thesootr Prime : अराजकता को डराती डॉ रजनीश गंगवार की एक कविता क्यों चुभ गई

एक अच्छी कविता की ताकत है जो बीच- बीच में समाज को हिलाती रहती है। सत्ता को अहंकार की नींद से जगाती है। नाराज करती है… आज thesootr Prime में हम कुछ ऐसे ही कवियों और कविताओं के बारे में बात करेंगे, जिनकी कविताओं ने सरकारों को नाराज किया।

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Ban on rebellious poem hurts sentiments Dr Rajneesh Gangwar
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एक बार जर्मनी में प्रसिद्ध यहूदी कवि गिरफ्तार कर लिए गए।
तीन  साल की बेटी ने मां से पूछा- पापा को पकड़ कर क्यों ले गए?
मां बोली-पापा ने हिटलर के खिलाफ कविता लिखी है
बच्ची बोली-वो भी पापा के खिलाफ कविता लिख देता
मां ने कहा- वो लिख पाता तो इतना खून- खराबा क्यों करता !

भले ही यह संस्मरण काल्पनिक हो, फिर भी अराजकता के दौर में हमेशा सुनाया जाएगा। याद किया जाएगा। आजकल एक साधारण से शिक्षक की चार लाइनें धर्मांध और अराजकता के समर्थकों को चुभ रही हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली स्थित एमजीएम इंटर कॉलेज के शिक्षक रजनीश गंगवार ने छात्रों के समक्ष एक कविता सुनाई, जिसके कुछ अंश थे- 

Rajneesh Gangwar

"कांवड़ लेने मत जाना, तुम ज्ञान का दीप जलाना..."

शिक्षक डॉ रजनीश गंगवार ने ऐसा क्या गलत कह दिया? जो लोगों की आस्था आहत हो गई? खुद सोचिए, क्या कविता अश्लील है? देश के खिलाफ है? सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ती है या फिर किसी जातिय समूह का अपमान करती है? कविता मासूम बच्चों को सिर्फ और सिर्फ ज्ञान, विज्ञान और सुसंस्कृत होने की बात करती है। और अगर इस कविता से किसी की भावनाएं आहत होती हैं तो सफदर हाशमी भी तो दूसरे तरीके से यही कह रहे थे- 
पढ़ना लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो
पढ़ना लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो… 

खैर! यह एक अच्छी कविता की ताकत है जो बीच- बीच में समाज को हिलाती रहती है। सत्ता को अहंकार की नींद से जगाती है। नाराज करती है… आज thesootr Prime में हम कुछ ऐसे ही कवियों और कविताओं के बारे में बात करेंगे, जिनकी कविताओं ने सरकारों को नाराज किया। प्रतिबंध झेले, फिर भी आमजन के बीच वे लोकप्रिय रहीं और इतिहास में अमर हो गईं। हालांकि प्रतिरोध की इन कविताओं की सूची बेहद लंबी है… इसलिए संभव है कि कुछ जरूरी रचनाएं भी छूट जाएं… पर कोशिश तो की ही जा सकती है… 

शुरुआत अमर शोनार बांग्ला से… 

  • अमर शोनार बांग्ला (আমার সোনার বাংলা), जो अब बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत है।
  • यह गीत 1905 में रवींद्रनाथ ठाकुर (रवींद्रनाथ टैगोर) ने लिखा था, जब अंग्रेजी शासन ने बंगाल का विभाजन कर दिया था। यह गीत विभाजन के विरोध का जनसमर्थक स्वर बन गया। ब्रिटिश सरकार ने इस गीत और टैगोर की अन्य रचनाओं को राष्ट्रवादी आंदोलन के कारण कई बार प्रतिबंधित किया।
  • 1971 में बांग्लादेश जब स्वतंत्र हुआ, तब इसी गीत को बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत घोषित किया गया।

क्यों लगा था इस गीत पर प्रतिबंधित?

ब्रिटिश काल में राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काने वाले साहित्य, गीतों और कविताओं को खतरनाक माना जाता था।
टैगोर की कविताएं बंगाल में स्वतंत्रता की भावना और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एकजुटता का प्रतीक बनती गईं। "अमर शोनार बांग्ला" पर उन दिनों सरकार की ओर से पाबंदी लगाई गई थी। 

रूस की कविता The Internationale

भारत के अलावा, रूस (सोवियत संघ) की एक प्रसिद्ध कविता The Internationale (द इंटरनेशनल) इसी तरह का अद्भुत उदाहरण है। 

"Internationale" का इतिहास और पृष्ठभूमि

  • यूजीन पोटियर ने यह गीत 1871 में लिखा, जबकि पीटर डे गेयटर ने इसका संगीत 1888 में तैयार किया। यह गीत मूलतः फ्रेंच भाषा में लिखा गया था, लेकिन इसके बाद इसे सैकड़ों भाषाओं में अनुवादित किया गया है।
  • गीत की पृष्ठभूमि पेरिस कम्यून (1871) की असफलता के बाद की है। यह समय मजदूर वर्ग के संघर्ष और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का था। इस गीत में मजदूरों के विद्रोह, पूंजीवाद विरोध और समानता के विचारों को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है। "Internationale" ने दुनिया भर में मजदूरों के संघर्ष और उनके अधिकारों के लिए एक प्रेरणादायक ध्वनि का काम किया और आज भी इसे अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन का गान माना जाता है।

पहले लगा प्रतिबंध

इस गीत को 1905 रूसी क्रांति से पहले, ज़ार शासक के दौरान रूस में प्रतिबंधित कर दिया गया था, क्योंकि इसकी क्रांतिकारी भाषा सत्ता के विरुद्ध समझी गई। समाजवादी आंदोलन, ट्रेड यूनियन और वामपंथी दमन के कारण इसे कई बार बैन झेलना पड़ा।

बाद में राष्ट्रीय गान का सम्मान

1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद, जब लेनिन के नेतृत्व में सोवियत सरकार बनी, "The Internationale" को 1922 से लेकर 1944 तक सोवियत संघ (USSR) का आधिकारिक राष्ट्रीय गान घोषित कर दिया गया।

baba nagarjun

बाबा नागार्जुन याद हैं आपको…

बाबा नागार्जुन ने कबीर की परंपरा को और भी आगे बढ़ाया, लेकिन उनके कवि व्यक्तित्व में एक खास बात थी कि उन्होंने राजनीतिक सत्ता और सामाजिक व्यवस्था दोनों के खिलाफ अपना व्यंग्य किया। नागार्जुन ने हमेशा सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। उनके व्यंग्य में सीधे तौर पर राजनीति और सत्ता के खिलाफ एक तीव्र आलोचना थी।
कुल मिलाकर, बाबा नागार्जुन ने इस व्यंग्यात्मक शैली को राजनीतिक स्तर तक पहुंचाया। नागार्जुन का यह कहना कि "जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ? जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ" उनके इस आत्मविश्वास को दर्शाता है कि वे किसी भी सत्ता या दबाव से प्रभावित नहीं होते थे, बल्कि समाज और सत्ता की गलत नीतियों पर सीधे हमला करते थे।

नागार्जुन का यह कहना कि "जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ? जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ" उनके इस आत्मविश्वास को दर्शाता है कि वे किसी भी सत्ता या दबाव से प्रभावित नहीं होते थे, बल्कि समाज और सत्ता की गलत नीतियों पर सीधे हमला करते थे।
इंदिरा गांधी को ऐसे लताड़ा था…

क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?"

 

पॉश… की सत्ता विद्रोही कविता

"सबसे ख़तरनाक होता है…" – पाश (अवतार सिंह संधू)
पाश की कविताएँ हमेशा सत्ता के खिलाफ खुला विरोध करती रही हैं, और उनका यह विरोध कभी भी सत्ता के लिए आरामदायक नहीं था। उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता "सबसे ख़तरनाक होता है…" में पाश ने सपनों की हत्या को सबसे बड़ा खतरा बताया था। यह कविता तानाशाही और दमनकारी नीतियों पर हमला करती है और एक चेतावनी के रूप में सामने आती है। पाश की कविताओं ने न केवल सत्ता को चुनौती दी, बल्कि उन्हें कई बार राजनीतिक प्रतिबंधों का भी सामना करना पड़ा, खासकर उनके राजनीतिक दृष्टिकोण के कारण।

सबसे ख़तरनाक होता है

मृत कवि की कविता नहीं,
पर सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।

जो आँखें सब कुछ देखती हैं
और जुबान पर ताला लगाती हैं,
जो हर अन्याय को चुपचाप सहती हैं
सबसे खतरनाक है उन आँखों की शांति।

सबसे खतरनाक वह चाँद होता है
जो हर हत्या के बाद वीराने में उगता है
और हमसे कुछ नहीं कहता।

सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा रौशनी से
कोई रास्ता न चिह्नित हो।

सबसे खतरनाक होता है
कवि की हत्या कर देना,
सबसे भयानक वह जुबान होती है
जो किसी अत्याचार के खिलाफ
उठे ही नहीं –
और
जो बस तारीफों के पुल बाँधती हो।

सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।

 "गोदी में खेलती बचपन की दूब" – माखनलाल चतुर्वेदी

माखनलाल चतुर्वेदी की कविता "गोदी में खेलती बचपन की दूब" भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय एक प्रेरणादायक कविता मानी जाती थी। लेकिन जब इसे देश में विभाजन के संदर्भ में देखा गया, तो इस कविता का विभिन्न सामाजिक और सांप्रदायिक धाराओं से विरोध हुआ। इसे कुछ हिस्सों में विवादित रूप से देखा गया क्योंकि यह एक नए भारत की पहचान को जन्म देती थी, जो सभी को एक साथ लाने की बात करता था।

"मुहब्बत अब नहीं, अब सियासत चाहिए" – फैज़ अहमद फैज़

फैज़ अहमद फैज़ की यह प्रसिद्ध कविता राजनीतिक संदर्भ में एक विरोधी स्वर थी। उन्होंने अपनी कविता में भारतीय राजनीति और समाज की खामियों को उजागर किया। फैज़ की कविता में सियासत, विरोध और सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ तीखी टिप्पणी की गई थी, जो कई आलोचकों के लिए विवादास्पद साबित हुई।

La Marseillaise फ्रांस का राष्ट्रीय गान

  • La Marseillaise फ्रांस का राष्ट्रीय गान है। इसे 1792 में क्लोद-जोसेफ रूजे दे लिल (Claude Joseph Rouget de Lisle) ने लिखा था। इस गीत की रचना फ्रांस द्वारा ऑस्ट्रिया के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा के बाद, स्ट्रासबर्ग के मेयर की मांग पर एक जोशीले सैनिक मार्च के रूप में की गई थी। इसका मूल नाम था "Chant de guerre pour l'armée du Rhin" (राइन सेना के लिए युद्ध गीत)।
  • यह गीत सबसे पहले मर्साय (Marseille) शहर के स्वयंसेवी सैनिकों द्वारा लोकप्रिय किया गया, जिन्होंने इसे 1792 में पेरिस की गलियों में गाते हुए प्रवेश किया। इसी कारण इसे बाद में "La Marseillaise" कहा जाने लगा।
  • फ्रांसीसी क्रांति के दौरान यह गीत स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों और देशभक्ति का प्रतीक बन गया। 14 जुलाई 1795 को इसे आधिकारिक रूप से फ्रांसीसी गणराज्य का राष्ट्रगान घोषित किया गया।

कई बार प्रतिबंध लगा और पुनः स्वीकार्यता

  • नेपोलियन प्रथम और बाद में बोर्बो राजवंश (लुई XVIII, चार्ल्स X) के शासन में "La Marseillaise" पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, क्योंकि इसे क्रांतिकारी प्रतीक माना गया था और सत्ता को खतरे में डालता था।
  • यह गीत कई बार फ्रांस में बैन और पुनः स्वीकृत हुआ। जुलाई क्रांति (1830) के बाद और 1879 में तृतीय गणराज्य के समय एक बार फिर राष्ट्रगान चुना गया और तब से यह फ्रांस का राष्ट्रगान है।

वंदे मातरम् की कहानी तो भूल नहीं सकते…

वंदे मातरम् की रचना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में अपने प्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ में की थी। यह गीत पहली बार 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया और रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे स्वरबद्ध किया। इसका संदेश भारत माता के प्रति श्रद्धा और राष्ट्र के प्रति प्रेम को प्रकट करता है।

स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका

जल्दी ही वंदे मातरम् ने स्वतंत्रता संग्राम में केंद्रीय नारे का रूप ले लिया। बंगाल विभाजन (1905) के विरोध में यह गीत एक "युद्धघोष" बन गया और देशभर में इसे व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हुई। इसके बाद अंग्रेज़ी हुकूमत इस गीत की लोकप्रियता से घबराने लगी और इस गीत को सार्वजनिक रूप से गाने या प्रस्तुत करने पर प्रतिबंध लगा दिए। हालांकि, इसके बावजूद यह गीत स्कूलों, जुलूसों और यहां तक कि आजाद हिंद फौज में भी गाया जाता रहा। जनता ने अंग्रेज़ी शासन के इन प्रतिबंधों की अवज्ञा करते हुए वंदे मातरम् का उद्घोष किया और कई आंदोलनकारियों को पुलिस की लाठियाँ भी झेलनी पड़ीं।

विवाद और विरोध

समय के साथ, मुस्लिम लीग समेत कुछ अन्य अल्पसंख्यक समुदायों ने इस गीत के कुछ हिस्सों—विशेषकर भारत माता के देवी दुर्गा रूप में चित्रित किए जाने—पर आपत्ति जताई। 1937 में नेहरू समेत कांग्रेस नेतृत्व और मुस्लिम समुदाय के नेताओं ने इस पर चर्चा की और समाधान के लिए एक समिति बनाई। इस समिति ने तय किया कि वंदे मातरम् के केवल दो छंद (जिनमें देवी-देवता या दुर्गा पूजन की बातें नहीं थीं) ही सार्वजनिक रूप से गाए जाएंगे, ताकि किसी के धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचे। इसके अलावा, यह भी तय किया गया कि किसी को भी इसे गाने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।

राष्ट्रीय गीत का दर्जा

स्वतंत्रता के बाद, यह चर्चा का विषय बना कि भारत का राष्ट्रीय गीत क्या होगा—"वंदे मातरम्" या "जन गण मन"? सांप्रदायिक समरसता को ध्यान में रखते हुए, "जन गण मन" को राष्ट्रीय गान और "वंदे मातरम्" को राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया गया। 24 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान सभा में "वंदे मातरम्" को राष्ट्रीय गीत की मान्यता प्राप्त हुई, जबकि "जन गण मन" को राष्ट्रगान घोषित किया गया। आज भी, हालांकि इसे गाने के लिए कानूनी बाध्यता नहीं है, इसके ऐतिहासिक और भावनात्मक महत्व को हमेशा सम्मानित किया जाता है।

अन्य कवि और कविताएं, जिन पर लगा प्रतिबंध

  • बाल गंगाधर तिलक: तिलक को ‘शिवाजी के उद्गार’ नामक कविता के लिए 1896 में डेढ़ वर्ष की कड़ी सजा सुनाई गई। इस कविता को सरकार-विरोधी और जनमानस में असंतोष फैलाने वाला माना गया।
  • बिस्मिल अजीमाबादी : इसकी क्रांतिकारी कविताएं और गीत, जैसे “सरफरोशी की तमन्ना...”, ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित किए गए। उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका और कविता लेखन के लिए फांसी दी गई।
  • तूफान, कन्हैयालाल दीक्षित ‘इन्द्र’, सुभद्राकुमारी चौहान, विश्वनाथ शर्मा, मास्टर नूरा, सागर निज़ामी: इन कवियों, शायरों और गीतकारों की रचनाएं स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अनेक प्रतिबंधों का शिकार हुईं, उनके कविता-संग्रह ज़ब्त किए गए या पुस्तकों पर बैन लगाया गया।
  • काज़ी नज़रुल इस्लाम: बंगाल के क्रांतिकारी कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम की रचनाएं सत्ता और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध थीं, जिस कारण कई बार उनकी कविताओं पर बैन लगा और उन्हें जेल की सजा दी गई।

मजरूह सुल्तानपुरी की कविता

1949 में, मजरूह सुल्तानपुरी ने बंबई में मजदूरों की एक हड़ताल के दौरान एक कविता पढ़ी, जिसमें उन्होंने नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना की। इस कविता में पंक्तियाँ थीं जैसे:
"मन में ज़हर डॉलर के बसा के, फिरती है भारत की अहिंसा। खादी की..."
यह कविता तत्कालीन सरकार को नागवार गुजरी, और मजरूह से माफी माँगने को कहा गया। जब उन्होंने माफी माँगने से इनकार किया, तो उन्हें जेल में डाल दिया गया। यह कविता स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं थी, लेकिन इसके कारण मजरूह को दंडित किया गया, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश का एक उदाहरण है।

  • मलय राय चौधरी व 'हंग्री जेनरेशन' के कवि: 1960 के दशक में बंगाल में ‘हंग्री जेनरेशन’ (Hungry Generation) के युवा कवियों—जैसे मलय राय चौधरी, समीर रॉयचौधरी—पर अश्लीलता, विद्रोही भाषा और व्यवस्था-विरोधी साहित्य के चलते मुकदमे चलाए गए और कई रचनाएं बैन की गईं। 

 क्या आप जानते हैं? 

राष्ट्रीय संग्रहालय के रिकॉर्ड के मुताबिक आज़ादी से पहले हिंदी में 264, उर्दू में 58, मराठी में 33, पंजाबी में 22, गुजराती में 22, तमिल में 19, तेलुगु में 10, सिंधी में 9, बंगला में 4 कविता-संग्रह प्रतिबंधित हुए थे।

 

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