सुलझ गई 160 साल पुरानी पहेली… मटर का रहस्य जो बाद में विज्ञान की सबसे बड़ी खोजों में से एक बन गया

ग्रेगर मेंडल ने मटर के पौधों पर आठ साल तक प्रयोग कर आनुवंशिकी के नियम खोजे, जो बाद में इस विज्ञान की नींव बने। उनके शोध को शुरुआती समय में ज्यादा महत्व नहीं मिला। जानें हालिया DNA अध्ययन और जीनों का महत्व...

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Gregor Mendel
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सबसे पहले बात करते हैं ग्रेगर मेंडल की। करीब 160 साल पहले ग्रेगर मेंडल एक भिक्षु थे, जो ऑस्ट्रिया में रहते थे। उनके पास कोई बड़ा लैब या महंगा उपकरण नहीं था। बस एक छोटा सा बगीचा था, जहां वे मटर के पौधे उगाते थे।

उनका बड़ा सवाल था — क्या यह तय किया जा सकता है कि माता-पिता की कौन-कौन सी विशेषताएं बच्चों में आएंगी? यानी, क्या कुछ गुण ऐसे होते हैं जो बार-बार परिवारों में दिखाई देते हैं?

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आठ साल की मेहनत

इस सवाल का जवाब पाने के लिए मेंडल ने पूरे आठ साल मेहनत की और 10 हजार से भी ज्यादा पौधों पर परीक्षण किया। 1865 में उन्होंने अपने नतीजे Natural History Society of Brno की बैठक में पेश किए।

लेकिन उस समय ये खोज इतनी खास नहीं लगी। उनका शोध एक छोटे से जर्नल में 1866 में छपा, और मेंडल 1884 में चले गए, बिना ये जाने कि उनका काम आनुवंशिकी (Genetics) की नींव बनेगा। इस लिंक से जानें कौन थे ग्रेगर मेंडल 👇...
https://www.britannica.com/biography/Gregor-Mendel

Experiments of Mendel – മെൻഡലിന്റെ പരീക്ഷണങ്ങൾ – Endz

मटर के पौधों से किया गया एक आसान सा प्रयोग

जगगनन

मेंडल ने मटर के पौधों के सात गुणों को चुना — जैसे बीज का आकार (गोल या सिकुड़ा हुआ), रंग (पीला या हरा), फूल का रंग (बैंगनी या सफेद) और कुछ और। उन्होंने दो पौधों को मिलाकर (जिसे क्रॉस करना कहते हैं) नए पौधों का बीज निकाला।

क्या हुआ? जब गोल बीज वाले पौधे को सिकुड़े बीज वाले से मिलाया, तो पहली पीढ़ी के सारे पौधे गोल बीज वाले ही निकले। लेकिन जब इन गोल बीज वाले पौधों को आपस में मिलाया, तो दूसरी पीढ़ी में फिर से सिकुड़े बीज वाले भी आए, करीब 1-4 के अनुपात में। सने बताया कि कुछ गुण छुप जाते हैं (जैसे सिकुड़ा बीज पहली पीढ़ी में नहीं दिखता), लेकिन वे कहीं न कहीं मौजूद होते हैं।

पौधों की क्रॉसिंग और मेंडल के नियम

फिर 1900 में, मेंडल के मरने के 16 साल बाद, तीन वैज्ञानिक — हुगो डी व्रीस, कार्ल कोरेन्स, और एरिच वॉन ट्शरमाक — ने मेंडल के काम को फिर से खोजा। उन्होंने जाना कि मेंडल ने साबित कर दिया था कि कुछ माता-पिता की विशेषताएं संतान में ज्यादा बार आती हैं।

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वंशानुक्रम की भविष्यवाणी

इस खोज ने बताया कि वंशानुक्रम में पैटर्न होते हैं — जिसे आज हम जीन कहते हैं। वैज्ञानिकों ने बाद में जाना कि हर गुण के लिए जीवधारी के पास दो जीन होते हैं — एक माता से, एक पिता से। इन्हें एलिल कहते हैं।

कभी-कभी एक एलिल दूसरे के प्रभाव को छुपा देता है, इसलिए पहली पीढ़ी में केवल एक रूप दिखता है। इसने आनुवंशिकी के आधुनिक सिद्धांतों की नींव रखी, जैसे कि गुणसूत्र सिद्धांत और जीनों की पहचान। लेकिन एक बड़ा सवाल बचा — आखिर ये दो रूप क्यों बनते हैं? यह सवाल 160 साल तक अनसुलझा रहा।

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आसान भाषा में समझें: जीन क्या है

तो मेंडल ने यह पता लगाया कि गुण—जैसे बीज का रंग या आकार—एक छोटी सी इकाई के जरिए चलते हैं, जिसे आज हम “जीन” कहते हैं।

हर गुण के लिए दो जीन होते हैं — एक मां से, एक पिता से। इनमें से कोई एक जीन (एलिल) दूसरे से ज्यादा ताकतवर हो सकता है। इस वजह से पहली पीढ़ी में सिर्फ एक ही रूप दिखता है। लेकिन वह कमजोर जीन छुपा रहता है और बाद की पीढ़ी में फिर दिख सकता है।

जानकारी का पहाड़

अभी हाल ही में नेचर पत्रिका में एक बड़ा अध्ययन प्रकाशित हुआ। इसने मेंडल के उन तीन अनसुलझे गुणों के पीछे के जीनों को खोज निकाला और चार पहले से ज्ञात गुणों में नए जीन भी पाए।

शोध के लिए 697 मटर के पौधों के DNA को नई तकनीक से पूरी तरह पढ़ा गया। यह DNA डेटा इतना विशाल था कि इसे अगर कागज पर रखा जाए तो लगभग 700 किलोमीटर ऊँचा पहाड़ बन जाएगा!

नए रहस्यों के द्वार खुले

इस विशाल डेटा से पता चला कि मटर के पौधे चार प्रजातियों में आते हैं, लेकिन DNA के आधार पर ये आठ समूहों में बंटते हैं। इसका मतलब है कि पौधों की आबादी ज्यादा जटिल है जितना हम सोचते थे।

मेंडल के चार गुण पहले से समझे गए थे, लेकिन शोध में नए जीन भी मिले। जैसे सफेद फूलों वाले पौधों में एक नया जीन आया जिससे वे फिर से बैंगनी फूल देने लगे।

बाकी तीन गुण — फलियों का रंग, आकार और फूलों की जगह — के लिए भी जीन खोजे गए। उदाहरण के लिए, कुछ DNA हिस्से के हटने से फलियां पीली हो जाती हैं क्योंकि पौधे में हरा रंग बनाने वाला पिगमेंट (क्लोरोफिल) नहीं बन पाता।

ग्रेगर मेंडल के मटर के पौधों से लेकर आधुनिक आनुवंशिकी तक हम कैसे पहुंचे

यह खोज इतनी महत्तवपूर्ण क्यों है

यह खोज सिर्फ पुरानी पहेली हल करने तक सीमित नहीं है। इसके आगे की दुनिया है— जहां हम फसलों की पैदावार बढ़ा सकते हैं, उन्हें बीमारियों से बचा सकते हैं, और उन्हें ऐसे बदलते मौसम के अनुकूल ढाल सकते हैं।

और सोचिए, ये सब एक 19वीं सदी के एक साधारण भिक्षु के सवाल से शुरू हुआ था — “क्यों?” — जब वह अपने बगीचे में बैठकर सोच रहा था कि ये गुण वंश में कैसे चलते हैं।

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