आश्रम व्यवस्था जीवन जीने की वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पद्धति है जो शरीर और मन को सामञ्जस्य में रखकर, जीव को संसार को विकसित करने में अपना योगदान देते हुए, संसार के अनुभवों से गुजारकर, उनकी निस्सारता से परिचय कराकर, मृत्यु का स्वागत करने के लिए तैयार कर देती है।
जीवन का सबसे बड़ा द्वंद्व होता है मन और शरीर के बीच। जन्म के बाद से ही शरीर हर क्षण बदलता जाता है। शरीर शिशु से बालक, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध होता है। उसकी क्षमताएं युवा होने तक बढ़ती हैं, कुछ समय स्थिर रहती हैं फिर घटना शुरु होती हैं और अंत में मृत्यु के साथ ही सब कुछ प्रकृति के पंच तत्त्वों में समा जाता है। शरीर, प्रकृति का भाग है और उस पर नियंत्रण नहीं हो सकता। वह तो प्रकृति के नियमों के अनुसार क्षय होता जाएगा। इसके विपरीत मन पर समय का प्रभाव नहीं पड़ता। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मन को समय का भान नहीं होता, इसलिए वह कभी बूढ़ा नहीं होता। शास्त्रों में मनोनियंत्रण के उपाय बताए गए हैं परंतु वह हर किसी के वश की बात नहीं है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं - नि:संदेह मन पर नियंत्रण करना अत्यंत कठिन है (गीता 6.35)। परिणाम यह होता है कि शरीर की क्षमता समाप्त हो जाने पर भी मन भूतकाल में ही जकड़ा रहता है, वह सब करना चाहता है जो पहले करता रहा है। मन चाहता है पर शरीर साथ नहीं देता- यहीं द्वंद्व पैदा होता है।
जीव को विभिन्न प्रकार के अनुभव कराने के लिए, संसार में विभिन्न अवस्थाओं से गुजारने की व्यवस्था ईश्वर ने की है। जैसे बीज, जड़, तना, पत्तियाँ, फूल, फल और पुन: बीज का क्रम तय है। इसी प्रकार मानव जीवन में शिशु, बाल्य, यौवन, प्रौढ़ और वृद्ध अवस्थाएँ क्रम से आती हैं। इन्हें बदला नहीं जा सकता। प्रत्येक अवस्था का अपना महत्व है और उस समय उसकी अपनी सुंदरता है। बालपन की निश्छलता और निश्चिंतता का अपना सुख है, युवावस्था के पुरुषार्थ, कर्मभूमि के संघर्षों का अपना रोमांच है, प्रौढ़ावस्था की अनुभवशीलता और गंभीरता का अपना सौंदर्य है तो वृद्धावस्था में संसार को साक्षी भाव से देखने और सब परमात्मा पर छोड़ देने का अपना आनन्द है। यदि जीवन के सभी सोपान पूर्ण जागरूकता से जिये जाएँ तो उनकी वासनाएँ क्रमश: समाप्त होती जाती हैं। जीवन का हर चरण अपनी सार्थकता सिद्ध कर लेता है। इसलिए सनातन धर्म में जीवन को चार आश्रमों में बाँटकर प्रत्येक आश्रम के लिए जीवनचर्या निर्धारित की गई है। प्रत्येक आश्रम अगले आश्रम की तैयारी का पड़ाव है। इस प्रकार यहाँ आश्रम का अर्थ है - जीवन की विशेष अवस्था या सोपान। यह जीवनशैली का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विभाजन है। मनुष्य की आयु को 100 वर्ष मानकर उसे 25–25 वर्ष के चार सोपानों में बाँटा गया है। प्रथम 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य आश्रम, 25 से 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम, 50 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम और 75 वर्ष के बाद संन्यास आश्रम।
यदि जीवन के सभी सोपान पूर्ण जागरूकता से जिये जाएं तो उनकी वासनाएं क्रमश: समाप्त होती जाती हैं । जीवन का हर चरण अपनी सार्थकता सिद्ध कर लेता है। इसलिए सनातन धर्म में जीवन को चार आश्रमों में बाँटकर प्रत्येक आश्रम के लिए जीवनचर्या निर्धारित की गई है।
ब्रह्मचर्य - यह उपनयन संस्कार से प्रारंभ होता है तथा बलिष्ठ शरीर और विद्वान मस्तिष्क के निर्माण का सोपान है। इस समय विद्यर्थियों के जीवन में नीति, संस्कृति, सदाचार और अध्यात्म की नींव डाली जाती है। इस अवस्था में उसे गृहस्थाश्रम के अनुरूप कार्यक्षेत्र के कौशल विकास का प्रशिक्षण दिया जाता है। ब्रह्मचारी, मन व इन्द्रियों के संयम पूर्वक यम-नियमों का पालन करता है। मनुस्मृति में ब्रह्मचर्य आश्रम के कर्तव्यों को दो भागों में बाँटा गया है, किये जाने वाले और न किये जाने वाले। नित्य किये जाने वाले कार्यों में स्नान, शारीरिक शुद्धता, देव, ऋषि और पितरों को तर्पण, देवताओं की पूजा, अग्निहोत्र आवश्यक हैं। निषेधात्मक कार्यों में विलास की वस्तुएं, मादक पदार्थ, स्त्रियों का संग, काम, क्रोध और लोभ का आचरण, जुआ, गाली-गलौज और निन्दा आदि शामिल हैं (मनुस्मृति 2.176-179)। वैदिक काल में इस समय क्षत्रियों को राजकाज और युद्ध और अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा तो ब्राह्मणों को दर्शन, चिंतन-मनन और कर्मकाण्ड की शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा लौकिक कलाएं - जैसे पशुपालन, कृषि आदि का अध्ययन भी कराया जाता था। वर्तमान संदर्भ में इसे प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक का काल समझना चाहिए। ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण करके समावर्तन संस्कार (दीक्षांत समारोह) के बाद विद्यार्थी घर वापस आता था तो उसे बहुत आदरणीय माना जाता था। यहॉं तक कहा गया है कि वापस आते समय यदि रास्ते में राजा भी मिल जाए तो राजा उसके लिए मार्ग छोड़ दे।
गृहस्थ – समावर्तन संस्कार के बाद ब्रह्मचारी विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम सर्वोपरि है क्योंकि शेष तीन उसी पर निर्भर होते हैं (मनुस्मृति 6.89)। महाभारत में भी इसे अन्य आश्रमों के लिए माता के समान बताया गया है (महा. अनु. 141/52-53)। इसमें व्यक्ति धर्म की सीमाओं के अंतर्गत अर्थ और काम की प्राप्ति और उपभोग करता है। इस समय व्यक्ति में परस्पर प्रेम, आदर और उत्सर्ग की भावना का विकास होता है। मनुस्मृति की प्रसिद्ध उक्ति है - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। एक अन्य ग्रंथ का श्लोक है - ‘पति ध्यान रखे कि पत्नी प्रसन्न है, पत्नी ध्यान रखे कि पति प्रसन्न है।‘ तैत्तरीय उपनिषद् कहता है - ‘गृहस्थ के पास कोई भी आश्रय माँगने आये तो उसे मना नहीं करना चाहिए। उसका सत्कार करना, भोजन देना गृहस्थ का कर्तव्य है।‘ इस आश्रम में संसार को विकसित करने का अवसर होता है। घरेलू कामकाज में अनजाने में हुई हिंसा के निस्तार हेतु प्रतिदिन पंचमहायज्ञ करने का विधान है (मनुस्मृति 3.70)। यह हैं - ब्रह्मयज्ञ (शास्त्रों का पठन-पाठन), पितृयज्ञ (पिण्डदान, श्राद्ध-तर्पण आदि), देवयज्ञ (इष्टदेव की उपासना, पूजा और हवन), भूतयज्ञ (कृमि, कीट-पतंग, पशु और पक्षी आदि प्राणियों को भोजन देना) तथा मनुष्ययज्ञ (अतिथियों का सत्कार तथा भोजन कराना)। गृहस्थ को सत्य और न्यायपूर्वक धनोपार्जन करके अपनी कामनाओं की पूर्ति करना चाहिए, बच्चों को अच्छे नागरिक के संस्कार देना चाहिए और आत्मकल्याण के लिए देवताओं, पितरों और सभी प्राणियों की निष्कामभाव से सेवा करना चाहिए। यह सांसारिक भोगों का अनुभव कर उनसे ऊपर उठने का सोपान है।
वानप्रस्थ – यह सोपान 50 से 75 वर्ष तक का है। पीढ़ियों के विचारों और रहन-सहन में अंतर के कारण युवाओं के साथ रहने में वृद्धों को समस्या होती है। अतः यह सक्रिय जीवन से मुक्ति का सोपान है, संसार को धीरे-धीरे छोड़ने की प्रक्रिया है। गृहस्थ आश्रम में अर्थ और काम के अनुभव और उनकी निस्सारता को जानकर मोक्ष की ओर प्रस्थान का प्रारंभिक बिन्दु है। इस समय सांसारिक कार्यों से विश्राम लिया जाता है। इस आश्रम में घर छोड़कर, जंगल या एकांत में त्याग और वैराग्य का जीवन बिताते हुए नई पीढ़ी को मार्गदर्शन दिया जाता है। वानप्रस्थी को उचित है कि वह प्रतिदिन वेद आदि शास्त्रों का स्वाध्याय करे, इन्द्रियों का दमन करे, सब में मैत्रीभाव रखे, मन को वश में रखे, सदा दान दे, पर प्रतिग्रह न ले तथा सब प्राणियों पर दया रखे (मनुस्मृति 6.8)।
संन्यास - 75 वर्ष की आयु के बाद यह आश्रम माना जाता है। इस आश्रम में अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मों का, सांसारिक रिश्ते-नातों का तथा शिखा-सूत्र का त्याग करके, प्राणिमात्र को अभय देकर संन्यास ग्रहण किया जाता है। इस समय वह घर-संसार छोड़ देता है। अब सारा संसार ही उसका होता है। व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान के लिए पूर्ण समर्पित हो जाता है। इसका उद्देश्य है जीवन का अंतिम समय पूर्णत: त्याग, तपस्या और ध्यान में व्यतीत करना, आत्मानुभव करना और मृत्यु के बाद के जीवन में प्रवेश करने के लिए स्वेच्छा से तैयार रहना। जो महान् आत्माएं पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण उच्च चेतना के साथ जन्म लेती हैं, जैसे शंकराचार्य, विवेकानन्द आदि, वे सांसारिक प्रलोभनों से असंपृक्त होते हैं व वे ही सीधे संन्यास के अधिकारी होते हैं। सामान्य लोगों की स्थिति भिन्न है। यदि आंतरिक पवित्रता विकसित नहीं हुई है तो ब्रह्मचर्य मानसिक रूप से बीमार कर देता है। ऐसे साधारण मनुष्यों के लिए तो चार आश्रम हैं ताकि शरीर की अवस्थाओं के आधार पर वे सभी सांसारिक प्रक्रियाओं से गुजरें और उनकी निस्सारता का अनुभव कर लें तब संन्यास आश्रम में जाएं। चारों आश्रमों का क्रमपूर्वक यथोचित रीति से सेवन करने व पालन करने वाले को परम गति प्राप्त होती है (मनुस्मृति 6.88)। आश्रम व्यवस्था जीवन जीने की वैज्ञानिक और आध्यात्मिक पद्धति है जो शरीर और मन को सामञ्जस्य में रखकर, जीव को संसार को विकसित करने में अपना योगदान देते हुए, संसार के अनुभवों से गुजारकर, उनकी निस्सारता से परिचय कराकर, मृत्यु का स्वागत करने के लिए तैयार कर देती है।
(आईएएस अधिकारी opshrivastava@ymail.com धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं)