सीबीआई जांच में देरी, दबाव और राजनीति के असर 

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The Sootr CG
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सीबीआई जांच में देरी, दबाव और राजनीति के असर 

रेलवे में लालू राज का भर्ती घोटाला हो या झारखण्ड के हेमंत सोरेन सत्ता काल का खनन लूट कांड, टीवी न्यूज़ चैनल पर पार्टियों के नेता और कुछ पत्रकार भी इन दिनों यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा की मोदी सरकार क्या सीबीआई की कार्रवाई के लिए समय का चुनाव अपनी सुविधा और विरोधियों पर दबाव के लिए नहीं कर रही है।  इसे बचाव और सहानुभूति पाने का मुद्दा कहा जा सकता है, लेकिन सीबीआई के कामकाज को चार-पांच दशकों से जानने कवर करने वाले हम जैसे पत्रकारों को सीबीआई में रहे निदेशक स्वयं बताते और बाद में बकायदा लिखते रहे हैं कि सत्ता में बैठे या उनके गठबंधन के करीबी नेता भ्रष्टाचार और अन्य गंभीर अपराधों की जांच में देरी करवाते रहे हैं। सबसे मुखर और पारदर्शी चर्चित निदेशक जोगिन्दर सिंह ने लालू यादव के चारा कांड की जांच में नरसिंह राव, इंद्रकुमार गुजराल और एचडी देवेगौड़ा के प्रधान मंत्री काल में जांच प्रकिया में ढिलाई, देरी आदि के लिए हर संभव दबाव डालने की बातें पहले कभी मुझे बताई और बाद में उसे सार्वजनिक रूप से भी स्वीकारा सत्ता का आनंद लेते रहे नेताओं की जांच के दौरान सबूत जुटाने वाले सीबीआई के निदेशक जोगिंदर सिंह को कांग्रेस गठबंधन की सरकार ने सेवानिवृत्ति से चार महीने पहले तबादला कर दिया यानी हटा दिया और लालू को वर्षों बाद अदालत से जेल हुई। सेवानिवृत्त होने के बाद भी जोगिन्दर सिंह और उनके कुछ सहयोगी अधिकारी हमें बताते थे कि मनमोहन सिंह के सत्ता काल में भी गठबंधन की मज़बूरी के नाम पर कानूनी कार्रवाई धीमे हुई और लालू 2009 तक केंद्र में मंत्री रहकर नए घोटाले भी कर गए। टू जी और खदान वितरण घोटालों की जांच पड़ताल में सत्तारूढ़ गठबंधन की मजबूरियां और रुकावटें रही हैं।



इस दृष्टि से रेलवे में नौकरी के भर्ती घोटाले में 2021 से शुररू हुई जांच पड़ताल अब तक जारी रहने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि बोफोर्स खरीदी में कमीशन कांड हो या हवाला कांड या कोयला खदान वितरण कांड या टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला नेताओं, कंपनियों, दलालों, रिश्तेदारों या देश विदेश के करीबी लोगों से प्रमाण जुटाने में महीनों सालों लग सकते हैं। कुछ मामले तो किसी नेता के सत्ता में रहने पर संबंधित मंत्री द्वारा कानूनी कार्रवाई ऊंची अदालत में न पहुंचने देना भी हमारी जानकारी में है।



ऐसे मामलों में कैसे आएगी जांच रिपोर्ट



असल में 1972-76 में सीबीआई के निदेशक देवेंद्र सेन हुआ करते थे, तब उसकी वार्षिक रिपोर्ट में भी भ्रष्टाचार के मामले कुछ सौ रुपए में से कुछ हजार रुपए से अधिक के नहीं होते थे। हम जैसे रिपोर्टर को जनसंपर्क अधिकारी भीष्म पाल कभी कभी कोई जानकारी देते और कला संस्कृति पर अधिक बात होती। तब 1974 में मेरे आग्रह पर निदेशक सेन साहब इंटरव्यू देने को तैयार हुए और फिर सीबीआई के कामकाज और उनसे बातचीत एक प्रमुख साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग, टाइम्स प्रकाशन, में कवर स्टोरी की तरह विस्तार से छपी, तब निदेशक देवेंद्र सेन ने मुझसे कहा था कि अनुभव यह हुआ है कि पहले तो कोई गंभीर मामला सीबीआई को सौपने की मांग की जाती है, लेकिन मांग करने वालों की अपेक्षा के अनुसार जांच का निष्कर्ष सामने आने पर वे इस पर अविश्वास करने लगते हैं। अब बताइये हम मांग करने वालों की इच्छानुसार रिपोर्ट देने लगे तो सीबीआई पर कौन विश्वास करेगा। ऐसे मामले तक आते हैं कि आठ साल पहले इतने पेड़ लगाने का दावा किया था, अब जांच करिये कि लगे या नहीं। यह कैसे पता लगेगा? दूसरी तरफ काम का आधार अमेरिका के एफबीआई को माना जाता है, लेकिन उसकी तरह न तो बजट है, न ही स्टाफ और सबसे बड़ी समस्या सीमित अधिकार।



दस साल से लंबित हैं 1597 मामले



कुछ महीनों बाद झारखण्ड की खदान से यूरेनियम की तस्करी की जांच की एक महत्वपूर्ण जानकारी हमें मिल सकी। फिर जनता राज में किस्सा कुर्सी का फिल्म के नष्ट होने का मामला सीबीआई के पास आया। लेकिन फिर कांग्रेस और इंदिरा गांधी ही सत्ता में आ गई। देश की प्रगति और राजनीतिक खींचातानी, भ्रष्टाचार, नेताओं के अपराधियों से संपर्क, चुनाव में बाहुबली और धन बल का प्रभाव बढ़ने से सीबीआई के पास करोड़ों से अरबों रुपयों के घोटालों, हत्याओं आदि के मामले बढ़ते गए। जबकि सीबीआई के पास संसाधनों, अधिकारियों की कमी बराबर बनी रही है, पिछले कुछ वर्षों में तो कोयला खदान वितरण घोटाले में सीबीआई के पूर्व निदेशक तक का नाम विवादों में आ गया। अदालत में इस समय करीब 182 ऐसे मामले बीस साल से लटके हुए हैं। करीब 1597 मामले दस साल से लंबित हैं।



शिकंजे से बचने भ्रष्टाचार का लालू पैटर्न 



समय के साथ नेता, दलाल और अधिकारी ही नहीं रिश्वत देने वाले भी अधिकाधिक चालाक हो गए हैं। इसलिए रेलवे के भर्ती घोटाले के सबूत जुटाने में सीबीआई को जाने कितने तार जोड़ने पड़ रहे हैं। जांच और प्रमाण अदालत में पेश होने पर ही सुनवाई और क़ानूनी कार्रवाई, सजा या दोषमुक्त का फैसला होगा। लेकिन 2021 में दर्ज प्रकरण से यह गंभीर तथ्य तो सामने आया कि लालू यादव के परिजनों को तत्काल कोई धनराशि या जमीन नहीं दी गई। दो साधारण कर्मचारियों ने रेल में भर्ती के लिए पहले अपने या किसी करीबी के नाम जमीन ली। फिर कुछ साल बाद लाखों लाखों रुपयों की जमीन लालू परिवार के सदस्यों पत्नी राबड़ी देवी, बेटी मीसा, हेमा इत्यादि को दान में अथवा बहुत कम दाम में दे दिए। लालू के करीबी भोला यादव की गिरफ्तारी और अब सुनील सिंह तथा अन्य लोगों के घरों पर छापेमारी के बाद डिजिटल या अन्य दस्तावेज और किसी कबूलनामे के साथ अदालत में कार्रवाई आगे बढ़ सकेगी। इसलिए सीबीआई से जुड़े पूर्व अधिकारियों का यह तर्क सही है कि लालू परिवार सत्ता में रहकर ऐसी जांच में देरी कराने में माहिर रहे हैं। तभी तो उन्हें लगता है कि भाजपा सरकार और प्रधान मंत्री भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ाई  की घोषणा कर जांच में तेजी के साथ अदालत से सजा दिलाने की जल्दी में हैं।



अफसरों पर दबाव बचाव का फार्मूला



बचाव का एक फार्मूला यह भी रहता है कि प्रतिपक्ष में बैठे नेता यह प्रचार और धारणा जोर शोर से बनाएं कि वे शीघ्र पुनः सत्ता में आ सकते हैं। मतलब अधिकारी संभलकर रहें। आख़िरकार सीबीआई में अधिकांश अधिकारी राज्यों से प्रति नियुक्ति पर आते हैं। कार्मिक मंत्री जितेन्द्र सिंह ने संसद में स्वीकार किया था कि सीबीआई के पास 5944 स्वीकृत पद हैं और 1329 खाली पड़े हैं। सरकार ने राज्यों और केंद्रीय पुलिस बालों से नाम मांगें, जिन्हें लोक सेवा आयोग की स्वीकृति के बाद रखा जा सकता है। दूसरी तरफ अधिकांश राज्यों में एक ही पार्टी की सरकारें नहीं हैं। नतीजा यह है कि आठ गैर भाजपा शासित सरकारों ने सीबीआई को अपने क्षेत्र में आने पर दस तरह के अंकुश लगा दिए हैं, क्योकि उनके ही मंत्री या परिवार अधिकारी आर्थिक अपराधों में फंसे होने के मामले दर्ज हो रहे हैं।



नेताओं के लिए गठित हों विशेष अदालतें



बहरहाल, यह केवल लालू परिवार की स्थिति नहीं है, राहुल गांधी, चिदंबरम और उनके बेटे कार्तिक, हेमंत सोरेन परिवार, उद्धव ठाकरे, संजय राउत, शरद पवार परिवार, नवाब मलिक, अमित देशमुख, सत्येंद्र जैन जैसे नेताओं से जुड़े गंभीर मामलों की जांच सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय जारी रख सकता है। जांच और अदालती प्रक्रिया से न्याय यानी सजा अथवा बेगुनाही के फैसले के लिए बहुत इन्तजार करना होगा। इसलिए कई नेताओं और कानूनविदों की यह सिफारिश स्वीकारी जाना चाहिए कि राजनीतिक नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार या अन्य किस्म के अपराधों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन हो और समयबद्ध नियमित सुनवाई के बाद फैसला किया जाए। दूसरी तरफ अमेरिका की फेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन एफबीआई की तरह सीबीआई के सम्पूर्ण ढांचे, नियमों आदि को अधिक प्रभावशाली बनाया जाना चाहिए। केवल राज्यों से पुलिस अधिकारी लाना और 1960.70 के दिल्ली पुलिस के अधिकार वाले घिसे पिटे कानून को बदलने की जरूरत है। निरपराध साबित करने वाले नेताओं को रहत मिलेगी और दण्डित नेताओं को संसद या विधान सभा के चुनाव लड़ने तथा सत्ता में आने के प्रयासों पर अंकुश लगेगा। 

(लेखक आईटीवी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं।

 


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