिक नियुक्ति में राजे की नहीं चली। पूनिया के अध्यक्ष बनने के बाद राजे सहित उनका गुट नाराज रहा। इसके बाद पूनिया को कार्यकाल पूरा करने के बाद ही हटाया गया। लेकिन चुनाव से चंद महीने पहले बिना राजे की राय लिए सीपी जोशी को अध्यक्ष बना दिया गया। यहीं से वसुंधरा राजे को साइड करने की रणनीति शुरू हुई थी। राजे ने पिछले 4 विधानसभा चुनावों में निकाली गई सभी चुनावी यात्राओं का नेतृत्व किया था। लेकिन बीजेपी आलाकमान ने इस चुनाव में राजे को शामिल किए बगैर अपने स्तर पर परिवर्तन यात्रा का रोड मैप तैयार किया। राजे ने यात्रा शुरू होने से पहले फिर एक बार खुद की भूमिका को लेकर सवाल पूछे। बता दें कि सितंबर में शुरू हुई ये यात्रा 18 दिन चली, लेकिन अंत तक उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। यात्रा के दौरान करीब 75 सभाएं हुईं, लेकिन शुरुआत के बाद राजे दिखाई नहीं दीं।
- टिकट वितरण - टिकट वितरण को लेकर बैठकों में राजे को शामिल रखा गया। राजे ने अपनी राय भी दी और खुद की सूचियां लेकर जयपुर और दिल्ली की बैठकों में शामिल हुईं। खुद की सूचियों के आधार पर आलाकमान ने उनकी बात भी सुनी, लेकिन किया वहीं जो सर्वे में सामने आया था। यहां भी आलाकमान ने खुद की रणनीति से ही टिकट बांटे। सर्वे में राजे समर्थक जिताऊ उम्मीदवारों कालीचरण सराफ, श्रीचंद कृपलानी जैसे नेताओं को टिकट दिया गया। वहीं, राजे के कट्टर समर्थकों में गिने जाने वाले अशोक परनामी, यूनुस खान जैसे चेहरों को चुनाव मैदान से दूर रखा। राजे अंत तक इनकी टिकट के लिए मांग करती रहीं।
- समर्थक विधायकों की लॉबिंग करना - बता दें कि इस चुनाव से पहले और रिजल्ट आने के बाद भी तवज्जो नहीं मिलने से वसुंधरा राजे लगातार नाराज चल रहीं थी। उन्हें भी पहले से अंदाजा था कि चुनाव में जिस तरह से उन्हें दूर रखा गया, मुख्यमंत्री चयन के समय कहीं ऐसा नहीं हो। यही कारण है कि वसुंधरा राजे ने नतीजे आने के बाद समर्थक विधायकों को बुलाया और अपने समर्थन को लेकर नब्ज टटोली।
राजे ने विधायकों को अपने पक्ष में खड़ा करने का किया था प्रयास
चुनाव से पहले और चुनावी परिणाम के बाद दो बार वसुंधरा राजे ने समर्थक विधायकों को अपने पक्ष में खड़ा करने का प्रयास किया। लेकिन उन्हें न तो चुनाव से पहले और न चुनाव परिणाम के बाद पर्याप्त विधायकों का साथ मिला। बल्कि उनके इस व्यव्हार से आलाकमान नाराज हो गए। इस दौरान राजे के पक्ष में केवल दो विधायक रहे, जिन्होंने साफ तौर पर कहा कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाना चाहिए, लेकिन अधिकतर ने आलाकमान के साथ जाने की बात की। इन स्थितियों में राजे के पास आलाकमान के साथ जाने के अलावा कोई और दूसरा ऑप्शन नहीं बचा।
नए नेतृत्व के साथ काम करेगी पार्टी
पार्टी सूत्रों के मुताबिक अब पार्टी नए नेतृत्व के साथ राजस्थान में प्रयोग करना चाहती है, जिससे बीजेपी अगले चुनाव में फिर इस बड़े स्टेट को न खो बैठे। इस बार बीजेपी हर पांच साल में सरकार बदलने का रिवाज पलटने के योजना से चलेगी। ऐसे में सरकार के काम पर आलाकमान बराबर नजरें बनाए रखेगा। कांग्रेस की गहलोत सरकार बनने से पहले और इस चुनाव तक गहलोत और पायलट गुटों के बीच बंटी हुई दिखाई दी। लेकिन बीजेपी आलाकमान ने पूरे प्रचार के दौरान खेमेबंदियों से पार्टी को दूर रखा। बिना सीएम चेहरे के चुनाव लड़ने के पीछे यही रणनीति थी। तमाम फ्री योजनाओं और कर्मचारियों को पुरानी पेंशन का लाभ देने के बाद भी कांग्रेस अपनी सरकार रिपीट नहीं करवा सकीं।
नहीं चल सकी वसुंधरा की
यदि वसुंधरा राजे को ही आगे किया जाता, तो राजे समर्थकों के अलावा बीजेपी का एक धड़ा और संघ, तीन तरह से गुटबंदी होने की आशंका बन जाती। संघ भी हमेशा आरोप लगाते आया है कि राजे चुनाव के मौके पर ही संघ को याद करती हैं। अपनी रणनीति के तहत आलाकमान ने आपने कंधों पर प्रचार की कमान संभाली और प्रदेश के नेताओं को बराबर तवज्जो दी। चुनाव के दौरान आलाकमान इतना हावी रहा कि प्रदेश में गुटबाजी होने की आशंका खत्म सी हो गई। सबसे प्रभावी नेता वसुंधरा राजे व उनके समर्थक भी हावी नहीं हो सके। मोदी ने अपने रोड शो के दौरान या सभा स्थल पर आने के दौरान अपने साथ प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते केवल सीपी जोशी को रखा। पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में बीजेपी की ये रणनीति काम आई।