जिस मुकाबले का परिणाम पहले से ही सुनिश्चित हो जाए तो उसका रोमांच नहीं रह जाता। मुद्दतों बाद हो रहे कांग्रेस संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर कुछ ऐसा ही है लेकिन इसके निहितार्थ एक बड़ी बात यह है कि इस चुनाव के बाद आंतरिक लोकतंत्र की बात करने वाली बीजेपी की ओर राजनीतिक प्रेक्षकों की नजरें टिक जाएंगी और जैसा कि जयराम रमेश ने अभी से कहना शुरू कर दिया है कि बीजेपी को यह पता होना चाहिए कि देश में सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र ऐसा राजनीतिक दल है जो संगठन में खुले लोकतंत्र पर यकीन करता है बीजेपी अपनी अंतरात्मा में झांके।
चुनाव महज खानापूर्ति फिर भी..
17 अक्टूबर को कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए मतदान हुआ। 9,900 प्रतिनिधियों में से 9500 प्रतिनिधियों ने वोट डाले। यानी कि 96% मतदान हुआ। जैसा कि अध्यक्ष के प्रत्याशी शशि थरूर पीड़ा व्यक्त कर चुके हैं कि पार्टी के नेता और नेतृत्व उनके साथ नहीं हैं और न ही संसाधन। इससे बड़ा स्पष्ट सा संदेश निकलता है कि सोनिया गांधी जोकि आज भी शीर्ष नेतृत्व में हैं और कल भी ऐसी ही भूमिका में रहेंगी और मल्लिकार्जुन खड़गे के पक्ष में एक तरह से अघोषित ह्विप जारी किया गया था जिसका नब्बे फीसदी कांग्रेस प्रतिनिधियों ने पालन भी किया। यह सब देखते हुए कांग्रेस के संगठन का चुनाव महज खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं। सबसे आश्चर्यजनक भूमिका कथित जी-23 समूह के नेताओं की है जिन्होंने पार्टी में बदलाव को लेकर एक दवाब समूह खड़ा किया था..।
कहां गया कांग्रेसियों का जी-23 समूह
राजनीति स्वयं में खुदगर्जी को चिपकाए हुए चलती है..पर जी-23 समूह के कांग्रेसियों ने जिस तरह से शशि थरूर की दावेदारी से पल्ला झाड़ा वह भी अपने आप में कम दिलचस्प नहीं। थरूर के पक्ष में खुलकर कैंपेन करने की बात कौन करे। इन बड़े नामधारी नेताओं ने इतना भी इंतजाम नहीं किया कि थरूर को पोलिंग एजेंट तक उपलब्ध करा सकें। सबके सब खोखले और चुके हुए कारतूस साबित हुए। वैसे गुलाम नबी आजाद ने जिस तरह से कांग्रेस पार्टी से खुद को अलग किया और जम्मू-कश्मीर में अपनी अलग पार्टी खड़ी करके बीजेपी की बी टीम होने का तमगा स्वयं की जेब में टांग लिया उससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि आनंद शर्मा व जी-23 के अन्य स्टालवार्टस के मन में कांग्रेस को मजबूत करने से ज्यादा उनकी दिलचस्पी कांग्रेस को मजबूर करने में ज्यादा रही है।
खोखले नेताओं के सामने आत्मसमर्पण के सिवाय कुछ नहीं
कहना न होगा यदि इनके पास गुलाम नबी जैसा विकल्प या तनिक भी जनाधार होता तो ये भी शरद पवार, संगमा और ममता बनर्जी की भांति अपना-अलग रास्ता नाप रहे होते। इन खोखले नेताओं के सामने आत्मसमर्पण के सिवाय कुछ बचा नहीं सो इस चुनाव में जी-23 के नेताओं ने यह दर्शाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी कि वे आफ्टरआल दस जनपथ की दहलीज पर खड़े हैं। अलबत्ता शुरू-शुरू में मनीष तिवारी और कार्ति चिदंबरम ने निर्वाचक मंड़ल की वैधता को लेकर बड़ा सवाल उठाया था। यदि अन्य नेता भी इस मुद्दे पर अपना सुर मिलाते तो कांग्रेस के इस चुनाव में एक दिलचस्प घमासान देखने को मिलता। दरअसल वोट देने के लिए जो 9900 प्रतिनिधियों का जो निर्वाचक मंडल चुना गया है दरअसल वह नामित और तदर्थ है तथा मौजूदा नेतृत्व की पसंद पर उन्हें निर्वाचक सूची में डाला गया है। नब्बे प्रतिशत प्रतिनिधि ऐसे हैं जिन्हें वोट देने के एक हफ्ते पूर्व ही पता चला कि उन्हें वोट देना है।
मल्लिकार्जुन खड़गे ही क्यों..?
मल्लिकार्जुन खड़गे इसलिए भी गांधी परिवार के लिए मुफीद माने गए क्योंकि इन पर पक्का यकीन है कि ये सीताराम केसरी नहीं बन सकते। कभी गांधी परिवार के लिए जीने-मरने की कसम खाने वाले सीताराम केसरी अध्यक्ष पद के व्यामोह में ऐसे फंस गए थे कि 1998 में जब सोनिया गांधी अध्यक्ष की कुर्सी पर सवार होना चाहीं तो इन्होंने उठने से मना कर दिया। फिर देश ने देखा कि कांग्रेस के बाहुबलियों ने किस तरह उठाकर गिराया कि सरेआम धोती तक खुल गई। इस घटना से पता चलता है कि गांधी परिवार को संगठन के अध्यक्ष से कितना लगाव है। 80 वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे उम्र व अन्य लिहाज से भी गांधी परिवार के लिए चुनौती नहीं बन सकते। कहा जा रहा है कि खड़गे दलित वर्ग से हैं कभी चुनाव नहीं हारे। लोकसभा में कांग्रेस के नेता रहे। अगले साल कर्नाटक में चुनाव हैं..आदि-आदि लेकिन सही बात तो यह कि दिल्ली में खड़गे के आगे-पीछे गांधी परिवार के सिवाय कोई है ही नहीं। कर्नाटक का तो एक भी नेता नहीं।
राहुल की फिर हो जाएगी ताजपोशी
अलग गुट खड़ा करने की कहीं से कोई संभावना नहीं सो अश्वमेध यात्रा के समापन के बाद जिस भी दिन चाहेंगे युवराज राहुल गांधी आसानी से कुर्सी में बैठ सकेंगे। दिग्विजय सिंह के साथ तो यह कदापि मुमकिन नहीं था। मध्यप्रदेश की राजनीति करते हुए दिग्गीराजा का एक बड़ा समर्थक मंडल हर प्रदेश में है। और शायद सोनिया गांधी को यह भी याद दिलाया गया होगा कि जब उनके इशारे पर नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह ने समानांतर कांग्रेस गठित की थी तब मुख्यमंत्री रहते हुए दिग्विजय सिंह ने किस तरह नरसिंह राव को साध लिया और अर्जुन सिंह की उस योजना पर पलीता लगा दिया जिसके तहत वो मध्यप्रदेश में तिवारी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार चाहते थे। वैसे कांग्रेस की सक्रियता की दृष्टि से दिग्विजय सिंह से बेहतर कोई उम्मीदवार नहीं था। वे एक बार उत्तर से दक्षिण तक कांग्रेस में जान फूंकने का माद्दा रखते थे। पहली पसंद अशोक गहलोत ने तो सत्ता के मोह में सेल्फ गोल ही कर लिया जबकि पार्टी के आंतरिक सर्वे में वे नंबर वन पर थे।
भारत जोड़ो यात्रा के फलितार्थ..
संगठन पद से स्वयं को परे रखते हुए राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर हैं। दक्षिण से शुरू हुई यात्रा के अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षक कांग्रेस और राहुल के भविष्य को लेकर इसे शुभ ही मानकर चल रहे हैं। भाजपा ने इस यात्रा को लेकर अपनी रणनीति बदल दी है। मीनमेख निकालने की बजाय अब वेट एन्ड वाच की मुद्रा में है। राहुल गांधी की यात्रा जब उत्तर भारत में प्रवेश करेगी तब इसका असली असर दिखेगा। गुजरात के चुनाव दिसंबर-जनवरी तक हो जाएंगे हिन्दी पट्टी के तीन बड़े राज्यों राजस्थान-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में चुनावी दौर शुरू हो चुका होगा। उनकी यात्रा की पुण्याई को केन्द्रीय नेतृत्व किस तरह कैश करेगा यह देखना होगा।
भारत जोड़ो यात्रा कैसे कैश होगी
मल्लिकार्जुन खड़गे जिनका कि अध्यक्ष बनना तय है और इसके बाद जो केन्द्रीय संगठन की नई टीम होगी वह भाजपा के आक्टोपसी बाहुपाश से निपटने की क्या रणनीति बनाती है यह भी देखना होगा। 2023 का चुनाव एक बार फिर गैर भाजपा गठबंधन के मुकाबले होगा। कांग्रेस क्या इसमें नेता की भूमिका में स्वयं को स्थापित कर पाएगी यह भी राहुल की भारत जोड़ो यात्रा के सफर और खड़गे के सांगठनिक कौशल पर निर्भर करेगा..।